दो राहे पर प्रीतम सिंह, जायें तो जायें कहा?

राजनीति की एक अजीब सी दुनिया है जहां न तो कोई किसी का स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन। अब तो राजनीति में कोई स्थाई ठिकाना भी नहीं रह गया है। घर का रखवाला घर को लूटने लगता है और बाड़ भी कभी-कभी अपनी फसल बचाने के बजाय उसी को खाने लग जाती है। उत्तराखण्ड की राजनीति भी लीक से हट कर अलग नहीं है। सतपाल महाराज और विजय बहुगुणा जैसे बड़े-बडे़ दिग्गजों के कांग्रेस छोड़ने के बाद उत्तराखण्ड में कांग्रेस के मुखिया रहे किशोर उपाध्याय भी कांग्रेस को अलविदा कह गये। उनके स्थान पर कांग्रेस की कमान संभाल कर प्रतिद्वन्दी भाजपा के हर हमले से कांग्रेस को बचाने और उसे पुनः सत्ता तक पहुंचाने के लिये कटिबद्ध रहे प्रीतम सिंह के अलगाव की चर्चाएं इन दिनों मीडिया को भरपूर मसाला दे रही हैं। 

ये वही प्रीतम सिंह हैं जिन्हें आप जन्मजात कांग्रेसी कह सकते हैं और जिन्हें उनके पिता स्वर्गीय गुलाब सिंह ने कांग्रेसी चम्मच से राजनीति की घुट्टी पिलाई थी। ये वही प्रीतम सिंह हैं जिनका परिवार पिछले 65 सालों से कांग्रेस का पर्याय माना जाता था। ये वही परिवार है जिसे कांग्रेस की गुटबाजी ने अफीम काण्ड में कानून के फंदे तक में फंसाया और उसके बाद भी उस परिवार का कांग्रेस से मोहभंग नहीं हुआ। नब्बे के दशक में प्रीतम केवल एक साल के लिये कांग्रेस से अलग हुये थे। लेकिन आज वही परंपरागत कांग्रेसी परिवार स्वयं को बेगाना, तिरष्कृत और बहिष्कृत महसूस कर रहा है। हालात ने प्रीतम को दो राहे पर ला कर खड़ा कर दिया। कांग्रेस छोड़ना उनके लिये इतना आसान नहीं है। प्रचण्ड बहुमत पाने वाली भाजपा को फिलहाल कांग्रेस के असन्तुष्टों की आवश्यकता नहीं है। 

इन दिनों मीडिया में हर रोज चर्चाएं आ रही हैं कि प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष एवं प्रतिपक्ष के नेता रहे प्रीतम सिंह कम से कम 10 कांग्रेस विधायकों के साथ पार्टी छोड़ कर या तो भाजपा का दामन थामने वाले हैं या फिर नयी पार्टी बनाने वाले हैं। मुख्यमंत्री धामी के साथ उनकी मुलाकत ने तो चर्चाओं को और हवा दे दी। यही नहीं कांग्रेस के महासचिव और आला कमान के सबसे करीबी वेणुगोपाल द्वारा उन पर गुटबाजी करने और पार्टी को हराने के आरोप ने तो प्रीतम सिंह को और अधिक आहत कर दिया। देहरादून में कुछ कांग्रेसी भी खुल कर यह आरोप उन पर लगाते रहे हैं। मुख्यमंत्री पद की दौड़ से हरीश रावत को बाहर करने के लिये उन पर रणजीत रावत सहित आदि से मिल कर रावत को हरवाने का आरोप भी लगता रहा है। लेकिन कांग्रेस अगर जीती हुयी बाजी हारी है तो उसके लिये अकेले प्रीतम सिंह दोषी नहीं माने जा सकते। इस हार के लिये प्रदेश के सबसे बड़े नेता हरीश रावत को भी दोषमुक्त नहीं किया जा सकता। उन्होंने अपने मार्ग से कांटे हटाने के लिये एक-एक कर जनाधार वाले नेताओं को कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखाने का काम अवश्य किया। लेकिन प्रीतम सिंह जिस तरह हरीश रावत के खिलाफ रणजीत रावत जैसे बेकाबू लोगों के साथ खड़े रहे, उससे कांग्रेस को तो नुकसान होना ही था लेकिन उसका अंजाम पद गंवा कर स्वंय प्रीतम सिंह को भुगतना पड़ा। 

सन् 1993 से लेकर अब तक 6 बार विधायक चुने गये कांग्रेस के इस स्तंभ को 2021 में पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा कर थोड़े दिनों के लिये नेता प्रतिपक्ष बनाया गया और अब उनसे यह पद भी छीन कर एक बार बगावत कर कांग्रेस में लौटे यशपाल आर्य को दे दिया गया। राजनीति में पद मिलते और छिनते रहते हैं। लेकिन प्रीतम सिंह से इस बार नेता प्रतिपक्ष का पद पनिसमेंट के तौर पर छीना गया। उससे पहले भी उन्हें प्रदेश कांग्रेस पद से इसलिये हटाया गया क्योंकि उनकी ट्यूनिंग हरीश रावत से नहीं मिल रही थी। ऐसी स्थिति में उनकी नाराजगी स्वाभाविक ही है। यही नहीं 6 बार के विधायक को तो पद से हटा दिया लेकिन पहली बार जीते खटीमा के विधायक कापड़ी को सीधे उप नेता बना दिया। जबकि राजेन्द्र भण्डारी तो दो बार कैबिनेट मंत्री भी रह चुके हैं और इस बार वह भाजपा की प्रचण्ड लहर में प्रीतम सिंह के साथ हरिद्वार को छोड़ कर गढ़वाल मंडल से जीतने वाले दूसरे  विधायक हैं।

