(अमेरिकी अर्थशास्त्री रिचर्ड डी वुल्फ के यूट्यूब पर उपलब्ध वीडियो से दूसरी किस्त। यह वीडियो उन्होंने अपनी किताब `अंडरस्टेंडिंग मार्क्स` के संदर्भ में अपलोड किया है। इसमें उन्होंने मार्क्सवाद को सरल तरीक़े से समझाने की कोशिश की है। इसे हिन्दी में अमोल सरोज उपलब्ध करा रहे हैं।)
रिफॉर्म या रिवोल्यूशन ? इस सवाल का इतिहास बहुत पुराना है। यह सवाल वामपंथियों के बीच कार्ल मार्क्स से भी पहले से और कार्ल मार्क्स के वक्त में भी बहस का मुद्दा रहा है। उसके बाद भी यह सवाल वक़्त-वक़्त पर उभरता रहा है। मैं आपको सीधे समझाने की कोशिश करता हूँ। तो रिफॉर्म का मतलब है कि आप बेसिक सिस्टम को हाथ नहीं लगाते। या तो आपको लगता है कि सिस्टम इतना बुरा नहीं है कि इसे बदलने की ज़रूरत है या आपको लगता है कि सारे सिस्टम को एक साथ बदलना बस की बात नहीं है या उसके लिये अभी सही वक्त नहीं है तो एक-एक करके कदम उठाते हैं।
स्टेप बाय स्टेप। पहले ये चीज़ बदलते हैं, फिर दूसरी, फिर तीसरी। इससे कुछ समय के लिये ही सही, थोड़ा ही सही पर आराम मिल जाएगा। समय के साथ लोग ज़्यादा की मांग करेंगे और एक दिन पूरा सिस्टम बदल जाएगा । इसे ग्रेजुअलिज़्म भी कहते हैं यानी क्रमवार, धीरे-धीरे, वन बाई वन। ऐसे कौन से रिफॉर्म हैं जिनका प्रस्ताव समय-समय पर पूंजीवाद के आलोचकों के सामने रखा जाता है। दरअसल, बहुत सारे हैं, जैसे – मिनिमम वेज़ (न्यूनतम मज़दूरी)। आप पूंजीपतियों से झगड़ते हो, सरकार से संघर्ष करते हो कि इससे कम मज़दूरी मंज़ूर नहीं होगी। इसके लिए कानून पास करा लाते हो कि कोई भी पूंजीपति इससे कम मज़दूरी नहीं दे सकता है। अगर इससे कम देगा तो उसे जेल हो जाएगी, उसे बिजनेस बंद करना पड़ेगा ।
यह एक रिफॉर्म है। जैसे ब्याज दर की अधिकतम सीमा तय करना कि आप दो रुपये सैकड़ा से ज़्यादा ब्याज नहीं ले सकते, रिफॉर्म है। बेरोजगारी भत्ता भी रिफॉर्म है । सरकार हम से टैक्स लेती है, किसी कारण हमारी नौकरी चली जाती है तो सरकार पैसे देगी। बुढ़ापा भत्ता भी कि आपने ज़िंदगी भर पूंजीपतियों की सेवा की तो कम से कम बुढ़ापे में कुछ पैसे मिल जाने चाहिए, रिफॉर्म है। ये सब रिफॉर्म हैं। ये आर्थिक प्रणाली में कोई बदलाव नहीं करते। बेसिक सिस्टम में बदलाव नहीं होता है तो इसका मतलब क्या हुआ? यह बहुत दिलचस्प है। ये रिफॉर्म निजी पूंजी का खात्मा नहीं करते हैं।
हम इसे पेंचीदा बनाए बिना आसान शब्दों में समझते हैं क्योंकि कुछ पेंचीदगी वाली बात है ही नहीं।
किसी भी बिजनेस को चलाने वाले लोग बहुत थोड़े होते हैं। मतलब मालिक लोग, बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स । इनकी संख्या कितनी होती है? एक, दो, पांच, दस, पंद्रह जबकि उस उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी सैकड़ों से लेकर हज़ारों की संख्या में होते हैं। बिजनेस से सम्बंधित सभी निर्णय कौन लेता है? पांच-दस आदमी। उन निर्णयों का असर किन पर पड़ता है? सैकड़ों-हज़ारों कर्मचारियों पर। काम के घंटे 8 से बढ़ाकर दस कर दो, बोर्ड ने निर्णय ले लिया। उसका असर किस पर पड़ा?
