लखनऊ से ग्राउंड रिपोर्ट: कहीं टपकती छतें तो कहीं जर्जर दीवारें, सपना ही बना रह गया पक्का घर

लखनऊ/सीतापुर। कुछ समय पहले मुख्यमंत्री के जनता दरबार में एक महिला ने सीएम योगी से आवास के लिए गुहार लगाई। इस पर उन्होंने कहा कि निराश मत हो, सरकार उनके लिए जल्द ही आवास की व्यवस्था कर देगी। उन्होंने अधिकारियों को निर्देशित किया कि किसी भी दशा में कोई भी गरीब बेघर नहीं रहना चाहिए। किसी के पास जमीन न होने के कारण आवास नहीं है तो उसके लिए जमीन की व्यवस्था करते हुए सरकारी योजना के तहत आवास बनाकर दिया जाए।

अपने पक्के आवास के अधिकार को पाने के लिए वो महिला तो सीधे मुख्यमंत्री के पास पहुंच गई, संभवतः उसे मिल भी गया हो, पर सवाल यह है कि आखिर कितने जरूरतमंद मुख्यमन्त्री तक पहुंच पाते हैं? प्रधानमंत्री आवास से वंचित आज भी ऐसे बहुतेरे परिवार हैं जिन्हें यह तक नहीं मालूम कि जरूरतमंद होने के बावजूद आखिर उन्हें आवास क्यों नहीं मिल रहा या आवास सूची में नाम आने के बावजूद भी उन्हें आवास क्यों नहीं मिल पा रहा।

आवास संबधी रिपोर्टिंग के दौरान ऐसे कई गरीब परिवारों से मुलाकात हुई जो एक पक्की छत के लिए लंबे समय से जद्दोजहद कर रहे हैं लेकिन उनका नाम तक लिस्ट में शामिल नहीं हो पा रहा है या बहुतों के तो सूची में नाम आने के बावजूद भी उन्हें आवास नहीं मिल पा रहा। तो सबसे पहले यह रिपोर्टर पहुंची लखनऊ के बाहरी ग्रामीण क्षेत्र बक्शी का तालाब (बीकेटी)।

बीकेटी स्थित बाना गांव की रहने वाली मंसूरा बेहद गरीब हैं। उसका कोई नहीं, सालों पहले पति की मृत्यु हो गई थी। बच्चे भी नहीं हैं। वे सरकारी राशन और थोड़ी-बहुत मज़दूरी कर अपना गुजर-बसर कर लेती हैं। रहने के लिए पुआल और तिरपाल की एक  छोटी-सी झोपड़ी डाली हुई है। मंसूरा कहती है, “ज़िंदगी बस इसी मड़ईया (झोपड़ी) में बीत रही है। कच्चा घर है, अकेली रहती हूं तो हमेशा एक डर भी बना रहता है, पक्के घर में सुरक्षा भी रहती है लेकिन मिले तब तो।” 

मंसूरा आगे कहतीं हैं कि “हर गरीब को पक्की छत मिलेगी, योगी सरकार तो यही कहती है पर मिले तब जानें। इस साल भी कच्चे घर में ही ठंडी-गर्मी बीत रही है और न जाने कितनी ठंडी, गर्मी, बरसात इसी मड़ईया में बीते।” इसके बाद ठंडी सांस भरते हुए मंसूरा खाना बनाने के लिए चूल्हा जलाने की तैयारी में जुट गईं।

अपने घर के बाहर बैठी मंसूरा

मंसूरा के गांव से निकलकर यह रिपोर्टर बाराखेमपुर गांव पहुंची। इस गांव में सावित्री से मिलना हुआ। सावित्री को जब पता चला कि हम पक्के घर से वंचित गरीबों पर स्टोरी करने आए हैं तो उन्होंने अपने घर के हालात को बताते हुए उसे देख लेने की गुज़ारिश की। उनके घर की भी वही कहानी थी जो दूसरी जगहों पर देखने को मिला। टीन की छत, पुआल की झोपड़ी, बाहर खुले में एक छोटी सी रसोई। उस छोटे से कच्चे घर में सावित्री और उसके 6 लोगों का परिवार रहता है यानी कुल सात लोग।

सावित्री कहती हैं कि लंबे समय से वे भी मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत पक्के घर का इतज़ार कर रही हैं लेकिन कब योजना आती है, चली जाती है पता ही नहीं चलता, फॉर्म भी भरे पर कोई लाभ नहीं मिला। सावित्री के पति की 6 साल पहले मौत हो गई। बेटे हैं जो मज़दूरी करते हैं। अन्य लोगों की तरह सावित्री भी कहती हैं कि अब लगता है पक्के घर की चाहत केवल एक सपना भर ही रह जाएगी।