राजनीति का बेढब राग देखिये ! कांग्रेस की राजनीति में प्रीतम सिंह कभी हरीश रावत गुट के ही मजबूत स्तंभ माने जाते थे और नारायण दत्त तिवारी की उत्तराखण्ड में बादशाहत को हिलाने वाले रणजीत रावत, किशोर उपाध्याय और प्रदीप टमटा आदि के साथ ही प्रीतम सिंह को भी हरीश रावत का एक मरजीवड़ा माना जाता था। समय बदला हरीश रावत मुख्यमंत्री बने और प्रीतम सिंह उनके गृह मंत्री बन गये लेकिन गृह मंत्री की सारी शक्तियों का उपभोग हरीश रावत के उस समय के दायें हाथ रणजीत रावत विधायक न होते हुये भी करने लगे। ऐसे भी वाकये हुये जब गृह विभाग की बैठकों की सूचना गृहमंत्री प्रीतम सिंह को नहीं होती थी। 

वक्त ने करवट बदली। हरीश रावत के सबसे विवादास्पद सहयोगी रणजीत रावत आपसी विवाद के चलते हरीश रावत के दुश्मन नम्बर वन बन गये और गृह मंत्री के तौर पर प्रीतम सिंह के अधिकारों का अनाधिकार उपयोग करने वाले रणजीत के साथ ही प्रीतम सिंह भी हरीश रावत को सबक सिखाने के लिये एक हो गये। दरअसल उत्तराखण्ड की कांग्रेस राजनीति में हरीश रावत के एकछत्र राज का मुकाबला करने के लिये स्वर्गीय इंदिरा हृदयेश द्वारा बनाया गया एक गुट था जिसमें प्रीतम ही नहीं बल्कि कुछ अन्य पूर्व हरीश समर्थक शामिल हो गये थे। इंदिराजी के निधन के बाद प्रीतम के कंधों पर उस गुट को संभालने की जिम्मेदारी आ गयी थी। इसलिये उन्हें रणजीत रावत जैसे बेकाबू साथी को साथ रखना पड़ा जो कि पहले तिवारी के खिलाफ और अब हरीश रावत के खिलाफ किसी भी हद तक चले जाते हैं।

देखा जाय तो प्रीतम सिंह के कन्धों पर बन्दूक रख कर कुछ स्वार्थी तत्वों ने हरीश रावत को निशाना बना कर न केवल हरीश रावत और कांग्रेस पार्टी का नुकसान किया अपितु स्वयं प्रीतम सिंह को भी भारी नुकसान पहुंचा दिया। वह स्वभाव से कांग्रेसी हैं और संस्कार से कांग्रेसी हैं। इसलिये वह दो राहे पर खड़े हैं। उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में गये नेताओं की दुर्गति देख ली। अपनी पार्टी में वह बेगाने हो कर रह गये। 

प्रीतम सिंह गुलाब सिंह की राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी हैं। अगर हम गुलाब सिंह को जौनसार बावर का बिरसा मुण्डा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। गुलाब सिंह चकराता और मसूरी विधानसभा क्षेत्र से 8 बार उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे हैं और एक बार उन्हें राज्यमंत्री के तौर पर भी उत्तर प्रदेश और अपने निर्वाचन क्षेत्र की सेवा करने का अवसर मिला। हालांकि वह 1951 के चुनाव में चकराता एवं पछवादून विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के शांति प्रपन्न शर्मा से चुनाव हार गये थे। लेकिन उसके बाद वह इसी निर्वाचन क्षेत्र से 1957, 1962, 1967 और 1969 चुनाव जीते तो इसका लाभ जौनसार बावर को जनजाति क्षेत्र का दर्जा हासिल होने से मिला। 

क्षेत्र को यह दर्जा दिलाने में गुलाब सिंह की ही महत्वपूर्ण भूमिका रही। मसूरी विधानसभा क्षेत्र का नाम परिसीमन के बाद बदलने से चकराता हो जाने के बाद 1974 के चुनाव में भी गुलाब सिंह की जीत हुयी। लेकिन अगले चुनाव में जनता पार्टी की लहर एवं इमरजेंसी को लेकर कांग्रेस के प्रति जनाक्रोश के चलते 1977 में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में गुलाब सिंह जनता पार्टी के प्रत्याशी शूरवीर सिंह से हार गये। उसके बाद उन्होंने 1980, 1985 एवं 1989 के चुनाव भी जीते। सन् 1985 में तो वह उत्तर प्रदेश की नवीं विधानसभा के लिये निर्विरोध ही चुनाव जीत कर उत्तर प्रदेश में सबसे पहले जीत दर्ज करने वाले प्रत्याशी बने। गुलाब सिंह की मृत्यु के बाद 1991 के चुनाव में मुन्ना सिंह चैहान जनता दल के टिकट पर चकराता से चुनाव जीते। सन् 1993 के चुनाव में चकराता से गुलाब सिंह के ज्येष्ठ पुत्र प्रीतम सिंह ने जनता दल के मुन्ना सिंह चैहान को मात्र 500 मतों से परास्त किया। उस बार प्रीतम सिंह को कुल 36,503 मत और मुन्ना सिंह को 36,003 मत मिले थे। लेकिन अगली बार 1996 के चुनाव में वह मुन्ना सिंह चैहान से भारी मतों से हार ही गये।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

जयसिंह रावत
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