राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को एक बार फिर परखेगा सुप्रीम कोर्ट

उच्चतम न्यायालय, राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को फिर परखने के लिए तैयार हो गया है। वर्ष 1962 के केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस कानून को वैध ठहराया था, लेकिन तब और अब की स्थिति में बहुत अंतर है। इससे पहले उच्चतम न्यायालय ने इसी तरह की एक याचिका खारिज की थी और कहा था कि केदारनाथ सिंह मामले में उच्चतम न्ययालय पहले ही पर्याप्त निर्देश दे चुका है। याचिका में कहा गया है कि वर्ष 1962 के बाद लगातार 124 ए का दुरुपयोग हुआ है और राजद्रोह की इस धारा की वजह से लोकतांत्रिक आजादी पर अस्वीकार्य प्रभाव पड़ता है। यह संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत हर नागरिक को हासिल अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन करता है। मामले की अगली सुनवाई 12 जुलाई को होगी।

जस्टिस  यूयू ललित, जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस केएम जोसफ की पीठ ने राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र से जवाब तलब किया है। मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमचा और छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैया लाल शुक्ला की ओर से दायर याचिका में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी),1860 की धारा 124-ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गयी है और उच्चतम न्यायालय से धारा 124-ए को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया गया है।

याचिका में कहा गया है कि धारा 124-ए भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है, जोकि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत प्रदान किया गया है। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है कि वे अपनी संबंधित राज्य सरकारों एवं केंद्र सरकार के समक्ष सवाल उठा रहे हैं और सोशल मीडिया मंच फेसबुक पर उनके द्वारा की गई टिप्पणियों एवं कार्टून साझा करने के चलते 124-ए के तहत उनके विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज की गई हैं। याचिकाकर्ताओं ने इस कानून के दुरुपयोग का आरोप भी लगाया है। याचिका में कहा गया है कि अन्य उपनिवेशवादी लोकतंत्रों में भी राजद्रोह को अपराध के तौर पर रद्द किया गया है, और इसको अलोकतांत्रिक, गैरजरूरी बताकर इसकी निंदा की गई है।

दोनों पत्रकारों के अनुसार, राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र के खिलाफ सवाल उठाने पर उनके खिलाफ धारा 124 ए के तहत मामला दर्ज है। मामले में शामिल पत्रकारों के खिलाफ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कार्टून शेयर करने और टिप्पणी करने को लेकर मामला दर्ज किया गया है। याचिका में कहा गया है कि साल 1962 के बाद लगातार 124ए का दुरुपयोग हुआ है। याचिका में उच्च्तम न्यायालय के 1962 के केदार नाथ सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार का भी हवाला दिया गया है।

याचिकाकर्ता की तरफ से वरिष्ठ वकील कोलिन गोंजाल्विस ने दलील दी कि सभी सरकारें इस कानून का दुरुपयोग राजनीतिक रूप से नापसंद लोगों के खिलाफ कर रही हैं। गोंजाल्विस ने कहा कि 1962 के केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस कानून को वैध ठहराया था, लेकिन तब और अब की स्थिति में बहुत अंतर है। 1962 के फैसले में भी उच्च्तम न्यायालय ने इस कानून के दुरुपयोग की बात स्वीकार की थी, लेकिन कानून को बनाए रखने का आदेश दिया था। अब उस फैसले पर दोबारा विचार की ज़रूरत है। आज अगर किसी के कुछ कहने या लिखने से वाकई अशांति या हिंसक विद्रोह फैलने की आशंका हो तो उसके खिलाफ पब्लिक सेफ्टी एक्ट या नेशनल सिक्युरिटी एक्ट लगाया जा सकता है।

