सुप्रीम कोर्ट ने कहा- “देश में इमरजेंसी जैसे हालात”

“देश में इमरजेंसी जैसे हालात हैं।” देश की वर्तमान स्थिति के बारे में यह आकलन है सुप्रीम कोर्ट का। पर क्या शीर्ष अदालत ने सरकार से यह पूछा है,
● इमरजेंसी जैसे हालात क्यों और किसलिए पैदा हो गए हैं?
● ऐसे हालात के लिये कौन जिम्मेदार है?
● जो जिम्मेदार हैं, उनके खिलाफ क्या कार्यवाही की गयी?
● ऐसे हालात के लिये नीतियां जिम्मेदार हैं या उन नीतियों को लागू करने वाली नौकरशाही?

कम से कम सुप्रीम कोर्ट सरकार से यह तो पूछे,
● 2020 में कोरोना के आने के बाद उससे निपटने के लिये सरकार ने क्या कदम उठाए?
● कोरोना नियंत्रण के लिये नीति आयोग की गठित टीम, जिसके अध्यक्ष डॉ. पॉल हैं और जो इस मामले में थिंकटैंक हैं, ने दूसरी लहर के बारे में क्या ज़रूरी इंतज़ाम किए?
● 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज का क्या ब्रेक अप है। वह कहां खर्च हुआ?
● कोरोना के लिये पीएम केयर्स फ़ंड में कितना धन जमा हुआ और कहां-कहां खर्च हुआ?
● सुप्रीम कोर्ट का खुद ही आदेश है कि बड़े निजी अस्पताल गरीबों का इलाज करें तो सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर क्या कार्यवाही सरकार ने की?
● अपने देश में टीकाकरण की सारी ज़रूरतों को पूरा किये बिना क्यों यह वैक्सीन अन्य देशों को निर्यात कर दी गई?
● इसी प्रकार रेमेडिसविर दवा और ऑक्सिजन जैसे ज़रूरी संसाधन अभी हाल तक क्यों निर्यात किये जाते रहे?

सरकार से यह सब सवाल सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूछे जाने चाहिए थे।

नोटन्दी से लेकर लॉकडाउन तक सरकार के खिलाफ तमाम मुकदमे सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और तारीखों के लिये तरस गए और आज तक नोटबन्दी की बदइंतजामी से लेकर, लॉकडाउन के कुप्रबंधन पर दाखिल याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने एक शब्द भी नहीं कहा। नोटबन्दी, सीएए, कश्मीर, मजदूरों के लॉकडाउन में हुए दुर्व्यवस्था पर सुप्रीम कोर्ट, न्याय औऱ जनता की तरफ नहीं सरकार की सुविधा की तरफ खड़ी नज़र आयी।

इन सात सालों में सरकार की जो भी लानत मलामत हुई हो या हो रही हो, इसे छोड़ दें पर सुप्रीम कोर्ट की भी कम छीछालेदर उसके कुछ फैसलों के कारण नहीं हुयी है। जब मजदूरों के काम के घँटे तय करने की बात पर अदालत में याचिका पर सुनवाई हुयी तो सरकार के सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि जब पीएम 18-18 घन्टे काम कर सकते हैं तो मज़दूरों के काम के घँटे क्यों कम किए जाएं? क्या खूबसूरत सोच है कि सरकार यह मान रही है कि एक मजदूर और प्रधानमंत्री एक ही पायदान पर खड़े हैं।

पर क्या सच में ऐसा है? यह आप सब खुद तय कीजिए। मेरा मानना है कि यह तर्क ही पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिये है, ताकि वे बिना किसी ओवरटाइम के श्रम का अधिक से अधिक शोषण कर सकें। आठ के बजाय बारह घँटे का समय कामगार को एक मशीन में बदल कर रख देगा। मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक कार्य व्यापार के लिये उसके पास कोई समय ही नहीं बचेगा। वह पूंजीपतियों के लिये लाभ कमाने की मशीन बन कर रह जायेगा।

पिछले लॉकडाउन के समय सरकार ने कहा था कि कंपनियां, अपने कामगारों को लॉक डाउन की अवधि का वेतन देंगी। यह आश्वासन खुद प्रधानमंत्री ने दिया था, पर कंपनियों ने ऐसा करने से मना कर दिया और वे सुप्रीम कोर्ट चली गयीं। कंपनियों ने कहा कि उनके पास धन नहीं है। अदालत में सरकार ने भी कंपनियों के पक्ष में हलफनामा दे दिया कि वेतन देना सम्भव नहीं है। जब सम्भव नहीं था तो सरकार ने किसके बलबूते आश्वासन दिया था? क्या सरकार इन कम्पनियों को जो तरह-तरह की राहत देती रहती हैं, कुछ राहत इन कामगारों को नहीं दे सकती थीं? सरकार की नीयत ही जनविरोधी है, तो उसकी नीतियां कैसे लोककल्याणकारी बन जाएंगी?

