तीन कृषि कानून और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित

दिल्ली की संवेदनहीन दहलीज पर किसान आंदोलन अपने 92 दिन पूरे कर चुका है। कड़ाके की ठंड और बारिश की मार झेलते बार्डरों पर मोर्चा लिए हुए किसान अपने अस्तित्व को बचाने की आखिरी लड़ाई लड़ रहे हैं। 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड में शहीद हुए 24 साल के नौजवान के दादा के शब्दों में यह ‘आखिरी आंदोलन’ है। केंद्र सरकार और किसानों के बीच चल रही वार्ताएं बेनतीजा रहीं। किसान आंदोलन ने दो-एक बैठकों के बाद ही बातचीत करके समाधान निकालने के बारे में सरकार की बेरुखी का खुलासा कर दिया था, लेकिन फिर भी वे बातचीत की रस्म निभाते रहे, जब तक केंद्रीय मंत्री एकतरफा तौर पर बातचीत से पीछे नहीं हट गए। सुप्रीम कोर्ट को शिखंडी के तौर पर आगे करके कमेटी बनाने के सरकार के शुरुआती प्रस्ताव को आगे बढ़ाने की कोशिशों का भी पर्दाफाश हो गया। कोर्ट द्वारा नियुक्त चार सदस्यों में से एक भूपेंद्र सिंह मान को उसी किसान संगठन से निष्काषित कर दिया, जिसके वह नेता थे। शर्मिंदगी से बचने के लिए उन्होंने खुद को कमेटी से अलग कर लिया।

बातचीत के लंबे और थकाऊ सिलसिले से ऊबे हुए किसान नेताओं ने 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर गणतंत्र दिवस की एक समानांतर परेड का आयोजन करके सरकार को चुनौती दी कि यह देश उतना ही किसानों और आम जनता का भी है, जितना कि देश के शासकों का। किसान नेताओं के इस आह्वान का व्यापक असर हुआ। लाखों किसान और मजदूर ट्रैक्टर ट्रालियों, कारों, मोटर साइकिलों और बसों में, तो बहुत से पैदल ही दिल्ली की ओर बढ़े।

दिल्ली की ओर कूच करते इस जनसैलाब को देखकर घबराई सरकार और प्रशासन-तंत्र ने 26 जनवरी के दिन आंदोलनकारियों को एक अराजक भीड़ में बदलने की पूरी कोशिश की। दिल्ली के रास्तों से अनजान किसानों को तयशुदा रूट से भटक जाने दिया, किसानों के बड़े पैमाने पर हुए शांतिपूर्ण मार्च और आम-जनता द्वारा उनके स्वागत की अभूतपूर्व छवियों को सार्वजनिक होने से रोकने के हताशा भरे प्रयास में हिंसा की छिट-पुट घटनाओं को राष्ट्रीय गोदी मीडिया द्वारा लगातार दिखाया जाता रहा और आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की गई।

किसान नेताओं पर झूठे केस लादे जा रहे हैं और उन्हें एक बड़ी साजिश का अंग बताया जा रहा है। जब गोदी मीडिया लाल किले पर हुई प्रशासन-प्रायोजित ‘हिंसा’ का आरोप आंदोलनकारियों पर मढ़ रहा था, भाजपा ने अराजक तत्वों को लेकर धरना स्थलों पर हमला किया और भारी पुलिस बल के साथ धरना उठाने की कोशिश की, लेकिन किसान नेता राकेश टिकैत की बहादुरी और समर्थन की भावुक अपील ने प्रशासन की साजिश को नाकाम करके आंदोलन में नई जान फूंक दी है।

