नंद कुमार साय के भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल होने के सामाजिक और राजनीतिक मायने

चुनाव के निकट आते ही राजनीतिक हल्कों में हलचल मचना भारत की राजनीति में आम बात सी रह गई है। इन दिनों छत्तीसगढ़ में, केंद्र में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कद्दावर आदिवासी नेता रहे नंद कुमार साय ने भाजपा छोड़कर कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। भाजपा से इस्तीफा देने के अगले ही दिन साय छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ कांग्रेस में शामिल हो गए, जहां इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं।

नंद कुमार साय का कांग्रेस पार्टी में स्वागत करते हुए, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 1 मई को रायपुर में भाजपा पर कटाक्ष किया। बीजेपी को आदिवासी विरोधी बताते हुए सीएम ने बीजेपी पर ‘आदिवासी लोगों की जमीन’ लूटने का आरोप लगाया। बघेल ने कहा, “भारतीय जनता पार्टी से मोहभंग करने वाले कद्दावर नेता नंद कुमार साय, जो 5 बार सांसद रह चुके हैं, अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रहे हैं, कांग्रेस पार्टी में उनका स्वागत है।” उन्होंने कहा, “यह बिल्कुल सच है कि हम कहते थे कि आदिवासियों की जमीन लूटने का काम भारतीय जनता पार्टी की सरकार में हुआ है।”

कांग्रेस में शामिल होने के बाद मीडिया कर्मियों को संबोधित करते हुए, साय ने कहा कि भाजपा छोड़ना उनके लिए एक कठिन निर्णय था। उन्होंने दावा किया कि अब भाजपा वह पार्टी नहीं रही जो अटल जी और आडवाणी जी के समय हुआ करती थी। साय ने रविवार को राज्य भाजपा अध्यक्ष अरुण साय को अपना इस्तीफा सौंप दिया और आरोप लगाया कि उनके सहयोगी साजिश रच रहे थे और उनकी छवि खराब करने के लिए झूठे आरोप लगा रहे थे, जिससे उन्हें गहरा धक्का लगा।

77 वर्षीय साय, तीन बार सांसद, तीन बार के विधायक, अतीत में छत्तीसगढ़ और अविभाजित मध्यप्रदेश दोनों में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में कार्यरत थे और उत्तरी छत्तीसगढ़ के सरगुजा संभाग के आदिवासी बहुल हिस्सों में उनका काफी प्रभाव है। वे सोमवार को कांग्रेस के राज्य मुख्यालय राजीव भवन में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम और मंत्रियों की उपस्थिति में कांग्रेस में शामिल हुए।

कंवर जनजाति से ताल्लुकात रखने वाले साय, वर्ष 2000 में नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य के आदिवासी नेताओं में भाजपा के बड़े नेता रहे हैं। प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी की आयु के ही करीब रहे साय, दो कारणों से काफी बड़े थे। एक तो यह कि वे तत्कालीन मुख्यमंत्री के विपरीत राजनीतिक दल में थे और अपनी पार्टी में काफी बड़े पदों पर रहे हैं। दूसरा वे और अजित जोगी की पहचान एक ही आदिवासी समूह कंवर से है, जो अन्यथा हमेशा से छत्तीसगढ़ में गोंडों की छाया में रही है।

2003 के चुनाव में साय को बीजेपी से आदिवासी सीएम चेहरे के रूप में पेश किए जाना था, क्योंकि वे ना केवल सीनियर आदिवासी नेता थे, बल्कि वे पार्टी में पूरे छत्तीसगढ़ के सबसे सीनियर नेता थे। लेकिन भाजपा ने उन्हें पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया और आदिवासी सीएम की जगह पिछले दरवाजे से डॉ. रमन सिंग को सामने लाया। तब भी पार्टी आलाकमान के इस निर्णय से साय काफी खफा थे। उन दिनों अटल बिहारी वाजपाई, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के समझाने से वो मान गए कि यह निर्णय पार्टी के लिए ज्यादा फायदेमंद होगा। 

