शिक्षा के मंदिर में जाति-धर्म की पूजा: चांद से मुजफ्फरनगर कैसा दिखता होगा?

अभी कल उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर का एक वीडियो वायरल हुआ जो बहुत व्यथित करने वाला और तकलीफदेह था। एक शिक्षिका अपनी क्लास के आठ साल के बच्चे को बाकी बच्चों से बारी-बारी से झापड़ मारने के लिए कह रही थी। कोई बच्चा उसके हिसाब से जोर से थप्पड़ नहीं मार रहा था, तो वह उसे और तेज़ मारने की हिदायत दे रही थी। मन को दुखी करके अवसाद के कुएं में धकेल देने वाला वीडियो था यह। साथ ही इसे देखकर क्रोध आ रहा था, टीचर को अधिक से अधिक सजा मिले, ऐसी इच्छा हो रही थी।

असहाय खड़े, फूट-फूट कर रोते हुए बच्चे को देख कर आंखें अपने-आप आंसू से भरी आ रही थीं। लोगों ने इसे साम्प्रदायिकता के चश्मे से भी देखा क्योंकि बच्चा मुस्लिम था ऐसा बताया जा रहा है। टीचर बच्चे के समुदाय के लिए भी भद्दी बातें कर रही थी। कुल मिलाकर सब कुछ बहुत ही घिनौना था, गुस्सा, आक्रोश और खीझ पैदा कर रहा था। इस देश में अधिकांश बच्चे ऐसे ही स्कूलों में पढ़ाई करते हैं।

जाति और धर्म को लेकर, नाम और त्वचा के रंग को लेकर, जेंडर को लेकर बच्चों की शेमिंग बहुत सामान्य बात है। एक तरफ देश बहुत अधिक बढ़ रहा है, दुनिया के बाकी देशों को पीछे छोड़ कर चांद के दक्षिणी ध्रुव तक पहुंच चुका है, वहीं अगिनत शिक्षकों की बुद्धि रसातल में जा रही है। उन्हें शिक्षा का सही अर्थ समझ ही नहीं आया। शिक्षा और संवेदनशीलता कैसे एक दूसरे के बगैर अधूरे हैं यह बात उनके भेजे में घुस ही नहीं पाई है।

स्कूल में हमेशा से यही सिखाने की रीति रही है कि मजहब बैर नहीं प्रेम करना सिखाता है। पर किसी ख़ास मजहब के बच्चे को बाकी बच्चों से पिटवाना, किसी दूसरे शिक्षक द्वारा इसका वीडियो बनाना, यह सब तो भयावह है। कहां जा रही है हमारी शिक्षा? शिक्षक को शिक्षित करने की कितनी जरूरत है, मुजफ्फरनगर इस बात को रेखांकित करता है। हम बड़े अजीबोगरीब लोग हैं। एक खलीते में चांद के दक्षिणी ध्रुव को और दूसरे खलीते में मुजफ्फरनगर को रख कर भी हमें कोई ख़ास असुविधा नहीं होती। आराम से घूमते-टहलते हैं। सीना चौड़ा किये हुए।

विदेशों में बच्चों के लिए शिक्षा मॉडल

कनुप्रिया (परिवर्तित नाम) पिछले तीन दशकों से पारिवारिक मित्र है और शिक्षण के काम में लगी हैं। पूरी तरह से समर्पित हैं बच्चों को पढ़ाने के प्रति। शुरुआत में भारत के कुछ प्रतिष्ठित स्कूलों में पढ़ाया, फिर ईरान चली गईं। वहां भारतीय दूतावास के स्कूल में बच्चों को पढ़ाया और अब करीब दो दशकों से कनाडा में वहीं के सरकारी स्कूल में पढ़ाती हैं। कनुप्रिया मिडिल स्कूल में पढ़ा रही हैं। यानी कक्षा छह से आठ तक के बच्चों को। इस बार जब वह भारत की यात्रा पर आई तो कई बातें उसने साझा कीं, अपने यहां की पढ़ाई लिखाई के बारे में। इस बीच उन्होंने भारत में वैकल्पिक शिक्षा की दिशा में काम रहे कुछ स्कूलों का भी दौरा किया और बड़ी निराश रहीं।

टीचर बच्चे की बात सुनने को बाध्य

वह बता रही थीं कि कनाडा में यदि कोई टीचर किसी बच्चे की बात नहीं सुनती तो बच्चा अपने माता-पिता से इस बात की शिकायत कर देता है। यह कोई नियम नहीं पर अक्सर ऐसा होता है। फिर जब अभिभावक टीचर से पूछते हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया तो टीचर को बाकायदा सफाई देनी पड़ती है। ऐसी-वैसी नहीं, आधी-अधूरी नहीं, बिलकुल सच्चाई के साथ। मसलन, टीचर को कहना पड़ता है कि: ‘हां, आपका बच्चा फलां दिन आया था, मुझसे कुछ कह रहा था, पर मैं किसी और काम में मसरूफ होने की वजह से गौर नहीं कर पाई। यह गलत था और अब मैं फिर से उसकी बातें सुनूंगी’।