नेता अपनी ताकत को बटोरकर आगे की रणनीति बनाने में लगे हैं। दूसरी ओर सरकार है जो पूरी तरह अड़ियल रवैया अख्तियार कर चुकी है। लाखों किसानों और नागरिकों के कष्ट और पीड़ा उसके ऊपर बेअसर साबित हुए हैं। रोजाना औसतन दो किसान धरने पर दम तोड़ रहे हैं, लेकिन पत्थर दिल मंत्रियों की नजर में जैसे उनकी जान की कोई कीमत नहीं है। अपने को नेता कहने वाले लोग आंदोलनकारियों के बीच जाकर उनसे संवाद करने के बजाय इधर-उधर कूद-फांद करते फिर रहे हैं। फर्जी किसानों और मनचाहे दर्शकों के बीच बयानबाजियां करते, कानून के फायदे गिनाते घूम रहे हैं। संसदीय प्रक्रियाओं का खून बहाने के बाद अब किसानों की मौत का तमाशा देख रहे हैं।

 देश का हर संवेदनशील नागरिक बेचैन है। इस संकट का आखिर क्या समाधान निकलेगा? क्या सरकार झुकेगी और इन कानूनों को वापस ले लेगी? या फिर आंदोलनकारी थक कर टूट जाएंगे या उनको पुलिस-प्रशासन और मीडिया की ताकत से उखाड़ फेंका जाएगा? आखिर इन कानूनों के पीछे ऐसी क्या वजह है कि सरकार अपनी जनता, अपने लोगों की आवाज सुनने को तैयार नहीं है। ‘गूंगी और बहरी’ बन गई है।

वर्तमान संघर्ष की पृष्ठभूमि
आजादी के बाद देश के विकास का जो रास्ता अख्तियार किया गया था, 1980 के दशक तक आते-आते वह ठहराव का शिकार हो गया। 1991 में उसे त्याग कर इलाज के तौर पर विश्व बैंक और मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नई नीतियों को अपना लिया गया। 1991 से लेकर 1994-95 तक देश के भीतर इन नीतियों का तीखा विरोध हुआ, जिसका नेतृत्व भाजपा से लेकर वामपंथ तक तमाम विरोधी पार्टियां या उनके द्वारा बनाए गए जन-संगठन कर रहे थे। भाजपा का स्वदेशी जागरण मंच तब काफी सक्रिय था और उनकी नजर में ‘डंकल प्रस्ताव’ ‘गुलामी का दस्तावेज’ था, लेकिन 1994 में ‘विश्व व्यापार संगठन’ और 1995 में इसी के तहत हुए ‘कृषि समझौते’ पर दस्तखत हो जाने के बाद एक के बाद एक पार्टियां और सरकारें उसी रास्ते पर चलती गईं।

WTO के कृषि समझौते के तीन प्रमुख बिंदु थे: घरेलू कृषि-बाजार को खोलना, कृषि उत्पादन को घरेलू सहायता में कटौती और कृषि-निर्यात सब्सिडी में कटौती। कृषि-समझौते के लागू होते ही सरकारों ने चरणबद्ध ढंग से खाद्यान्नों और दूसरे कृषि-उत्पादों के विदेशों से आयात पर लगी रोक, कोटे और शुल्क हटाने शुरू कर दिए। कृषि-निर्यात को दी जाने वाली सब्सिडी और खेती की लागत (खाद, बीज, कीटनाशक, बिजली, पानी, मशीनरी इत्यादि), फसल-खरीद और भंडारण के लिए किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी क्रमशः काटी जाने लगी।

इन नीतियों के परिणामस्वरूप हमारे देश में कृषि की लागत बढ़ने लगी और सरकारी खरीद न होने से कीमतें अस्थिर हो गईं। भारतीय किसानों को बिला वजह बाजार में ऐसे विदेशी कृषि-उत्पादों से मुकाबला करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिन्हें भारी सब्सिडी मिल रही थी। उदाहरण के लिए, अमरीका अपने 20 लाख 20 हजार किसानों को कुल कृषि उत्पादन के 50 प्रतिशत से भी ज्यादा सब्सिडी दे रहा है, जबकि भारत में नेट सब्सिडी ऋणात्मक है।