साय लंबे समय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की हिंदुत्व की विचारधारा में आस्था रखते थे और आदिवासी क्षेत्रों में कार्यरत आरएसएस के संस्थानों के माध्यम से पले-बढ़े थे, इसलिए भाजपा के प्रति उनका झुकाव मजबूत रहा। 2003 के बाद के हर चुनाव में भाजपा ने उनकी इसी तरह उपेक्षा जारी रखी। फिर भी साय ने हिन्दुत्व की विचारधारा पर विश्वास रखते हुए हर चुनाव में पुरजोर तरीके से प्रचार-प्रसार किया। 

संघ के सिद्धांत में आस्था होने के बावजूद नन्द कुमार साय और अन्य भाजपा नेताओं में एक स्पष्ट अंतर था। साय आदिवासी ईसाइयों के पक्षधर नहीं हैं, पर उनसे नफरत नहीं करते हैं। यही वजह है कि वे डिलिस्टिंग के आंदोलन में उस रीति से शरीक नहीं हुए, जैसे तमाम भाजपा के आदिवासी नेतृत्व ने किया।

साय हमेशा से आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के आंदोलन के पक्ष में रहे हैं और ऐसे आंदोलनों के साथ कुछ एक मसलों में अंदरूनी एकजुटता भी दर्शाई है। ऐसे में सवाल यह भी है कि बघेल सरकार साय के इन दो महत्वपूर्ण पहलुओं- पहला उनका एक संघी बने रहना और दूसरा प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों का हक-अधिकार का मसला- को कैसे संभालेंगे। 

एक और सवाल यह भी है कि क्या साय के द्वारा संघ में सीखी गई भाषा में कोई परिवर्तन आएगा या नहीं? संघ आदिवासी लोगों को वनवासी शब्द से संबोधित करते हैं। आरएसएस का तर्क यह है कि जिस तरह नगर में रहने वाले नगरवासी और ग्राम में रहने वाले ग्रामवासी कहे जाते हैं उसी तरह वनों में रहने वाले वनवासी ही हैं। जबकि आदिवासी बुद्धिजीवियों ने इस तर्क को आरएसएस-भाजपा के हिन्दुत्व एजेन्डा का हिस्सा और आदिवासियों पर सांस्कृतिक हमला करार देते हैं। 

वास्तव में आरएसएस-भाजपा आदिवासियों को आदिवासी न कहकर वनवासी (जंगल में रहने वाले) इसलिए कहता है क्योंकि इन्हें आदिवासी कहने से उन्हें स्वयं को आर्य और आदिवासियों को अनार्य (मूलनिवासी) मानने की बाध्यता खड़ी हो जाएगी। इससे आरएसएस के हिंदुत्व का मॉडल ध्वस्त हो जाएगा।

इस संदर्भ में आदिवासी स्कालर और नेताओं की मानें तो आदिवासियों की ऐतिहासिक पहचान आदिवासी/आदिम शब्द को ख़त्म करने वाली भाजपा कभी आदिवासियों का भला नहीं कर सकती है, यह बात जितनी जल्दी आदिवासी समुदाय समझ जाए उनके लिए बेहतर होगा।

साय का भाजपा छोड़ना एक और सवाल को जन्म देता है। क्या इससे भाजपा के अंदर अन्य आदिवासी नेताओं के बीच ऐसी कोई चिंतन की कड़ी आरंभ होगी। क्या आरएसएस-भाजपा का आदिवासी विरोधी सिद्धांत और नीतियों पर कोई अंदरूनी सवाल उठेगा? या फिर आदिवासी नेतृत्व गुलामी की जंजीरों में और अधिक जकड़ते ही जाएंगे? भाजपा की जिस उपेक्षा की वजह से साय ने पार्टी छोड़ी उससे वे क्या उबर पाएंगे? क्या कांग्रेस उन्हें भाजपा की उपेक्षा के बदले महत्वपूर्ण स्थान और पद दे पाएगी? इन सारे सवालों का जवाब आने वाला समय ही देगा। 

(डॉ० गोल्डी एम० जॉर्ज स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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