अदालतों में, बंद लिफाफे में दस्तावेज दाखिल करना और उसे फाइलों के बीच दबाकर पढ़ना और प्रतिवादी को यह तक नहीं बताना कि उन बंद लिफाफों में लिखा क्या है और फिर सरकार के पक्ष में फैसला सुना देना कि जांच की ज़रूरत नहीं है, और सरकार द्वारा इसे ही क्लीन चिट कह कर दुंदुभी बजा देना, और खुद को दोषमुक्त घोषित कर देना,  यह कुछ नयी न्यायिक तथा अपराध और दंड की परम्पराएं हैं, जो इन सात सालों में सुप्रीम कोर्ट ने स्थापित की हैं।

सरकार के प्रति इतना घृणित समर्पण शायद ही भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में दिखे जब एक पूर्व सीजेआई न्यायिक शुचिताओं और परंपराओं को ताख पर रखते हुए राज्यसभा की सदस्यता की शपथ लेता है और जब इस पर विवाद उठता है तो कहता है कि वह सौदेबाजी करना चाहता तो बड़ी चीज मांगता। कमाल है यह वही सीजेआई है जो देश के न्यायिक इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली से क्षुब्ध होकर खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस करता है और एक उम्मीद देश भर में जगा देता है कि जब वह सीजेआई बनेगा तो चीजें सुधरेंगी। पर जब वह चीजों को सुधारने की हैसियत में आता है तो उसकी रीढ़ की हड्डी सरकार के ताप से पिघल जाती है।

भारत के पास न तो ऑक्सीजन की कमी थी और न ही अन्य संसाधनों की। कमी है तो बस प्रबन्धन की। सरकार का दिमाग ही गवर्नेंस में नहीं चलता है और वह उस दिशा में सोचती ही नहीं है। जिस राजनीतिक सोच की पृष्ठभूमि से इस सरकार के लोग आते हैं, वहां लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा और एक विविधितापूर्ण समाज को बनाने की बात ही नहीं की जाती है। वहां बस मिथ्या श्रेष्टतावाद, संकीर्ण धर्मांधता और फर्जी राष्ट्रवाद की शिक्षा दी जाती है और जब राष्ट्र की भौतिक सीमाओं पर अतिक्रमण होता है तो उसे भी स्वीकार करने का साहस यह मिथ्यावाचक गिरोह नहीं जुटा पाता है और कह देता है, ‘न कोई सीमा में घुसा, न हमारी पोस्ट किसी ने कब्जाई है।’ सरकार की एक भी नीति, चाहे वह आर्थिकी के क्षेत्र में हो, या स्वास्थ्य और शिक्षा के या विदेश नीति के क्षेत्र में, कहीं पर भी सफल नहीं कही जा सकती है।

अब ऑक्सीजन से जुड़े कुछ तथ्य देखें
● भारत में 18 अप्रैल के जारी भारत सरकार के डेटा के अनुसार भारत की कुल ऑक्सीजन खपत मेडिकल क्षेत्र में 4300 मैट्रिक टन हो रही है।● भारत ने हालांकि वर्ष 2021 के पहले क्वार्टर में 9,294 मैट्रिक टन ऑक्सीजन (एक्सपोर्ट डेटा कॉमर्स डिपार्टमेंट के अनुसार) बेची है, जिसमें से 8828.30 मैट्रिक टन बांग्लादेश, 220.15 मैट्रिक टन नेपाल को, 220.15 भूटान को, 16 मैट्रिक टन नाइजीरिया को और 10 मैट्रिक टन सिंगापुर को बेची है।
हालांकि भारत की ऑक्सीजन प्रोडक्शन करने की क्षमता 7,127 मैट्रिक टन है।