छात्र-केन्द्रित शिक्षा में न टीचर का अधिक महत्त्व है, और न ही पढ़ाई का

पेरेंट्स भी इस पर कोई फसाद नहीं करते, क्योंकि टीचर ने सच ही कहा है। फिर टीचर बच्चे से मिल कर उसकी बातें इस बार गौर से सुनती हैं और जो एक्शन लिया जाना चाहिए वह लेती हैं। वह बच्चे को यह भी समझाती हैं कि उस दिन वह क्यों उसकी बात गौर से नहीं सुन पाई थी। वहां शिक्षा छात्र-केन्द्रित है। न टीचर का अधिक महत्त्व है, और न ही पढ़ाई का। न ही किसी ख़ास पाठ्यक्रम का। किसी दिन छात्रों के पढ़ने का मन नहीं, तो वे खुलकर शिक्षक से कह सकते हैं कि आज बाहर कैंपस में टहलने चलते हैं। और टीचर बच्चों की बात सहर्ष मानती हैं, उनके साथ खेल-कूद में लग जाती हैं।

मारना तो दूर बच्चों को डांट भी नहीं सकते टीचर

अब करें स्कूलों में सज़ा की बात। बच्चों को डांट नहीं सकते। मारना तो दूर। और तो और उनको घूर कर देख भी नहीं सकते। एक बच्चे की दूसरे बच्चे के साथ किसी भी मामले में तुलना नहीं कर सकते। मिडिल स्कूल के बच्चे भी खुद को जेंडर फ्लूइड भी मान सकते हैं। यदि कोई लड़का चाहता है कि उसे किसी लड़की के रूप में देखा और संबोधित किया जाए, तो यह उसकी आजादी है।

वह खुद को ‘शी/हर’ कह और कहलवा सकता है और सभी इसका सम्मान करेंगे। कोई ख़ास यूनिफार्म नहीं। बच्चों के अलावा टीचर भी अलग-अलग तरह की पोशाकें पहन कर आ सकते हैं। इस पर कोई ध्यान ही नहीं देता। शिक्षक आम तौर पर साल में छह महीने पढ़ाते हैं। और यदि ज्यादा बच्चों को पढ़ाने और तनाव होने के कारण वह परेशान हो जाए तो उसे पूरे एक साल का स्ट्रेस लीव या ‘तनाव अवकाश’ मिल सकता है जिसमें शिक्षक को अस्सी फीसदी तनख्वाह भी मिलती रहती है।

छात्रों को सवाल करना सिखाया जाता है

छोटे बच्चों को सबसे पहला सबक यह सिखाया जाता है कि वह सवाल करे। हर बात पर सवाल करे; टीचर की बात पर, पेरेंट्स की बात पर, समाज पर; राजनीति पर, धर्म पर। सवाल से ही बौद्धिक, मानसिक विकास होता है; इस बात पर वहां की शिक्षा व्यवस्था का गहरा भरोसा है। बच्चों के आज्ञाकारी न होने का खतरा है, और वे गलतियां कर सकते हैं, पर इस बात के लिए वहां की पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षणिक व्यवस्था पहले से ही तैयार बैठी है।

बच्चे को अपनी गलतियों से ही सीखना है

बच्चे को अपनी गलतियों से ही सीखना है और उसे गलतियां करने की अनुमति होती है। सीखने के और तरीके कारगर नहीं। धर्म की पकड़ मन पर कमज़ोर पड़ गई है, और नैतिकता का पाठ टीचर और पेरेंट्स नहीं सिखा सकते। यह समझ कर पूरी जिम्मेदारी बच्चों को ही दे दी गई है। वे गलतियां करें, और सीखें। टीचर सिर्फ एक मदद करने वाला उपकरण है; जैसे कि स्कूल, किताबें, कंप्यूटर और शिक्षा देने का तरीका। ठीक वैसे ही, बस उतना ही।

यह सब लिखने का उद्द्येश्य कनाडा की शिक्षा पद्धति की तारीफ में कसीदे पढ़ना नहीं था। बस एक मुलाकात जो वहां के शिक्षक के साथ हुई और उससे जो जानकारी मिली, उसका ज़िक्र करने की जरूरत महसूस हुई, क्योंकि यह सब कई लोगों के लिए दिलचस्प और नया हो सकता है। इसलिए यह सब लिखा गया।

(चैतन्य नागर स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।)

चैतन्य नागर
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