मौत की घाटी में बदलता जा रहा है पूरा देश

ये घटना आज की है। बिजनेस में घाटे से परेशान बनारस के एक बिजनेस मैन चेतनु तलुस्यानु ने अपनी वाइफ, बेटी और बेटे को मारने के बाद खुद भी सुसाइड कर लिया। दो दिन पहले की खबर थी कि महज तीस हजार रूपये के कर्ज को लेकर एक पूरे प्रवासी बिहारी परिवार को उसके नजदीकी रिश्तेदार ने दिल्ली के भजनपुरा में मौत के घाट उड़ा दिया। चार दिन पीछे जाते हैं। दिल्ली में एक आदमी मेट्रो के सामने कूद कर जान दे देता है। छानबीन पर पता चलता है कि उस आदमी का नाम मधुर मलानी है और वह दिल्ली के दिलशाद गार्डेन का रहने वाला है। 

मेट्रो के सामने कूद कर जान देने से पहले वह अपने चौदह साल की अपनी बेटी समीक्षा और छह साल के अपने बेटे श्रेयांश की हत्या कर चुका था। वह अपनी बीवी की भी जान लेने वाला था लेकिन वह घर पर नहीं थी। दिल्ली पुलिस का कहना है कि वह आदमी लंबे समय से बेरोजगार होने की वजह से डिप्रेशन का शिकार था। छह महीने पहले मंदी की वजह से उसकी सैंडपेपर फैक्ट्री बंद हो गई थी। उसने उसे दुबारा खोलने की कोशिश भी की, पर कर नहीं पाया। फैक्ट्री के बंद होने के बाद से ही मलानी का पूरा परिवार जीवन यापन के लिए अपने पैरेंट्स पर डिपेंडेंट हो गया था। 

दो दिन पहले 12 फरवरी को मुंबई के पवई में एक 67 साल के आदमी ने अपनी बीमार बीवी की हत्या कर दी और गायब हो गया। उसके घर से पुलिस को एक सुसाइड नोट मिला जिसमें लिखा था- ‘हमें बिजनेस में बड़ा घाटा हुआ है। हम कर्ज में डूबे हैं और इस वजह से अपनी जिंदगी खत्म कर रहे हैं। मेरी पत्नी बीमार हैं और मैं उन्हें यूं ही नहीं छोड़ सकता क्योंकि मेरे बाद उनका ख्याल रखने वाला कोई नहीं है। हमारे इस कृत्य का कोई भी जिम्मेदार नहीं है।’ 

ये पिछले दो-चार दिन की सिर्फ इक्की दुक्की घटनाएं हैं। देश के अलग अलग इलाकों में रोज इस तरह की सामूहिक आत्महत्याओं की एकाधिक खबरें आ रही हैं। उन नंबरों को अगर काउंट किया जाए तो ये घटनाएं हजारों की संख्या को छू सकती है। इस तरह के घटनाओं पर कोई स्टडी नहीं हुई है। इनकी प्रोफाइलिंग नहीं हुई है। वरना पता चलेगा कि भयंकर आर्थिक दुश्वारियों ने हमें किस कदर आत्महंता बना दिया है। इतने बड़े पैमाने पर पूरी फैमिली के साथ सुसाइड हमारी सोसाइटी की नई परिघटना है।

इसे समझने और तत्काल एड्रेस किए जाने की जरूरत है। ये पिछले साल बेराजगारी के कारण आत्महत्या करने वाले 24 हजार युवाओं से अलग हैं। ये अधेड़ हैं। ये बूढ़े हैं। ये एक वक्त में अपने पैर पर खड़े थे। इन सबने अपनी जिंदगी में कई झंझावात झेला हुआ था और गिर कर खड़े थे मगर अब इस समाज और सरकार ने इनके पास मरने के अलावा कोई चारा नहीं छोड़ा है। 

अगर पाकिस्तान की बर्बादी के मजे लेने से जनता और सरकार को फुर्सत मिल गई हो! उसके हाथ भीख का कटोरा देखकर मिल रहा सैडिस्ट एंज्वायमेंट पूरा हो गया हो, सीएए-एनआरसी से पोलराइजेशन की पॉलटिक्स से मन भर गया तो सरकार जी जरा इस तरफ भी ध्यान दे दें। वरना लंबे वक्त में हर कदम का पॉजिटिव रिजल्ट निकलेगा कहने वाली सरकार को जान लेना चाहिए कि लंबे वक्त में सब मर जाएंगे।

(उमाशंकर पेशे से पत्रकार हैं।)

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