● इसमें से लगभग 3800 मैट्रिक टन मेडिकल के लिए दी जाती है और बाकि बची हुई इंडस्ट्रियल सेक्टर के लिए।
इससे पूर्व जब कोरोना केस थे पिछले वर्ष, तब प्रतिदिन 850 मैट्रिक टन के लगभग थी।
● भारत बांग्लादेश और दूसरे देशों को एक्सपोर्ट पहले से करता रहा है पर वह आंकड़ा 4,502 मैट्रिक टन होता था।
एक मैट्रिक टन में 1000 किलो वजन होता है।
● अभी भारत सरकार ने 50,000 मैट्रिक टन ऑक्सीजन बाहर से इंपोर्ट करने का निर्णय लिया है।
● 22 अप्रैल से इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन भी मेडिकल क्षेत्र के लिए पूर्ति होना शुरू हो गई है। ऑक्सीजन पहुंचाने के लिए रेल मंत्रालय ने ग्रीन कॉरीडोर से ऑक्सीजन एक्सप्रेस चलाने का निर्णय लिया है।
● रक्षा क्षेत्र के पब्लिक सेक्टर यूनिट (पीएसयू) भी ऑक्सीजन पूर्ति कराने के लिए सरकार द्वारा कदम उठाए गए हैं।

सरकार टीकोत्सव मना चुकी है और गोदी मीडिया सरकार को इस मामले में विश्व विजेता घोषित कर चुकी है। अब कृष्णन अय्यर के एक लेख के अनुसार, टीकों की असलियत देखें,
● इंजेक्शन की कमी थी और ये एक ‘बिजनेस इंसिडेंट’ भी कहा जा सकता है। बिना उचित मूल्य किसी भी कारोबारी से उसका प्रोडक्ट मांगना स्टेट पॉलिसी नहीं हो सकती।
● अब इंजेक्शन आसानी से मिलेगा। 150 रुपये में भारत सरकार को, 400 में राज्य को और 600 में अन्य को। यह मूल्य तीन प्रकार के हैं। केंद्र और राज्यों की दर में यह अंतर क्यों है, जबकि राज्यों के संसाधन तो केंद्र की तुलना में कम हैं?
● केंद्र और राज्य दोनों चुनी हुई सरकारे हैं… तो फिर केंद्र और राज्य के मूल्य में फर्क क्यों है? सरकार को यह बात बतानी चाहिए कि ऐसी पॉलिसी के पीछे क्या खेल है?
● अब राज्यों को वैक्सीन खरीदना है तो धन चाहिए। राज्यों के पास धनाभाव है। राज्यों का 77 हजार करोड़ रुपये का जीएसटी कर का पैसा केंद्र के पास पड़ा है, और केंद्र उसे दे नहीं रहा है।

सरकार के पास तो पीएम केयर्स फ़ंड भी है। अब इसकी स्थिति समझिए,
● 19 मई 2020 को टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, पीएम केयर्स फंड में, पहले तीन महीने में कुल 10,600 करोड़ रुपये जमा हुए।
● 13 मई 2020 को सरकार ने इसमें से 3100 करोड़ रुपये कोविड अभियान के तहत जारी किए।
● 2000 करोड़- भारत में बने 50,000 वेंटिलेटर के लिए।
● 1000 करोड़- प्रवासी मजदूरों पर खर्च होने थे ताकि वो बिना परेशानी घर पहुंच जाएं।
● 100 करोड़- वैक्सीन के निर्माण के लिए लगने थे।

तीनों मदों का क्या हुआ यह समझते हैं। पत्रकार शीतल पी सिंह की एक फेसबुक पोस्ट के अनुसार,
● मार्च 2020 में नोएडा की अग्वा नाम की एक कम्पनी को 10,000 वेंटिलेटर बनाने का ठेका दिया।
● कंपनी के पास इससे पहले हाई-एंड वेंटिलेटर बनाने का कोई अनुभव नहीं है। फिर भी 166 करोड़ का ठेका और 20 करोड़ एडवांस दे दिया।
● 16 मई को पहले क्लिनिकल ट्रायल में वेंटिलेटर फेल। पहली जून 2020 को दूसरे क्लिनिकल ट्रायल में भी फेल।
● अग्वा के अलावा दो कंपनियो को भी ठेका मिला था। पहली है, आंध्र सरकार की कंपनी एएमटीजेड। दूसरी है गुजरात की निजी कंपनी ज्योति सीएनसीआई। दोनों के पास हाई-एन्ड वेंटीलेटर बनाने का कोई अनुभव नहीं।
● ज्योति सीएनसी को 5000 वेंटिलेटर बनाने का ठेका 121 करोड़ में और एएमटीजेड को 13,500 वेंटिलेटर का ठेका 500 करोड़ में मिल गया।
● अगस्त 2020 में एक आरटीआई के जवाब में स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि इन दोनों कंपनी के वेंटिलेटर क्लिनिकल ट्रायल में फेल हो गए हैं।
● इसके बाद इस सरकारी कम्पनी एचएलएल के द्वारा, 13,500 वेंटिलेटर के ठेके को घटाकर 10,000 कर दिया गया। नया ठेका मिला चेन्नई की कंपनी त्रिविट्रोन को।
● 3000 एडवांस और 7000 बेसिक वेंटिलेटर के लिए त्रिविट्रोन को 373 करोड़ रुपए देने की बात तय हुई।
● त्रिविट्रोन ने वेंटिलेटर बनाए, लेकिन एएमटीजेड और एचएलएल के बीच टेंडर वापस लेने को लेकर बात उलझ गई। इस पचड़े में त्रिविट्रोन को डिस्पैच ऑर्डर नहीं मिला। ऐसे में एक भी वेंटिलेटर सप्लाई नहीं हुआ।