इसके अलावा,1991 में स्वीकार किए गए मुद्राकोष और विश्व बैंक निर्देशित ‘ढांचागत समायोजन कार्यक्रम’ के तहत भारत पर अपने बजट-घाटे को संतुलित रखने का भी दबाव है, जिसकी वजह से 2004 में वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम पारित किया गया। इन शर्तों के चलते भारत सरकार WTO में अनुमति होने के बावजूद सब्सिडी जारी नहीं रख पा रही है। उदाहरण के लिए, WTO के तहत अधिकतम 10 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीदा जा सकता है, लेकिन भारत सरकार अभी केवल छह प्रतिशत खरीद रही है और उससे भी हाथ खींचने की कोशिश कर रही है।

 WTO के तहत तमाम आयातों पर लगने वाले शुल्क और कोटे में भारी गिरावट से सरकार की आय घटती जा रही है और वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिए वह आम जनता पर होने वाले खर्च में कटौती करती जा रही है। कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली सब्सिडी के अलावा शिक्षा, इलाज, ग्रामीण विकास इत्यादि को मिलने वाली सरकारी सहायता भी कम होती गई है, जिससे एक किसान और खेत-मजदूर के परिवार पर अतिरिक्त खर्चों का बोझ बढ़ गया है। बजट के पहले सरकार द्वारा जारी आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार निजीकरण के कारण इलाज का ‘आउट ऑफ पाकेट’ खर्च 65 प्रतिशत तक बढ़ गया है।

देश के 86 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसानों के लिए ये नीतियां विनाशकारी सिद्ध हुई हैं। 1990 के दशक तक देश में किसानों की आत्महत्याएं चर्चा का विषय नहीं थीं, लेकिन इन नीतियों के लागू होने के साथ ही, 1997 से देश में बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्या की खबरें आने लगीं। कर्ज के बोझ से दबे किसान आत्महत्या के लिए मजबूर होने लगे। 1997 से 2015 तक तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके थे। बड़े पैमाने पर हो रही किसानों की आत्महत्याओं और कृषि पर गहराते संकट के समाधान के लिए 2004 में स्वामीनाथन कमीशन का गठन किया गया, जिसने 2006 तक अपनी पांच रिपोर्टें सरकार को सौंपीं।

देश के किसानों को इस संकट से उबारने के लिए डॉ. स्वामीनाथन कमीशन ने 200 से ज्यादा सुझाव सरकार को दिए थे, जिनमें किसानों को उसकी फसल का उचित मूल्य (सभी लागत, जिसमें जमीन का किराया और परिवार की मेहनत का मूल्य भी शामिल है, पर 50 प्रतिशत अतिरिक्त) दिए जाने, सार्वजनिक खरीद और वितरण प्रणाली का विस्तार करने, किसानों को सस्ते ऋण और किसान राहत-कोष के गठन से लेकर आदिवासियों को चरागाहों की गारंटी करने तक के सुझाव थे।

तब से लेकर आज तक तमाम किसान संगठन कृषि-संकट के समाधान के लिए स्वामीनाथन कमीशन को लागू करने की मांग करते रहे हैं। दूसरी ओर, केंद्र में शासन करने वाली विभिन्न पार्टियों की सरकारें वोट लेते समय तो किसानों से स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का वादा करती हैं, लेकिन सत्ता में आते ही उसे अव्यवहारिक बताने लगती हैं। दूसरी ओर, देश के किसानों और खेती को तबाह करने वाले WTO समझौते, निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों पर अमल बदस्तूर जारी रहता है।