फिर हम पहुंचे अस्ती गांव। इस गांव में मुख्यतः पासी, बहेलिया (चिड़ी मार), गौतम आदि दलित समुदाय के लोग रहते हैं। कुछ मुस्लिम परिवार भी हैं। गांव के अंदर घुसते ही हमें अपनी झोपड़ी के पास बैठी एक बेहद बुज़ुर्ग महिला नज़र आईं। उनका घर कच्चा और बदहाल था। वे 80 साल की मधुराई थीं।

पुआल से बनी अपनी जर्जर झोपड़ी की ओर देखते हुए वे कहती हैं, “इसी छोटी सी कच्ची झोपड़ी में सर्दी, गर्मी, बरसात बीत रही है। बारिश में छत टपकती है तो ठंड में ओस गिरती है पर क्या करें, कहां जाएं?” इतना बताते ही मधुराई रोने लगीं। रोते-रोते ही वे कहती हैं कि सुन रहे थे कि सरकार हर गरीब को पक्का घर दे रही है फिर उन्हें क्यों नहीं मिल रहा, वे भी तो बेहद गरीब हैं।

मधुराई कहती हैं, “न पक्की छत मिली, न शौचालय मिला और ना ही कभी उन्हें ठंड में मिलने वाला कंबल मिला, हां उज्जवला के तहत गैस चूल्हा तो ज़रूर मिल गया लेकिन इस महंगाई में गरीब आख़िर सिलेंडर कैसे भरवाएं!” बात करते-करते वे लगातार रोये जा रही थीं।

पुआल से बनी अपनी जर्जर झोपड़ी के बाहर मधुराई

सचमुच उनके ये आंसू मेरे लिए बेहद पीड़ादायक हो गए थे। अब उनसे कुछ पूछने की हिम्मत भी जवाब दे रही थी। इसी बीच गांव की कुछ अन्य महिलाएं भी पहुंच गईं जिन्होंने बताया कि कई कोशिशों के बावजूद उन्हें भी अभी तक पक्की छत नहीं मिल पाई है। ये महिलाएं भी दलित समुदाय से ही थीं। इन्ही में से एक थीं सरला।

सरला कहती हैं, “जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, पक्की छत की उम्मीद भी मरती जा रही है।” सरला का परिवार भी बेहद गरीबी में दिन काट रहा है। पति सोहनलाल तांगा चलाते हैं और बेटे गरीबी के कारण पढ़ाई छोड़ मज़दूरी करने लगे हैं। दो बेटियों की शादी हो चुकी है जबकि एक बेटी दिमागी रूप से कमज़ोर होने के कारण घर पर ही रहती है।

वह कहती हैं कि वर्षों से उनके पति तांगा चलाने का काम करते हैं इसलिए दूसरा काम करने में सक्षम भी नहीं हैं लेकिन अब तांगे में कमाई कहां, उससे ज़्यादा तो घोड़े की देखरेख में लग जाता है। सरला गुस्से भरे स्वर में कहती हैं, “हम गरीबों के नाम से आने वाली सरकारी योजनाएं आखिर हम तक कैसे पहुंचेंगी जब बिचौलिया तंत्र उसे हड़प जा रहा है और इस पर कोई देखने-सुनने वाला नहीं।”

सरला के घर के बगल में ही मधु का भी घर था। वे अपने दो छोटे बच्चों के साथ हमसे मिलने पहुंची और हमसे उनका भी घर देखने की बात कहने लगीं। घर क्या था किसी तरह से गुजर-बसर हो रही थी बस। उस छोटे से तंगहाल कमरे में मधु अपने पति और दो छोटे बच्चों के साथ रहती हैं। मधु का पति मज़दूरी करता है जबकि जीविका चलाने के लिए वह भी कपड़ों में चिकनकारी का काम करती हैं।

सरला और मधु

मधु कहती हैं, “इस महंगाई में केवल पति की कमाई से क्या होगा इसलिए थोड़ा बहुत कढ़ाई का काम कर लेती हूं। ज़्यादा तो नहीं हां महीने में 400-500 की कमाई हो जाती है बस।” घर का हाल दिखाते हुए वह कहती है, “कम से कम यही अगर पक्का बन जाता तो गरीबी के कुछ दिन तो चैन से कट जाते लेकिन कई कोशिशों के बाद भी अभी तक पक्की छत नसीब नहीं हुई।” रुआंसी होकर वह कहती हैं, “हम गरीब आख़िर किस अधिकारी के पास जाएं, अपने गांव के प्रधान से कहते हैं तो जवाब मिलता है ‘समय आने दो सब हो जायेगा’, अब आख़िर समय कब आयेगा।”

