कृषि क्षेत्र की त्रासदी को हिंदुत्व की राजनीति और झूठ के सहारे नकारने का खेल

कृषि क्षेत्र की त्रासदी, फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की क़ानूनी गारंटी किये जाने, किसान आन्दोलन के दौरान मारे गए लोगों को मुआवजा देने और किसानों की कर्जमाफी समेत कई अन्य मांगों को लेकर दिल्ली में 15 से 22 मार्च 2023 तक बड़ा प्रदर्शन करने की संयुक्त किसान मोर्चा की घोषणा के बीच, उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में दौरे पर आये केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का यह बयान कि, ‘नरेंद्र मोदी सरकार के पिछले आठ साल के कामकाज के दौरान देश के किसानों की आय दो गुनी से लेकर दस गुनी तक बढ़ी है’, बताता है कि देश में कृषि और किसानों के भयावह हालात के बावजूद मोदी सरकार के पास इस क्षेत्र को देने के लिए कुछ भी ‘ठोस’ और उत्साहजनक नहीं है। 

गौरतलब है कि केन्द्रीय कृषि मंत्री का यह वक्तव्य ऐसे समय में आया है जब उत्तर प्रदेश में छोटे व्यापारियों और बिचौलियों द्वारा प्रदेश के छोटे और सीमांत किसानों से धान की फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य से 400 रुपये प्रति कुंतल तक कम दाम पर ख़रीदे जाने की ख़बरें बेहद आम हैं। यही नहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले हजारों किसान बकाये गन्ना मूल्य के भुगतान और आवारा जानवरों की समस्या हल करने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं।

केन्द्रीय कृषि मंत्री के इस बयान के बाद, उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के संगठन सचिव अनिल यादव ने वक्तव्य जारी करते हुए उनके इस बयान की आलोचना की। उन्होंने कहा कि, ‘किसानों की नहीं, भाजपा सरकार के मंत्रियों, ठेकेदारों, दलालों की आय दो गुनी बढ़ी है। पूरे प्रदेश के किसान तंगहाल हैं। एक साल से गन्ना मूल्य नहीं बढ़ा है और किसानों के बेटों को अग्निवीर योजना में फंसा दिया गया है।’

यही नहीं, आजमगढ़ के खिरियाबाग में अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के विस्तारीकरण के लिए जमीन अधिग्रहण के विरोध में पिछले 109 दिन से प्रदर्शन कर रहे लोगों में से एक राजीव यादव ने कृषि मंत्री के बयान की आलोचना करते हुए कहा कि, ‘केन्द्रीय कृषि मंत्री किसानों को बचाने के लिए नहीं बल्कि बेचने के लिए बैठे हैं। उन्हें किसानों की पीड़ा से कोई मतलब नहीं है उन्हें बस पूंजीपतियों के विकास से मतलब है।’

हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) से सम्बद्ध भारतीय किसान संघ ने दिल्ली में मोदी सरकार के खिलाफ एक बड़े प्रदर्शन का आयोजन किया था। इस प्रदर्शन के पीछे भारतीय किसान संघ की मुख्य मांगों में से एक खेती में लागत वृद्धि के अनुपात में किसानों की आय वृद्धि किये जाने के उपाय जैसे किसान सम्मान निधि में बढ़ोत्तरी, कृषि को जीएसटी से मुक्त करने और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर (DBT) के द्वारा किसानों की सीधी मदद करने जैसे मुद्दे शामिल थे।

किसानों की आय दोगुनी होने संबधी कृषि मंत्री के बयान के आलोक में इस तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि किसानों को उनकी फसलों के न्यूनतम मूल्य की आज तक कोई क़ानूनी गारंटी नहीं है। यही वजह है कि देश के व्यापारी तबके द्वारा किसानों की फसलों को न्यूनतम मूल्य से 35 से 40 फीसद कम दाम में ख़रीदा जाना एक सामान्य बात है। सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

देश के बड़े किसानों द्वारा ही अपनी फसलें सरकारी क्रय केन्द्रों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेची जाती हैं, बाकी लघु और सीमांत किसान अपनी फसल गल्ला व्यवसायियों या फिर खुले बाजार में व्यापारियों को आर्थिक जरूरतों के मुताबिक बेचते हैं। यहां पर न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की कोई गारंटी नहीं होती है। यह देश में बिक्री योग्य कुल फसल का लगभग 90 फीसद होता है। चूंकि ये किसान संगठित होकर शोषण की इस व्यवस्था के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा पाते, इसलिए राजनीति में इस समस्या पर कोई बात ही नहीं होती।

