उत्तराखंड में फिर शुरू हो गया यूसीसी का शोर

देहरादून। लोकसभा चुनाव नजदीक आते जाने के साथ ही उत्तराखण्ड में एक बार फिर समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का शोर शुरू हो गया है। स्वयं मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने प्रदेशवासियों को विभिन्न माध्यमों से सूचित किया है कि यूसीसी का मसौदा तैयार करने के लिये गठित जस्टिस रंजना देसाई कमेटी प्रस्तावित कानून का ड्राफ्ट (मसौदा) 2 फरवरी को सरकार को पेश करने जा रही है और सरकार उस मसौदे पर विचार कर तत्काल 5 फरवरी से शुरू होने जा रहे विधानसभा के शीतकालीन सत्र में पास करा कर यह कानून लागू कर देगी।

चूंकि विधानसभा सत्र की अवधि मात्र 4 दिन रखी गयी है, इसलिये इसी दौरान ‘‘यूसीसी’’ का विधेयक पारित हो जायेगा। हालांकि मुख्यमंत्री और सत्ताधारी दल के लोग ही नहीं बल्कि मीडिया में भी तत्काल उत्तराखण्ड में समान नागरिक संहिता लागू होने की बात कही जा रही है। लेकिन क्या संविधान की समवर्ती सूची का एक विषय धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की अड़चन के बाद सचमुच इतनी जल्दी लागू हो जायेगा, यह विचारणीय विषय है।

संविधान के नीति निर्देशक तत्व संख्या 44 में सरकार सेे भारत क्षेत्र के अंदर समान नागरिक संहिता लागू करने की अपेक्षा की गयी है। लेकिन मामला बहुत टेढ़ा होने और अनुच्छेद 24 से 28 की रुकावटों और अनुसूची 5 और 6 की विशेष परिस्थितियों के कारण भारत की सरकारें अब तक इसे लागू नहीं कर सकीं।

मोदी सरकार धारा 370 को तक हटाने का बहुत ही मुश्किल काम आसानी से कर गयी लेकिन वह भी देश की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता तथा संवैधानिक प्रावधानों को देखते हुये ‘‘यूसीसी’’ को लेकर ठिठक गयी।

जहां तक उत्तराखण्ड में ‘‘यूसीसी’’ का सवाल है तो राज्य विधानसभा को कानून बनाने का पूरा अधिकार है मगर संविधान के दायरे से बाहर जाने का अधिकार नहीं। इसकी संवैधानिक स्थिति यह है कि यह विषय समवर्ती सूची का है और अनुच्छेद 254-अ कहता है कि समवर्ती सूची के विषयों पर संसद के साथ ही विधानसभा भी कानून बना तो सकती है लेकिन अगर दोनों के कानून टकराते हैं तो राज्य का कानून स्वतः अमान्य हो जायेगा।

चूंकि इस विषय पर पहले ही संसद द्वारा पारित हिन्दू मैरेज ऐक्ट और मुस्लिम पर्सनल लाॅ जैसे कानून मौजूद हैं जिन्हें बदलने का अधिकार राज्य विधानसभा को नहीं है। लेकिन इसी अनुच्छेद के 254-बी में कहा गया है कि अगर समवर्ती सूची में राज्य विधानसभा द्वारा पारित कानून को राष्ट्रपति अनुमति देते हैं तो वह कानून उस राज्य की सीमा के अंदर लागू हो सकता है। जाहिर है कि इसी धारा को ध्यान में रखते हुये उत्तराखण्ड में ‘‘यूसीसी’’ बनाने की पहल हो रही है।

लेकिन जिस तरह कहा जा रहा है कि उत्तराखण्ड में तत्काल ‘‘यूसीसी’’ लागू हो जायेगी, वैसा है नहीं!  अगर 5 फरवरी से शुरू हो रहे राज्य विधानसभा के सत्र में यह विधेयक आता है और पास होता है तो वह राज्यपाल के पास जायेगा और उसे अनुच्छेद 254- बी के अनुपालन में राष्ट्रपति को अनुमोदन के लिये भेजा जायेगा।

इस मामले में अगर लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखने के बजाय संवैधानिक हकीकत को ध्यान में रखा जायेगा तो गृह मंत्रालय कानूनी कसौटी पर परख कर ही राष्ट्रपति को राय देगा। गृह मंत्रालय भी नहीं चाहेगा कि भविष्य में यह कानून लटक जाय या असंवैधानिक घोषित हो जाये।