साम्राज्यवादी एजेंडा
अधिकांश साम्राज्यवादी देश ठंडी जलवायु वाले हैं। वहां गन्ना, कपास, कॉफी जैसी अन्य फसलें चाहकर भी नहीं उगाई जा सकतीं, जिनके उत्पादों की उनके उपभोक्ताओं में भारी मांग है। दूसरी ओर, वे गेहूं, चावल, और मक्का जैसे खाद्यान्नों के विशाल भंडारों का उत्पादन करते हैं, जो उनकी जरूरत से कहीं ज्यादा है। वे चाहते हैं कि भारत समेत अन्य तमाम विकासशील और गरीब देश उनसे खाद्यान्नों का आयात करें और अपनी खाद्यान्न की खेती को छोड़कर उनके और दुनिया भर के अमीर उपभोक्ताओं की जरूरतों की पूर्ति के लिए गन्ना, कपास, चाय और कॉफी जैसी नकदी फसलों का उत्पादन शुरू करें। इसे कृषि के विविधीकरण (डाइवर्सिफिकेशन) के नाम पर आगे बढ़ाया जा रहा है। इसके अलावा धान की खेती में होने वाली पानी की भारी खपत को लेकर पर्यावरण संबंधी चिंताएं भी जाहिर की जा रही हैं ताकि धान की खेती की जगह किसान दूसरी फसलों की ओर रुख करें।

भारत में छोटे किसानों की बहुतायत है, जो मुख्यतः अपनी खाने की जरूरत को पूरा करने के लिए अनाज उगाते हैं और उसका कुछ हिस्सा बेचकर अपनी बाकी जरूरतें पूरा करने की कोशिश करते हैं। मुनाफे के लालच में अगर वे टमाटर, कपास जैसी दूसरी नकदी फसलों की तरफ जाते भी हैं तो बाजार में उसकी खरीद और कीमत की कोई गारंटी नहीं होने के चलते जल्दी ही उन्हें भारी घाटा उठाना पड़ता है और वापस परंपरागत खेती की ओर लौटना पड़ता है। उदाहरण के लिए पंजाब में 1989 में पेप्सी कंपनी ने होशियारपुर के जहूरा में स्थित अपने टमाटर प्रोसेसिंग प्लांट के लिए टमाटर उगाने के लिए किसानों से कॉन्ट्रैक्ट किया।

यह प्लांट अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए पैक्ड पेस्ट और चटनी बनाता था। इसके अलावा मूंगफली और हरी मिर्च की खेती के लिए भी किसानों के साथ कॉन्ट्रैक्ट किए गए थे, जिनके तहत कंपनी बीज, पौध से लेकर पैदावार के तरीके तक किसानों को बताती थी, लेकिन कुछ दिनों के बाद ही जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतियोगिता बढ़ी, कंपनी ने फसल की गुणवत्ता के नाम पर किसानों को कम कीमत देनी शुरू कर दी, जिसके चलते किसानों को भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ा।

देश के दूसरे हिस्सों में भी ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जहां किसानों ने भारी कर्ज लेकर मुनाफे की उम्मीद में कपास बोई, लेकिन जब किसी वजह से, खराब बारिश या कीड़े लगने की वजह से उत्पादन अच्छा नहीं हुआ तो वे दाने-दाने को मोहताज हो गए। अगर हम अंग्रेजों की गुलामी के अपने इतिहास को याद करें तो कृषि के साम्राज्यवादी पुनर्गठन की इन कोशिशों के परिणामस्वरूप होने वाली भावी तबाही के मंजर की कल्पना कर सकते हैं।

अंग्रेजों ने चीन से अपने व्यापार घाटे को पूरा करने के लिए भारत के किसानों को नील, चाय और अफीम की खेती करने के लिए बाध्य किया, जिसका परिणाम 1859 के नील-विद्रोह के रूप में सामने आया। 1860 के अमरीकी गृह युद्ध के समय ब्रिटिश कारखानों की कपास की मांग की पूर्ति के लिए किसानों को कपास की खेती के लिए विवश किया गया। लेकिन जब युद्ध खत्म होने के बाद कपास की मांग घट गई, तो किसानों को बेसहारा छोड़ दिया गया, जिसके चलते 1870 के दशक में दक्षिण-पश्चिमी भारत में अकाल पड़ा और खाने के लिए दंगे हुए।