काम करने वाले हज़ारों कर्मचारियों पर, मज़दूरों पर। यही तो राजशाही में होता था, यही जागीरदारी में होता था। इसमें लोकतंत्र कहाँ है? क्या यह डेमोक्रेसी है? नहीं, यह तो डेमोक्रेसी के उलट है। वाह! क्या डेमोक्रेसी है, हम देश के प्रधानमंत्री के लिये वोट दे सकते हैं पर अपना बॉस नहीं चुन सकते। हम देश का प्रधानमंत्री हटा सकते हैं पर बॉस नहीं हटा सकते। जिस जगह हमें हफ्ते के छह दिन (कई जगह तो सात दिन) आठ घंटे रोज़ (अब तो ये भी बढ़ गए हैं) बिताने पड़ते हैं, वहाँ कोई डेमोक्रेसी नहीं है। अगर आपका डेमोक्रेसी में विश्वास है तो वर्क प्लेस में डेमोक्रेसी क्यों नहीं है? दरअसल, सारी डेमोक्रेसी एक ढकोसला है। असलियत में आप इसमें विश्वास नहीं करते हो ।
क्रांति इस सब को बदल देगी
मेहनतकश मज़दूर जब अपना हिस्सा मांगेंगे, एक गाँव नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे। यह क्रांति है। उद्योग, बिजनेस पर सबका अधिकार होगा, वे डेमोक्रेटिक ढंग से चलेंगे। यह एक आधारभूत बदलाव है। वो बदलाव जिसकी मांग सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, मार्क्सिस्ट और विभिन्न धाराओं के अराजकतावादी लम्बे समय से कर रहे हैं।
तो आप रिफॉर्मिस्ट हो या रिवोल्यूशनरी? आप सुधारवादी हैं या क्रांतिकारी? यह सवाल लोगों को बुरी तरह से बाँट देता है। वो लोग जो बेचैन हैं, रिवोल्यूशन करना चाहते हैं उन्हे दिखता है कि सिस्ट्म ही गड़बड़ है, इसे बदले बिना बात नहीं बनेगी। वे छोटे-मोटे सुधारों से बहलना नहीं चाहते।
दूसरी तरफ़, वे लोग हैं जिनका दिमाग़ `चेंज द सिस्टम` की बात से भारी हो जाता है। सिस्टम बहुत पेंचीदा है, सिस्टम के बहुत भाग हैं। आपको समझ नहीं आता, कहाँ से शुरु करें? और हर कोई तो सिस्टम को एक जैसी नज़र से नहीं देखता है। एक विशेष सुधार ज्यादा केंद्रित होता है। उसे अच्छे से समझाया जा सकता है।
तो क्या किया जाए?
लेफ्ट के अधिकतर आंदोलन वक़्त-वक़्त पर दोनों ही रास्तों को अपनाते हैं। अगर परिस्थितियाँ अनुकूल हैं। आपके पास सिस्टम बदलने का ज़रा भी मौका है तो पूरी जी-जान से उस मौके को भुनाने के लिए लग जाओ। अगर परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं हैं तो? तो आप समुद्र किनारे घूमने थोड़े चले जाओगे। नहीं, आप उन मुद्दों पर काम करना शुरु कर देते हो जिनसे जनता के साथ जुड़ा जा सके, जनता को मार्क्सिज्म समझाया जा सके। सुधार के लिए संघर्ष क्रांति के लिए रास्ता बनाता है। अब एक सवाल यह आता है, क्या खाली सुधारों से काम नहीं चल सकता? नहीं चल सकता। आपने बहुत संघर्ष कर के न्यूनतम मजदूरी के अधिकार को प्राप्त कर लिया। आगे क्या?