यही नहीं, देश में किसी फसल के बम्पर उत्पादन की स्थिति में भी किसानों को लाभ की कोई गारंटी नहीं हैं। इसलिए कई बार किसान बाजार में बेहतर मूल्य नहीं मिलने के कारण अपनी फसल को सड़कों या नदियों में फेंक देते हैं। कर्नाटक के टमाटर किसान, महाराष्ट्र के प्याज उत्पादक और मध्य प्रदेश के लहसुन उत्पादक किसानों के साथ ऐसी त्रासदीपूर्ण घटनाएं घट चुकी हैं। इस त्रासदी की जिम्मेदारी राज्य या केंद्र किसी सरकार ने नहीं ली।

देश के किसानों के हालात पर नेशनल सैंपल सर्वे का डाटा जो रोशनी डालता है उससे भी इनकी दयनीय दशा का पता चलता है। सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले, देश के कृषक परिवारों की प्रति परिवार आय 6426 रुपये थी, जबकि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद, वर्ष 2018-19 में प्रति परिवार यह 10218 रुपये मासिक भले हो गई, लेकिन कृषि में बढ़ी उत्पादन लागत के कारण किसानों की वास्तविक आय में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई।

हालांकि, कोरोना संकट के बाद देश के एकमात्र कृषि क्षेत्र ने भले ही आर्थिक बढ़ोत्तरी दर्ज की हो, लेकिन किसान समुदाय और खेती पर आश्रित श्रमिकों की स्थिति लगातार चिंताजनक बनी बनी हुई है। आज देश के कृषक परिवारों की औसत आय जहां महज सत्तर हजार वार्षिक है वहीं कृषि मजदूरों की सालाना औसत आय महज अड़तालीस हजार रुपये है।

कृषि मंत्री भले ही किसानों की आय दूने से ज्यादा हो जाने की बात कर रहे हों, लेकिन आंकड़े और जमीनी हालात इस सन्दर्भ में एकदम उलट गवाही देते हैं। चाहे वह कृषक हों या फिर कृषि मजदूर, आज हालत उनके एकदम प्रतिकूल है। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वर्ष 2018 में जहां 10439 किसानों और कृषि श्रमिकों ने संयुक्त रूप से आत्महत्या की वहीं वर्ष 2021 में यह संख्या 10881 थी। यही नहीं, कृषि पर आश्रित कृषि श्रमिकों की आत्महत्या में 2019 के मुकाबले 18 फीसद अधिक उछाल देखा गया। यह 2019 के 33164  कृषि श्रमिक के मुकाबले 2021 में 42004 के चिंताजनक आकडे़ पर थमा।

केन्द्रीय कृषि मंत्री के किसानों की आय दोगुने से ज्यादा होने के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए उत्तर प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष विश्वविजय सिंह कहते हैं कि, ‘झूठ बोलना इस सरकार का पेशा है। स्वामीनाथन फार्मूले के मुताबिक़ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने से खुला इनकार करने वाली यह सरकार लगातार किसान विरोधी काम कर रही है। यह सरकार सिर्फ झूठ बोलकर अपनी किसान विरोधी नीतियों पर चर्चा से भाग रही है। भले ही इनकी फाइलों में सब कुछ बढ़िया हो, लेकिन वास्तविकता यही है कि किसानों के हालात जमीन पर बहुत ख़राब हैं।’

जब किसानों के लिए हालात लगातार चुनौतीपूर्ण बने हुए हैं तो फिर केन्द्रीय कृषि मंत्री खुलेआम किसानों की आय दोगुनी से ज्यादा होने का दावा किस आधार पर कर रहे हैं? इसका जवाब देते हुए बस्ती जनपद के सामाजिक कार्यकर्त्ता गिरसंत यादव कहते हैं कि, ‘इस सरकार में झूठ बोलना और प्रचार करना ही केन्द्रीय तत्व है। पूरी सरकार झूठ के प्रचार के सहारे अपनी असफलता छिपाए हुए है। किसानों की आय लगातार गिरी है। लेकिन ऐसा कहने वालों को इस सरकार के लोग टुकड़े-टुकड़े गैंग और अर्बन नक्सल बोलकर ‘बदनाम’ करते हैं।’