अमरीका और यूरोप के जूट उत्पादों की मांग की पूर्ति के लिए पूर्वी भारत में, खासकर 1906-13 के बीच जूट की खेती को बढ़ावा दिया गया, जिसकी मांग 1930 के दशक तक खत्म हो गई। परिणामस्वरूप 1943-44 का आए बंगाल के अकाल की वजह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि यही नीतियां थीं। 1893-94 से 1945-46 के बीच देश के अलग-अलग इलाके में जूट, नील (बंगाल), अफीम, तंबाकू (बिहार), कपास (महाराष्ट्र और कर्नाटक) और चाय (आसाम) जैसी नकदी फसलों का उत्पादन 85 प्रतिशत बढ़ा, जबकि खाद्यान्न उत्पादन में सात प्रतिशत की गिरावट आई।

1900 में जहां देश में खाद्यान्न उपलब्धता प्रतिव्यक्ति 200 किलोग्राम थी, वह घटकर 1933-38 में 159 किलो और 1946 में मात्र 137 किलो रह गई। इसका परिणाम विनाशकारी अकालों और भुखमरी के रूप में सामने आया, जहां देश के 2000 सालों के पिछले ज्ञात इतिहास में केवल 17 अकाल पड़े थे, वहीं ब्रिटिश काल में 34 अकाल पड़े, जिनमें करोड़ों लोग भूख से मारे गए, किसानों की आधी से ज्यादा आबादी नष्ट हो गई और बहुत से किसान और खेत मजदूरों को अंग्रेजों के उपनिवेशों में काफी, चाय के बागानों में काम करने के लिए फिजी, मारीशस वगैरह जाने के लिए तैयार होना पड़ा।

 जब देश की किसान-मजदूर आबादी इस तबाही का सामना कर रही थी, अंग्रेज अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए अनाज और अन्य नकदी फसलों का निर्यात बढ़ाने में लगे थे। 1859-60 और 1879-80 के बीच खाद्यान्नों का निर्यात लगभग तीन गुना, कपास का दो गुना, जूट का सात गुना, चाय का लगभग 28 गुना और अफीम का 1.6 गुना बढ़ा, जबकि इसी दौरान 1865 में उड़ीसा, बंगाल, बिहार और मद्रास प्रेसिडेंसी के इलाके में 1876-78 के बीच उत्तरी पूर्वी भारत और दक्षिण भारत में भीषण अकाल पड़े, जिनमें केवल मद्रास प्रेसिडेंसी में 50 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई। भले ही देश के शासक इस इतिहास को भूल गए हैं, किसानों की परंपरा में इन स्मृतियों के दंश आज भी ताजा हैं।

कृषि के साम्राज्यवादी पुनर्गठन के इस एजेंडे की सबसे बड़ी बाधा है फसल की खरीद और वितरण का सरकारी ढांचा और देश का छोटा किसान जो अपने खाने की जरूरतों के लिए खेती करता है, व्यापार के लिए नहीं। एफसीआई के गोदामों में मौजूद अनाज के भंडार उनकी आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। वे किसी भी कीमत पर इस व्यवस्था को नष्ट करना चाहते हैं।

2006 से ही जब कॉरपोरेट पूंजी को खुदरा कारोबार में निवेश की इजाजत दी गई, बड़ी कंपनियां घात लगाए 18 अरब डालर के भारतीय खुदरा बाजार की ओर गिद्ध दृष्टि से देख रही हैं। भारतीय खुदरा बाजार पूरी तरह बिखरा हुआ है और असंगठित क्षेत्र की एक बड़ी आबादी के लिए जीविका का साधन है, जिसको कोई काम नहीं सूझता मोहल्ले में किराने की छोटी दुकान लगाकर बैठ जाता है।