आप अगर क्रांति करके सिस्टम को नहीं बदलते हो तो आप देखोगे कि पूंजीपति आपके उस अधिकार को ख़त्म करने के लिए जी-जान से लगे रहते हैं। पूंजीपति पहले आपको अधिकार न मिले, इसके लिए लड़ाई करते हैं और अगर वह यह लड़ाई हार जाते हैं और उन्हें कुछ सुधार करने पड़ते हैं तो भी वे लड़ना बंद नहीं करते हैं। वे उन सुधारों को ख़त्म करने की ताक में रहते हैं । (अभी, भारत का उदाहरण सामने है। देश कोरोना जैसी बीमारी से लड़ रहा है और पूंजीपति वर्ग मजदूरों के अधिकारों जो उन्हें इतनी कुर्बानियों के बाद हासिल हुए हैं, को ख़त्म करने में लगा हुआ है। पूंजीपतियों के लिए देश की जनता मायने नहीं रखती है। उसके शोषण पर ही तो वे अपने महल खड़े करते हैं।) वे ऐसा कैसे कर पाते हैं? क्योंकि आपने उनसे पॉवर नहीं छीनी।
मिल, फैक्ट्री अब भी उन्ही की है, पैसा भी उन्हीं के पास है। आप उनके पास इतनी शक्ति छोड़ दे रहे हो कि वे मौका मिलते ही फिर आपके अधिकार छीन लेंगे। सुधारों के लिये संघर्ष करने वालों को कुछ ही समय में समझ आ जाता है कि इन सुधारों को स्थायी रखने का एकमात्र रास्ता क्रांति ही है। मेहनत और कुर्बानियों से कुछ हासिल किया हो तो उसे खोते हुए देखना बहुत दु;खदायी होता है। 1930 में क्या हुआ? रिवोल्यूशन न करने की शर्त पर अमेरिका में न्यू डील (न्यूनतम मजदूरी, बेरोजगारी इंश्योरेंस, सोशल सिक्योरिटी, सरकारी नौकरियाँ) हुई और 50 साल बाद क्या हुआ? सारे अधिकार ख़त्म हो गए । सब वापस ले लिए गए या बेमानी कर दिए गए। आखिरी बार न्यूनतम मज़दूरी 1997 में बढ़ी थी। मान लीजिए, दो देशों में लड़ाई हुई, एक देश जीत गया और उसने हारने वाले देश के हथियार, टैंक नहीं छीने।
ऐसा नहीं होता है तो वह दो दिन बाद फिर लड़ेगा। आपको उसके हथियार लेने पड़ते हैं और आश्वस्त होना पड़ता है कि वह फिर से हथियार न ले पाए। 1930 के अमेरिका को याद करें। पूंजीवाद की कमर टूट चुकी थी । कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, सब गम्भीरता से रिवोल्यूशन की बातें कर रहे थे। उन सब को रिवोल्यूशन को लेकर यक़ीन था। कुछ साल पहले रूस में यह हो चुकी थी। सब उत्साह में थे। लेकिन, रूज़वेल्ट पूंजीवाद का सच्चा सिपाही था। वह आंदोलनकारियों के पास गया और बोला, रिवोल्यूशन को किनारे रख दो, मैं तुम्हे रिफॉर्म देता हूँ। तुम बस मांगों तुम्हें क्या चाहिये?
न्यूनतम मजदूरी? – दी। सोशल सिक्योरिटी? – दी। बेरोजगारी बीमा – दिया। सरकारी नौकरी – 15 मिलियन।। और बोलो। बस, शर्त एक ही है, रिवोल्यूशन को किनारे रख दो।
अमेरिका में उस वक्त ये सब बहुत बड़ी बात थी। थोड़े-बहुत क्रांतिकारियों को छोड़कर बाकी सब ख़ुशी-ख़ुशी रूजवेल्ट से सहमत हो गए। यह एक तरह बहुत बड़ी जीत थी। रूजवेल्ट अपने वचन का पक्का रहा, उसने सब दिया। सिर्फ रिफॉर्म मिले तो किसी ने रिवोल्यूशन के लिए नहीं सोचा। आज हम यहाँ हैं कि 1930 में जो मिला, उसका दो तिहाई हम से छीना जा चुका है। बाकी छीने जाने की तैयारी है।
एक मार्क्सिस्ट और बाकी आंदोलनकारियों में फ़र्क़ का पता इस बात से नहीं लगाया जा सकता कि आप रिफॉर्म के लिए लड़ रहे हो या नहीं? असली बात है कि आप रिफॉर्म के लिए कैसे लड़ रहे हो? क्या आप मानते हो कि रिफॉर्म ही आखिरी मंजिल है या रिफॉर्म को मंज़िल तक पहुंचने की सीढ़ी मानते हो और सोचते हो कि सही मायने में अधिकार तो सिस्टम को पूरा बदलकर ही मिल सकते हैं और तभी स्थायी रह सकते हैं। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप मार्क्सिस्ट हैं।
(अमोल सरोज एक चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं। लेकिन बौद्धिक जगत की गतिविधियों में भी सक्रिय रहते हैं। उनकी सोशल मीडिया पर प्रोग्रेसिव- जन पक्षधर नज़रिये से की जाने वाली उनकी टिप्पणियां मारक असर वाली होती हैं। व्यंग्य की उनकी एक किताब प्रकाशित हो चुकी है।)
लेख का पहला भाग-
https://www.janchowk.com/beech-bahas/if-any-one-want-better-world-then-marxism-is-must/