तो वहीं डेरवां गांव जाने पर पता चला कि यहां भी कई ऐसे गरीब परिवार हैं जिन्हें अभी तक प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत पक्का घर नहीं मिला है। आवेदन भी किया गया, सारी औपचरिकताएं पूरी करने के बावजूद ग्रामीणों को समझ नहीं आ रहा कि आख़िर उन तक धनराशि पहुंच क्यों नहीं रही। डेरवां के रहने वाले बुजुर्ग रामस्वरूप कहते हैं उनके घर की हालत इतनी जर्जर हो चुकी है कि कभी भी गिर जाए। इस डर से उनके बेटे अपने परिवार के साथ रहने के लिए दूसरी जगह चले गए।

वे कहते हैं-टूटा-फूटा ही सही, फुटपाथ पर दिन गुजारने से तो अच्छा है कि इसी घर में रहा जाए। अभी वे और उनकी पत्नी इसी घर में रह रहे हैं। डेरंवा गांव की शांति देवी ने बताया कि प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत धनराशि दिलाने के नाम पर करीब तीन साल पहले उनके गांव में कुछ लोग आकर उनसे 1200 रुपये भी ले गए और आज तक न तो उनका कुछ पता है और न ही योजना का लाभ मिला। शांति की तरह ही डेरंवा गांव के अन्य कई लोगों ने भी यही बात बताई कि आवास योजना का लाभ दिलाने के नाम पर 1200 रुपये उनसे लिए गए।

मामपुर बाना गांव के रमेश गौतम भी पिछले छह साल से इस बात से परेशान हैं कि आवास योजना के लाभार्थी के तौर पर लिस्ट में नाम आने के बाद आख़िर उनका नाम लिस्ट से क्यूं काट दिया गया। उनका नाम 2016 में ही लिस्ट में आया था। रमेश कहते हैं तब उन्हें लगा था कि जल्दी ही उन्हें एक पक्की छत मिल जाएगी लेकिन छह साल बीत गए अभी तक लाभ से वंचित हैं। रमेश ने बताया कि दोबारा आवेदन करने के बाद, दो साल पहले एक बार फिर उनका लिस्ट में नाम आ गया है, लेकिन पिछले अनुभव की वजह से वे अभी भी आश्वस्त नहीं हैं कि पक्का घर बनाने के लिए उनको धनराशि मिल ही जाएगी।

अब बात सीतापुर जिले की। लखनऊ से करीब 120 किलोमीटर दूर स्थित सीतापुर जिले के हरगांव ब्लॉक मुख्यालय में पिछले दिनों आवास की मांग को लेकर ग्रामीणों का एक दिवसीय धरना हुआ। वे धरने पर इसलिए बैठे थे कि कई कोशिशों के बाद भी उन्हें प्रधानमन्त्री आवास योजना के तहत आवास नहीं मिला।

हरगांव ब्लॉक पर आवास की मांग करते ग्रामीण

हरगांव के ग्रामीण कन्हैया बताते हैं कि ब्लॉक के गांवों में आज भी आवास विहीन परिवारों की एक बड़ी संख्या है। उनके मुताबिक पहले भी धरने हुए उसके बाद ग्रामीणों को आश्वासन दिया गया कि जल्दी ही जिला प्रशासन के लोग आकर गांवों का दौरा कर ये जांच करेंगे की आवास के लिए कौन पात्र है और कौन अपात्र, लेकिन करीब तीन महीने बीत गए इस आश्वासन को, कोई जांच करने नहीं आया तो ग्रामीणों को पुनः मजबूरन धरने पर आना पड़ा।

क्योंटिकला गांव से आईं बुजुर्ग महिला राम सती कहती हैं कि कुछ साल पहले उनके पति का हाथ ट्रेन से कट गया था अब वे कुछ काम करने की स्थिति में नहीं हैं। दो लड़के हैं, मजदूरी करते हैं। कच्चा घर है। कई बार आवास के लिए फॉर्म भर चुके हैं लेकिन मिलता ही नहीं, जबकि हम पात्र हैं।

बिशनुपुर गांव की कैलाशा के मुताबिक पिछले साल भी आवास के लिए फार्म भरा था इस साल दोबारा भरा है। पति बेरोजगार हैं। 6 बच्चे हैं सब मजदूरी करते हैं। वह बताती हैं कि उनके गांव में अभी तक कोई अधिकारी यह जांच करने के लिए नहीं आया कि कौन पात्र हैं और कौन अपात्र। दुखी मन से वह कहती हैं कि पता नहीं जांच कब होगी और उन्हें कब पक्का आवास मिलेगा। तो वहीं नगरची गांव से धरने में आई बुजुर्ग कांति देवी बेहद परेशान दिखीं। वह कहती हैं आख़िर कितनी बार प्रयास करें। अब बार- बार दौड़-भाग नहीं होती। पति की मृत्यु हो चुकी है। तीन बेटे हैं जो मजदूरी करते हैं। बिस्वा भर खेती है बस, उससे क्या होता है।