बड़ी कंपनियां चाहती हैं कि फसल उगाने, उसकी खरीद से लेकर थोक और खुदरा बिक्री तक की पूरी प्रक्रिया पर उनका नियंत्रण हो, लेकिन बड़ी संख्या में छोटे-किसानों और छोटे कारोबारियों की मौजूदगी और सरकारी खरीद और वितरण प्रणाली उनके इस मंसूब को पूरा नहीं होने दे रहीं। यही वजह है कि 2006 में बड़े जोर-शोर से खुदरा बाजार में उतरे टाटा, बिड़ला, अंबानी, रहेजा (RPGस मूह के मालिक) और फ्युचर ग्रुप जैसे बड़े कॉरपोरेट निवेशकों का जोश जल्दी ही ठंडा पड़ गया और खरीद और वितरण की इस व्यवस्था को नष्ट करना उनकी पहली प्राथमिकता बन गई। कारगिल, मोन्सेन्टो, अमेजन जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का इस मंसूबे को पूरा समर्थन है और वे खुद इस बंटरबांट में शामिल हैं।

 भारत के छोटे किसानों और छोटे व्यवसायियों की मेहनत से और सरकार के सहयोग और समर्थन से निर्मित कृषि उत्पादन, खरीद और बिक्री के मौजूदा तंत्र को एक बेहतर व्यवस्था द्वारा प्रतियोगिता में विस्थापित करने में अक्षम रहने के बाद इस ढांचे को तोड़ने के लिए तीन पूर्व शर्तें थीं- वर्तमान आपूर्ति श्रृंखला के समानांतर एक आपूर्ति श्रृंखला के निर्माण के लिए उससे कहीं ज्यादा बड़े पैमाने के निवेश की जरूरत थी, जितना इन कंपनियों ने सोचा था, क्योंकि मौजूदा व्यवस्था के रहते किसान उनके ऊपर भरोसा करने को तैयार नहीं थे।

इतने बड़े पैमाने पर निवेश के पहले वे यह सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि कृषि उत्पादों की खरीद पर इन मुट्ठी भर निगमों का पूर्ण नियंत्रण होगा और सरकार की ओर से मुनाफे का लौह आश्वासन होगा, क्योंकि मुनाफे के लिए खरीदे गए उत्पादों की बिक्री जरूरी होती है, इसलिए उन्हें खाद्य पदार्थों के वितरण पर भी पूर्ण नियंत्रण चाहिए था, जिसके बिना खरीद पर पूर्ण नियंत्रण बेमतलब होता।

मौजूदा तीनों कानून कॉरपोरेट समूहों की इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति करते हैं और देश के छोटे किसानों (उत्पादकों) और खुदरा विक्रेताओं (वितरकों) से निपटने के हथियार के तौर पर उन्हें दिए गए हैं। WTO की 2015-16 की कृषि गणना में दिए गए भारत सरकार के प्रतिवेदन के मुताबिक देश के 99.43 प्रतिशत किसान (10 एकड़ से कम जोत वाले) ‘कम आय और संसाधनों की कमी’ के शिकार हैं। तो फिर वे कौन से लोग हैं, जिनके पास बड़े बहुराष्ट्रीय निगमों का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त आय और संसाधन हैं?

सरकारी खरीद और भंडारण की व्यवस्था से पल्ला झाड़ने की सरकार लंबे समय से कोशिश कर रही है और सिर्फ किसान संगठनों के दबाव में खरीद करती है। नीति आयोग के एक सदस्य के अनुसार देश के 25 प्रतिशत के करीब कृषि उत्पादों की विदेशों में बिक्री की जरूरत है। कृषि लागत और मूल्य आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक सरकार को खरीद बंद कर देनी चाहिए, क्योंकि भंडारण और रख-रखाव के खर्चे बहुत बढ़ गए हैं (कुल खर्च के 40 प्रतिशत से ज्यादा)। सरकार ने अपने बजट पूर्व जारी आर्थिक सर्वेक्षण में इन खर्चों को कम करने के लिए गरीबों को राशन पर दिए जाने वाले गेहूं और चावल के दाम बढ़ाने की जरूरत पर जोर दिया है।