अपराध ज़्यादा गंभीर होने पर यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि निषेध अधिनियम) भी लगाया जा सकता है। आज के समय में आईपीसी की धारा 124ए की मौजूदगी सिर्फ नागरिकों के दमन का साधन है। सरकार और पुलिस तंत्र इसे जिन मामलों में लगाते हैं, उनमें से ज़्यादातर में आरोपी बरी हो जाते हैं। इसके तहत मुकदमा सिर्फ सत्ताधारी पार्टी से अलग सोच रखने वालों को परेशान करने के लिए होता है। इसी साल 9 फरवरी को आईपीसी की धारा 124ए के खिलाफ एक याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी थी। यह याचिका तीन वकीलों आदित्य रंजन, वरुण ठाकुर और वी एलनचेरियन की थी। कोर्ट ने उनकी याचिका को इस आधार पर सुनने से मना कर दिया था कि उनमें से कोई भी व्यक्ति मामले में प्रभावित पक्ष नहीं है। अब दो ऐसे याचिकाकर्ता सामने आए हैं, जो इस कानून से प्रभावित हैं। ऐसे में कोर्ट ने याचिका सुनवाई के लिए स्वीकार कर ली है।

1962 में सुप्रीम कोर्ट ने केदार सिंह बनाम बिहार राज्य में 124A की संवैधानिक वैधता की जांच की। इसमें संवैधानिकता तो बरकरार रखी गई, लेकिन इसके उपयोग पर कुछ सीमाएं भी लगा दीं, जैसे ‘कार्रवाई में व्यवस्था को भंग करने की मंशा होनी चाहिए, या कानून-व्यवस्था में अशांति फैली हो, या हिंसा के लिए प्रेरित किया गया हो।’ यह फैसला बेहद कठोर भाषण या सरकार की आलोचना में कहे गए’ जोरदार शब्दों’ को राजद्रोह से अलग करता है।

दरअसल, 1870 में जब से यह कानून प्रभाव में आया, तभी से इसके दुरुपयोग के आरोप लगने शुरू हो गए थे। अंग्रेजों ने उनके खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए इस कानून का इस्तेमाल किया। इस धारा में सबसे ताजा मामला किसान आंदोलन टूलकिट मामले से जुड़ी पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि पर दर्ज हुआ है। आजादी के बाद केंद्र और राज्य की सरकारों पर भी इसके दुरुपयोग के आरोप लगते रहे। केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद से राजद्रोह के मामलों पर चर्चा बढ़ गई है। हालांकि इसके पहले की सरकारों में भी राजद्रोह के मामले चर्चित रहे हैं। साल 2012 में तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु संयंत्र का विरोध करने पर 23,000 लोगों पर मामला दर्ज किया गया, जिनमें से 9000 लोगों पर एक साथ राजद्रोह की धारा लगाई गई। हमारे देश में ब्रिटिश दौर का यह कानून जारी है पर ब्रिटेन ने 2009 में इसे अपने देश से खत्म कर दिया है।

आईपीसी 124-ए में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति देश-विरोधी सामग्री लिखता, बोलता है या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, या राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, तो उसे आजीवन कारावास या तीन साल की सजा हो सकती है। 1891 राजद्रोह के तहत पहला मामला दर्ज किया गया। बंगोबासी नामक समाचार पत्र के संपादक के खिलाफ ‘एज ऑफ कंसेंट बिल’ की आलोचना करते हुए एक लेख प्रकाशित करने पर मामला दर्ज हुआ। 1947 के बाद आरएसएस की पत्रिका ऑर्गनाइजर में आपत्तिजनक सामग्री के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था। सरकार की आलोचना पर क्रॉस रोड्स नामक पत्रिका पर भी केस दर्ज हुआ था। सरकार विरोधी आवाजों और वामपंथियों के खिलाफ भी इसका इस्तेमाल होता रहा। 2012 इस कानून के तहत सबसे बड़ी गिरफ्तारी हुई। तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। तमिलनाडु के कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र का विरोध कर रहे लोगों में से 9000 के खिलाफ धारा लगाई गई।

वर्ष 1958 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया, पर 1962 में उच्चतम न्यायालय ने वैध ठहराते हुए इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए शर्तें लगा दीं। 2018 में विधि आयोग ने भी इसका दुरुपयोग रोकने के लिए कई प्रतिबंध लगाने की अनुशंसा की। उच्चतम न्यायालय के फैसले और विधि आयोग की अनुशंसा लागू करने के लिए संसद के जरिए कानून में बदलाव करना होगा।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

जेपी सिंह
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