यूपी शासन मॉडल को चुनौती देना भारतीय लोकतंत्र के लिए जरूरी

उत्तर प्रदेश की जनसंख्या ब्राजील के बराबर है और यहां लोकसभा की 80 सीटें हैं। लेकिन भारतीय राजनीति में इसके जबर्दस्त प्रभुत्व का कारण केवल आकार और जनसांख्यिकी का मामला नहीं है। उत्तर प्रदेश की राजनीति का राष्ट्रीय प्रभाव तब और बढ़ जाता है, जब वह प्रभुत्वशाली राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा होता है, जैसा कि यह वर्तमान में है। यह कोई संयोग मात्र नहीं है कि जब यहां सपा या बसपा जैसी स्थानीय पार्टियों का शासन था तो यूपी के वर्चस्व का डर खत्म हो गया था। लेकिन यह केवल पार्टियों का मामला नहीं है, बल्कि इससे परे, यूपी की राजनीति को चलाने वाली राजनीतिक सोच कैसी है, यह भी बहुत मायने रखता है। जनसांख्यिकीय प्रभुत्व तब और ज्यादा ताकत हासिल कर लेता है जब वह किसी विचारधारात्मक परियोजना में शामिल हो जाए और एक ऐसी शासन शैली अख्तियार कर ले जिसका मकसद राष्ट्रीय स्तर पर प्रभुत्व हासिल करना हो। 

हम अक्सर हल्के-फुल्के अंदाज में “हिंदी पट्टी” की राजनीति पर बात करते हैं। मोटे तौर पर इसका आशय, गैर “दक्षिण” होता है। लेकिन यह नामकरण ठीक नहीं है। यह स्पष्ट तथ्य है कि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में विकास की प्रकृति और राजनीति के सामाजिक आधारों में काफी भिन्नता है। विश्लेषण के लिहाज से इन्हें एक जैसा समझना उतना ही गलत होगा जितना कि कर्नाटक और तमिलनाडु को एक समझना। राष्ट्रीय राजनीति पर यूपी का विचारधारात्मक प्रभाव इतना ज्यादा व्यापक है, जिसने इस पट्टी के अन्य राज्यों से अलग, यूपी को एक खास तरह की चुनौती बना दिया है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के उभार के साथ, यह वैचारिक विन्यास एक भयानक रूपाकार ग्रहण कर रहा है जिसका राष्ट्रीय राजनीति पर बहुत प्रभाव है।

इससे पहले, इन अन्य राज्यों के रुख से भिन्न, यूपी का रुख हिंदुत्व परियोजना के सार्वजनिक प्रदर्शन के प्रति अपने ही अंदाज में आलोचनात्मक रहा है। भाजपा की केंद्रीय परियोजना पूरे भारत को साम्प्रदायिक बनाने की है। लेकिन हिंदू एकता के प्रदर्शन के रूप में, और एक ऐसी धुरी के रूप में, जिसके इर्द-गिर्द एक सांप्रदायिक भावना को संगठित किया जाना है, अयोध्या, काशी और मथुरा के प्रतीकात्मक महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। यह एक ऐसी परियोजना है जिसे वे अधूरा नहीं छोड़ेंगे। ऐसा कारूं का खजाना अन्य किसी राज्य में नहीं है। बिहार, अपनी अन्य सभी चुनौतियों के बावजूद, लगभग तीन दशकों तक, एक आधिपत्य वाले हिंदुत्व के आकर्षण से बचने में कामयाब रहा।

उत्तर प्रदेश में अब एक ऐसा मुख्यमंत्री है जो भाजपा के ढेरों साधारण मतदाताओं के लिए एक ख्वाब जैसा है। वह उस तरह का नेता है जो हिंसात्मक और आक्रामक कल्पनाओं के आकर्षण को सीधे तौर पर तृप्त करता है। उसके पास एक ऐसे शासन दर्शन के प्रति प्रतिबद्धता है जो कि अपने सार रूप में अब तक का सर्वाधिक सत्तावादी-सांप्रदायिक मॉडल है। यह एक ऐसी शासन शैली है जो अपने मूल में ही दंडात्मक है। यह सच्चे अर्थों में शासन पर नियंत्रण रखने के सभी सुरक्षा उपायों को ध्वस्त कर देती है और लोगों की निगरानी करने का एक ऐसा ढांचा तैयार करती है, जैसा इससे पहले कभी नहीं रहा।