किसानों की आय दो गुना से दस गुना तक बढ़ जाने की बात सार्वजानिक तौर पर कृषि मंत्री भले बोल रहे हों, सरकारी आंकड़े इस तथ्य की भले की पुष्टि नहीं करें, फिर भी मोदी सरकार को इस झूठ के खिलाफ किसी सियासी नुकसान का कोई डर क्यों नहीं है? इस सवाल के जवाब में प्रतापगढ़ के सामाजिक कार्यकर्त्ता शम्स तबरेज कहते हैं कि, ‘सराकर का झूठ इसलिए स्थापित हो जाता है क्योंकि विपक्ष के पास इस झूठ को लेकर सड़क पर सरकार को घेरने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। कोई सत्ता से सवाल ही नहीं पूछ पा रहा है।’

शम्स तबरेज कहते हैं कि, ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर फसलों को खरीदे जाने से इस देश के व्यापारियों के पास किसानों को होने वाली आय का एक बड़ा हिस्सा काले धन के रूप में में चला जाता है। इस लूट को रोकने की इच्छाशक्ति किसी दल के पास नहीं है। किसान सिर्फ असहाय होकर मल्टीनेशनल कॉरपोरेट के हमले झेल रहा है। उसकी कमाई तो बिचौलिए हड़प ले रहे हैं।’

केंद्र सरकार के इस तरह झूठ बोलने की वजहों को समझने के लिए भारतीय राजनीति में 1990 के बाद आये बदलावों, सत्ता में कॉरपोरेट के खुले दखल और जातिगत अस्मिता की सियासत के मजबूत होने समेत हिंदुत्व की राजनीति के अध्ययन की आवश्यकता है। उन कारणों का अध्ययन किये जाने की जरूरत है जिसने साल दर साल जीडीपी में कृषि के योगदान को सीमित किया और इस पर आश्रित एक बड़ी आबादी को बाजार के भरोसे छोड़ दिया।

आज मोदी सरकार जिस आर्थिक नीति पर आगे बढ़ रही हैं वहां किसानों और उनकी बेहतरी के मुद्दे पर चर्चा तक संभव नहीं है। फिर यह बहुत लाजिमी है कि समस्या को नकार दिया जाये ताकि बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं बचे।

दरसल, इस सरकार के पास नरेंद्र मोदी के रूप में एक आज पापुलर चेहरा है जो खुद को हिन्दू हितैषी के बतौर बहुसंख्यक हिन्दू समाज में स्थापित करने की कोशिश में है। इसके लिए वह हिन्दू समाज के एक काल्पनिक शत्रु से लगातार लड़ने का भ्रामक दावा किये हुए है और उसकी प्रचार सेना भी इसी भ्रम को मजबूत करने में लगी है। सरकार के पूरे क्रिया कलाप में हिन्दू बहुसंख्यकवाद की राजनीति कूट कूट कर भरी हुई है।

अस्मितावादी राजनीति के साथ हिन्दू बहुसंख्यकवाद के इस जहरीले मिश्रण ने नौजवानों और किसानों के बुनियादी मुद्दे को ‘गटर’ में डाल दिया है। यह सरकार एक चीज जानती है कि आम चुनाव कृषि और किसानों की बेहतरी के सवाल पर नहीं होगा। इसलिए इसे फर्क नहीं पड़ता कि लोग इस सवाल पर प्रदर्शन कर रहे हैं।

मोदी सराकर ने जो भ्रम का आवरण देश की जनता की आंखों में डाल रखा है उससे सरकार को यकीन है कि कृषि क्षेत्र में उसकी असफलताओं का असर उसके चुनाव जीतने पर नहीं पड़ेगा। अभी इस सरकार का एजेंडा सिर्फ हिंदुत्व राजनीति के नाम पर बहुसंख्यकवादी राजनीति को स्थापित करना है। इस एजेंडे में किसान कहीं नहीं है इसीलिए किसानों की बेहतरी के हवाई और हास्यास्पद दावे किये जा रहे हैं।

(स्वतंत्र पत्रकार हरे राम मिश्र की टिप्पणी)

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