हरगांव ब्लॉक स्थित खजुआ गांव के मोबिन आवास न मिलने से बेहद परेशान हैं। उनके मुताबिक उनका तो लिस्ट में नाम है फिर भी आवास नहीं मिल रहा, आख़िर क्यों, वे समझ नहीं पा रहे। मोबिन आरोप लगाते हैं कि आवास के लिए उनके खाते में पहली किस्त आ जाए उसके एवज में उल्टा उन्हीं से रिश्वत मांगी जा रही है जबकि विवश होकर वे जैसे तैसे जुगाड़ कर दस हजार दे भी चुके हैं।

मोबिन के घर जाकर देखा तो घर की हालत बहुत खराब थी। एक हिस्से में सिर ढकने के लिए बरसाती बंधी थी तो एक तरफ छत के नाम पर टीन की शेड पड़ी थी। कमरे भी जर्जर थे। मोबिन कहते हैं कि अब कोई बताये कि क्या वे पक्के आवास के हक़दार नहीं। छोटे-छोटे बच्चे हैं, उन्हीं की ख़ातिर आवास मिल जाता, इतना कहते ही मोबिन का गला भर आया।

अपने परिवार के साथ मोबिन

अब बारी थी गांव के ही रिजवान के घर जाने की। घर क्या था बस परिवार किसी तरह गुजर बसर कर रहा था। कच्ची छत, कभी भी गिर जाने वाली दीवारें। बरसात में पुआल की छत को टपकने से बचाने के लिए उसे प्लास्टिक से ढंका हुआ था। रिजवान कहते हैं कि सरकारी कागज पर उन्हें पक्का आवास मिल चुका है, पर ये कैसे हुआ उन्हें नहीं पता। बेहद मायूस होकर वे कहते हैं कि क्या हमारे घर की हालत प्रशासन को नहीं दिखाई दे रही। ये तो हद है।

उन्होंने बताया कि जहां उन्होंने ऑनलाइन अप्लाई किया जब वहां वे दोबारा ये देखने गए की लाभार्थी की सूची में उनका नाम दर्ज हुआ कि नहीं तो उनको बताया गया की उन्हें पक्का आवास इसलिए नहीं मिल सकता क्योंकि उनको मिल चुका है। वे बताते हैं कि जब उन्हें पता चला की सरकारी कागज में उन्हें आवास मिल चुका है तो इस झूठ के खिलाफ़ उन्होंने न केवल प्रदेश के मुख्यमंत्री, जिलाधिकारी बल्कि प्रधानमन्त्री तक को पत्र लिखा है और वे सारे पत्रों की फोटो कॉपी दिखाने लगते हैं।

रिजवान मजदूरी का काम करते हैं। रिज़वान कहते हैं बरसात में पूरे घर मे पानी भर जाता है। छत टपकती है। सब कपड़े गीले हो जाते हैं। बच्चों का तन ढकना मुश्किल हो जाता है फिर भी हमारे लिए कहा जाता है कि हमें आवास मिल गया इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है। इस गांव में अन्य भी ऐसे परिवार मिले जो बेहद गरीब हैं। कच्चे घर में रहते हैं। सिर पर ढंग की छत भी नहीं लेकिन उन्हें पक्का आवास नहीं मिल पा रहा।

वर्ष 2015 में जब केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना की शुरुआत की थी तो लक्ष्य रखा था कि 2022 तक देश के हर गरीब परिवार के पास एक पक्का घर होगा। इस योजना का मुख्य उद्देश्य था- कच्चे, जर्जर घरों और झुग्गी झोपड़ी से देश को मुक्त बनाना। योगी सरकार मानती है कि इस योजना को सफलतापूर्वक लागू करने और गरीबों को पक्का घर देने में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। हालांकि प्रदेश सरकार ने अपने पहले ही कार्यकाल के भीतर प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत राज्य के सभी शहरी और ग्रामीण गरीबों को पक्का घर देने का वादा किया था। राज्य सरकार दावे कुछ भी करे लेकिन तस्वीर साफ है कि अभी भी बहुतेरे गरीब परिवारों को एक पक्की छत का इंतजार है।

(सरोजिनी बिष्ट पत्रकार हैं)

सरोजिनी बिष्ट
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