चूंकि केन्द्र में भी भाजपा की ही सरकार है और इस मामले में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को केन्द्र का आर्शिवाद मिला लगता है, इसलिये राष्ट्रपति से अनुमोदन में कोई कठिनायी की आशंका नहीं है। हो सकता है लोकसभा चुनाव तक कानून लागू हो जाय।

राष्ट्रपति से स्वीकृति मिलने के बाद उस कानून में नियत तिथि का उल्लेख होगा। कानून आप कभी भी बना लो मगर उसे लागू करने की तिथि तय होती है। जैसे महिला आरक्षण बिल तो पास हो गया मगर उसे लागू करने की तिथि तय नहीं हुयी। बहरहाल वह तिथि भी राष्ट्रपति के स्वीकृति के बाद ही तय होगी। लेकिन असली चुनौती आस्था, धर्म और धार्मिक परम्पराओं की संवैधानिक गारंटी की है।

अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक यही संवैधानिक गारंटियां हैं जिनके कारण मोदी-शाह भी यह कानून नहीं बना सके। जबकि स्वयं हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी चाहते थे कि यह कानून बने। इसलिये इस मामले में मुस्लिम, सिख, इसाई या पारसी में से कोई भी अदालत जा सकता है। यह साधारण अधिकारों का नहीं बल्कि मौलिक अधिकारों का मामला है।

इसाइयों का पर्सनल लाॅ 1869 और 1872 के हैं। मुस्लिम शरीयत कानून 1937 और पारसी पर्सनल लाॅ या जोरास्ट्रिन लाॅ 1865 के आसपास का है। सवाल सिखों के आनन्द विवाह अधिनियम 1909 का भी है जो उत्तराखण्ड में भी लागू है।

अगर माना कि सरकार शरीयत कानून की अनदेखी भी करती है तो आनन्द विवाह अधिनियम का क्या होगा। उत्तराखण्ड में सिखों की आबादी 2 प्रतिशत से अधिक और मुस्लिम आबादी 14 प्रतिशत से अधिक है। हाल ही में मुख्यमंत्री धामी ने बाजपुर के गुरुद्वारे के एक कार्यक्रम में उत्तराखण्ड में आनन्द विवाह अधिनियम लागू करने की घोषणा भी की थी।

उत्तराखण्ड में लगभग 3 प्रतिशत आबादी जनजातियों की है। जिनमें राजी और बुक्सा आदिम जाति घोषित हैं। इनको भी देश की लगभग 8.6 प्रतिशत जनजातीय आबादी की तरह रीति रिवाजों की संवैधानिक गारंटी मिली हुयी है। इसलिये उत्तराखण्ड की जनजातियों की ओर से भी अदालत का दरवाजा खटखटाया जा सकता है।

चूंकि संविधान निर्माताओं ने भारत की सरकार से समान नागरिक संहिता बनाने की अपेक्षा की थी। लेकिन अनुच्छेद 44 में साफ तौर पर ‘‘विदिन टेरिटरी ऑफ इंडिया’’ लिखा गया है न कि किसी प्रान्त के अंदर। इसलिये राजनीतिक लाभ मिले या न मिले मगर इसका स्थाई समाधान संविधान संशोधनों के जरिये संसद या भारत की मोदी सरकार ही निकाल सकती है और इस विषय पर 22वां विधि आयोग विचार कर भी रहा है जिसका कार्यकाल 31 अगस्त 2024 तक है।

उत्तराखण्ड में हिन्दू जनसंख्या लगभग 85 प्रतिशत है और उनके लिये पर्सनल लाॅ 1955 और 56 में ही बन गये थे। उत्तराखण्ड के हिन्दुओं को अपने वैयक्तिक कानूनों से कोई शिकायत नहीं है। उन्हें नये कानूनों में कोई रुचि भी नहीं है। उत्तराखण्ड के लोग सशक्त भूमि कानून सरकार से मांग रहे हैं ताकि उनकी पुरखों की जमीन बच सके। राज्य के लोग भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिये लोकायुक्त मांग रहे हैं जिसे सरकार टालती जा रही है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

जयसिंह रावत
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