छोटे उद्योगों को अर्थव्यवस्था के आकाश में ऊंचा उड़ने का हौसला देने की जरूरत

गंगा किनारे एक करोड़ दीयों में इतना प्रकाश नहीं कि भटके पथिक को रास्ता दिखा दें परंतु गांव की झोपड़ी का दीया भटकों को रात गुजारने की आस देता है।

भारत की जीडीपी का दीया एमएसएमई है। कुल चार करोड़ 34 लाख यूनिट में 51% गांवों में हैं जिनमें ज्यादातर को परिवार का अकेला या दो सदस्य चला रहे हैं। हमारी ग्रामीणोन्मुख अर्थव्यवस्था का आधार गांव का यही सूक्ष्म या कुटीर उद्योगी है। 11 करोड़ रोजगार के साथ यह कृषि के बाद सबसे बड़ा रोजगार सृजन का क्षेत्र है। इससे भी अच्छी बात है कि 55% यानी छह करोड़ 45 लाख यूनिटें गांवों में तथा 45%  यानी चार करोड़ 95 लाख यूनिटें शहरी क्षेत्रों में रोजगार का माध्यम बनी हुई हैं। स्वयं रोजगार के क्षेत्र में भी यह बड़ा उदाहरण हैं, क्योंकि 99.5% अर्थात अधिकांश एकल अथवा दो व्यक्तियों द्वारा संचालित सूक्ष्म उद्योग हैं जो शहर और ग्रामीण क्षेत्रों में बराबर संख्या में हैं। इन पर आरक्षण की नीति लागू न होने के बावजूद 66% आरक्षित वर्ग की भागीदारी है।

इतनी सकारात्मक तथ्यों के बावजूद एमएसएमई को सरकारी संरक्षण का वांछित दर्जा नहीं है। जिस प्रकार एक करोड़ मछली मिलकर भी व्हेल से नहीं लड़ सकतीं, वह सभी को निंगल जाएगी। इन एक करोड़ मछलियों को व्हेल से दूर प्रजनन कराया जाए तो करोड़ों लोगों को भोजन मिल जाएगा। इसी प्रकार चालीस करोड़ सूक्ष्म और लघु उद्योगों के उत्पादों को संरक्षित कर बड़े उद्योगपतियों के यहां उन वस्तुओं के उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने से एमएसएमई की गति तेज हो जाएगी, जिसका सीधा असर मार्केट की रौनक पर पड़ेगा। घरेलू कारीगरी अथवा सीमित संसाधनों से जिन चीजों का उत्पादन हो सकता है, उन्हें सूक्ष्म और लघु उद्योगों के लिए आरक्षित किया जा सकता है। पापड़, साबुन, मंजन आदि इसके बेहतर उदाहरण हैं। इस प्रकार रोजमर्रा के कोई चार सौ आइटम हैं, जो इस वर्ग में आरक्षित हो सकते हैं।

बाकी के 4.30 करोड़ एमएसएमई की मध्यम श्रेणी के लिए पृथक आरक्षित उत्पादों की सूची बनाई जा सकती है। एमएसएमई के प्रारंभिक गठन के समय मशीनरी की लागत पर पूंजी की लाइन डालने का उद्देश्य तत्कालीन शासकों के लिए यही रहा होगा।

सन् 2019 में चुनाव से पूर्व भाजपा सरकार ने घोषित किया था की 50 लाख तक का कर्ज बिना गारंटी के दिलवा देंगे, परंतु इसका फलीभूत होना अधर में है तथा असंभव है।  जरूरत इस बात की है कि एमएससी के लिए खासतौर से उन इकाइयों को जो एक या दो व्यक्तियों के द्वारा संचालित की जा रही हैं, वित्तीय संस्थानों से पूंजी की उपलब्धता को सुगम बनाया जाए।

सन् 2009 में अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट को देखें तो बहुत आसानी से बात समझ आती है कि जब बड़े उद्योगों को पूंजी की उपलब्धता बढ़ाई गई तो उन्होंने अपने प्लांट को अपग्रेड करने में उसका उपयोग किया, जिससे बेरोजगारी बढ़ी। एमएसएमई के साथ यह नहीं है। यहां अधिक पूंजी उपलब्ध कराने का अर्थ अधिक उत्पादन है। अधिक उत्पादन से सरकार को राजस्व और बेरोजगारों को रोजगार मिलता है। साथ ही साथ मार्केट के पहियों की रफ्तार भी तेज होती है और यह चक्र अर्थव्यवस्था की गति को घर्षण रहित अवस्था में स्थापित कर देगा।

जनधन खातों में कांग्रेस करीब 14 करोड़ की संख्या तक पहुंची थी। इन्हें 40.30 करोड़ तक पहुंचाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपलब्धि है। इन खातों में 1.31 करोड़ रुपये जमा हो चुके हैं। अत्यंत गरीबों से एकत्रित इस राशि को वापस कुटीर उद्योगों के लिए आरक्षित कर दिया जाता तो छोटी चिड़ियों को अर्थव्यवस्था के आकाश में ऊंचा उड़ने का हौसला मिलता।

(गोपाल अग्रवाल समाजवादी चिंतक व लेखक हैं और आजकल मेरठ में रहते हैं।)

गोपाल अग्रवाल
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