आवश्यक वस्तु अधिनियम कानून के संशोधन से संबंधित अपने एक नोट में उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की यह मंशा एकदम स्पष्ट हो जाती है- ‘अब भारत में खाद्यान्नों की प्रचुरता है। 1955-56 की तुलना में गेहूं का उत्पादन 10 गुना, चावल का चार गुना और दालों का ढाई गुना बढ़ चुका है और भारत कई कृषि उत्पादकों का निर्यातक है, इसलिए खाद्यान्नों की कमी के दौर के इस कानून को बदला जा रहा है, ताकि कृषि-बाजारों पर लगी पाबंदियां खत्म हो जाएं और उपरोक्त वस्तुओं के भंडारण और प्रसंस्करण के क्षेत्र में निजी निवेश आकर्षित हो सके।’ अमीर उपभोक्ताओं को अपील करने वाला यह तर्क भी दिया जा रहा है कि जब विदेशी बाजार से सस्ता अनाज खरीदा जा सकता है तो सरकार अनाज की खरीद और भंडारण तथा वितरण का इतना भारी भरकम खर्च क्यों उठाए?

इस तरह की दलीलें वही लोग दे सकते हैं जो देश और दुनिया के इतिहास से अनजान हैं और सिर्फ तात्कालिक फायदा देख रहे हैं। वे उस चूहे की तरह हैं जो एक रोटी के टुकड़े के लालच में चूहेदानी में घुसकर अपनी जान गंवा देता है। अमरीका और यूरोप में गेहूं और चावल का उत्पादन उनकी खपत से बहुत ज्यादा है। इस सस्ते अनाज को वे भारत जैसे बाजारों में ठेलना चाहते हैं और इसके लिए देश की सरकार के साथ मिलकर हर तरह के छल-प्रपंच का सहारा ले रहे हैं। WTO के भीतर कृषि उत्पादों की सब्सिडी को लेकर चल रही बहस इसका सटीक उदाहरण है।

2013 में बने भारतीय खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर उसके फौरन बाद हुई WTO की बाली कांफ्रेंस में अमरीका और यूरोपियन यूनियन की ओर से नाराजगी का इजहार किया गया। G-33 समूह के देशों (इस समय इस समूह के कुल 47 सदस्य हैं, जिनकी कृषि संकट और उसके समाधान में विशेष रुचि है) की मदद से भारत किसी तरह समझौते में एक ‘शांति की धारा’ जुड़वाने में कामयाब हो सका, जिसके तहत सार्वजनिक भंडारों और वितरण के मुद्दे के स्थायी समाधान का रास्ता निकालने के कोरे आश्वासन के बदले उससे ‘व्यापार प्रोत्साहन समझौते’ पर दस्तखत करवाए गए।

इसका मकसद था बड़ी व्यापार कंपनियों को भारत में व्यापार की छूट और प्रोत्साहन प्रदान करना- तथाकथित ईज आफ डूइंग बिजनेस, लेकिन जब दिसंबर 2017 की ब्यूनस आइरेस की मंत्री समूह की बैठक में भारतीय उद्योग और व्यापार मंत्री सुरेश प्रभु ने कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद और वितरण की व्यवस्था को तोड़ने के बारे में विचार करते समय एक बार ‘80 करोड़ भुखमरी और कुपोषण के शिकार लोगों के जिंदा रहने के लिए’ इसकी जरूरत पर गौर करने की अपील की तो किसी का दिल नहीं पसीजा, उल्टे भारत पर सब्सिडी में पर्याप्त कटौती न करने की तोहमत लगाई गई। (शेष भाग कल…)

  • ज्ञानेंद्र सिंह
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