पीएम केयर्स फंड का दूसरा बड़ा मद था, प्रवासी मजदूरों के लिए। कहा गया कि,
● श्रमिक एक्सप्रेस ट्रेन का किराया पीएम केयर्स भुगतेगा।
● इसके अलावा राज्यों को भी पैसा दिया जाना था ताकि वो प्रवासी मजदूरों के आईशोलेशन की कायदे से व्यवस्था कर पाएं।
● कुल 1000 करोड़ खर्च करने की बात थी।
● चीफ लेबर कमिश्नर ने एक आरटीआई के जवाब में कहा कि उन्हें नहीं मालूम है कि ऐसी कोई रकम प्रवासी मजदूरों की सहायता के जारी हुई है।
● 4 मई 2020 को रेल मंत्रालय ने साफ किया कि वो प्रवासी मजदूरों के टिकट पर 85 फीसदी की छूट दे रहे हैं। बाकी का 15 फीसदी राज्यों को भुगतना होगा।
● इसके अलावा रेल मंत्रलाय ने 151 करोड़ रुपये पीएम केयर्स में जमा भी करवाए।

अब सवाल यह है,
● प्रवासी मजदूरों के लिए आवंटित 1000 करोड़ रुपये गए कहाँ?
● दूसरा वेंटिलेटर बनाने के लिए ठेके किस आधार पर दिए गए?
● कुल कितने वेंटिलेटर सप्लाई हुए। उसमें से कितने काम आ रहे हैं?

लेकिन आपको इनमें से एक भी सवाल का जवाब नहीं मिलेगा। पता है क्यों? क्योंकि पीएम केयर्स फंड न तो आरटीआई के दायरे में आता है और न ही सीएजी, इसका ऑडिट कर सकता है। देश के 98 सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी) कोष से कुल ₹ 2422.87 करोड़, मोदी सरकार ने पीएम केयर फंड में वसूला है, जिसमें सर्वाधिक 300 करोड़ रुपये ओएनजीसी से वसूला गया है।

आज एक बेबसी भरा माहौल है। इन सात सालों में परस्पर विद्वेष, घृणा का इतना अधिक जहर जानबूझ कर फैलाया गया है ताकि लोग केवल धर्मांधता में ही उलझे रहें और सरकार से उसके कामकाज पर सवाल न उठाएं। पर इस देश की खूबसूरती ही यह है कि अफ़ीम की पिनक में पड़े कुछ गिरोहों को छोड़ कर अधिकांश जनता, संकट के समय यह इन सब कट्टरपंथी चोंचलों को उठा कर फेंक देती है। वह मुखर हो उठती है। धर्म और जाति की दीवारें दरक जाती हैं। लोग एक दूसरे के मदद में आ जाते हैं। आज सरकार ज़रूर ख़बतुलहवास हो, पर लोग, दवाओं, ऑक्सीजन, अस्पताल और कहीं-कहीं आर्थिक मदद भी कर रहे हैं।

सोशल मिडिया और अन्य माध्यम ऐसी सकारात्मक खबरों से भरे पड़े हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस आकलन पर सरकार इमरजेंसी लगाती है या, क्या कदम उठाती है यह तो भविष्य के गर्भ में है, पर यह आप मान लीजिए कि सरकार चलाना, वर्तमान नेतृत्व के बस की बात नहीं है, क्योंकि इनका माइंडसेट ही, गवर्नेंस के बारे में कम सोचता है, हां, लनतरारियाँ, चाहे जितनी सुन लें इनसे।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और कानपुर में रहते हैं।)

विजय शंकर सिंह
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