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भी विचारधारात्मक महत्वाकांक्षाएं आदित्यनाथ जैसी ही हो सकती हैं। लेकिन उन्हें ज्यादा गुप्त और छल-कपट वाले तरीक़े अपनाने पड़े हैं। मोदी की खास नाटकबाजी कम से कम इस बात की मौन स्वीकृति तो है ही कि उन्हें अलग-अलग दर्शकों के सामने अलग-अलग तरीके के नाटक करने को मजबूर होना पड़ा। यह अनुमान लगाया जाना चाहिए कि क्या यह आदित्यनाथ की उपस्थिति की छाया ही है जिसने मोदी को मजबूर कर दिया है कि वे अब हल्का दिखावा भी, कभी-कभार भी, नहीं करते, कि वह भीड़ जुटाने में सक्षम हैं। जिस खेल में आदित्यनाथ ने दांव लगाया, वह खेल है, “न केवल क्रूर बनो बल्कि यह भी सुनिश्चित करो कि तुम क्रूर दिख भी रहे हो”। दरअसल आदित्यनाथ का उत्थान कई तरह के अतिवादों की एकजुटता था।

तीसरा, हिंदी-पट्टी के किसी भी राजनेता की गंभीर राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं, या यों कहें कि देश को बर्बाद करने की महत्वाकांक्षाएं, नहीं रही हैं। मायावती या नीतीश कुमार जैसे इस पट्टी के नेताओं के राष्ट्रीय महत्व को चाहे जितना भी गढ़ा गया हो, वे असल में ऐसे ही खिलाड़ी थे जो अपने मैदान पर खेलने में ही सहजता का अनुभव करते रहे। आदित्यनाथ की राष्ट्रीय विचारधारात्मक महत्वाकांक्षाएं हैं, यानि उन्हें हर राज्य की राजनीति में सिर घुसाने की जरूरत है। सबसे ताजा उदाहरण है पंजाब सरकार द्वारा मलेरकोटला को एक जिला बनाने का फैसला, जिसे उन्होंने सांप्रदायिक उत्तेजना फैलाने का एक और अवसर बना दिया।

लेकिन ठहरिए, आप कह सकते हैं कि, एक सत्तावादी सांप्रदायिक मुख्यमंत्री, जो कि आधिपत्य भी चाहता है, यह तो ठीक वही संयोग है जो हिंदी-पट्टी में भाजपा का विनाश भी करेगा। यूपी मॉडल की तो राष्ट्रीय स्तर पर विकास के सफल मॉडल के रूप में नकल करना भी मुश्किल है। आदित्यनाथ शायद राज्य के बाहर चुनाव प्रचार में एक बोझ ही रहे हैं। पंचायत चुनावों में हालिया हार भी उनके दुर्ग में दरार का संकेत देती है। अगर विपक्षी ताकतें यूपी में बेहतर गठबंधन बना लेती हैं, तो भाजपा को हराया जा सकता है। लेकिन यही वह कारण है जिससे यूपी एक विशेष समस्या खड़ी कर सकता है।

भारतीय लोकतंत्र के लिए अजीबोगरीब चुनौती यह है कि आदित्यनाथ ब्रांड की राजनीति सफल होने पर भी, और विफल होने पर भी, दोनों ही हालात में खतरा बन सकती है। हम भारतीय लोकतंत्र में एक ऐसे मुकाम पर पहुंच रहे हैं जब हमें सत्ता के शांतिपूर्ण बदलाव के बारे में आत्मसंतुष्ट नहीं रहना चाहिए। भाजपा पश्चिम बंगाल में एक जबरदस्त लोकतांत्रिक जनादेश को पलट देने का प्रयास कर रही है, पहले तो उसने राजनीतिक हिंसा कराने की कोशिश की, (जिसका कुछ दोष तृणमूल के मत्थे भी है), और अब उस हिंसा को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश कर रही है। लेकिन चार मंत्रियों को गिरफ्तार करने में सीबीआई के इस्तेमाल की कोशिश एक चेतावनी है, कि जैसे-जैसे भाजपा प्रतिष्ठा की लड़ाइयां हारना शुरू करेगी, शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के प्रति उसकी प्रतिबद्धता की परीक्षा शुरू हो जाएगी। प्रतिबद्धता के इस परीक्षण के लिए यूपी सबसे प्रमुख कसौटी होगा, इसलिए कि वहां पर दांव सबसे ज्यादा लगा है। मकसद मौजूद हैं। साधन भी मौजूद हैं। हिंसा भड़काने का ढांचा भी मौजूद है।

यूपी में सामाजिक हिंसा का एक लंबा इतिहास रहा है। लेकिन एक अभूतपूर्व निर्ममता को वैध ठहराने वाला नैतिक मनोविज्ञान अब नयी शासन शैली की बदौलत यूपी में नागरिक समाज में जगह बनाता जा रहा है।

शायद, इस महामारी से निपटने के दौरान ही यूपी सरकार अपनी ताकत को अतुलनीय बना लेगी। नदियों के किनारे सैकड़ों शवों के दृश्य, जो कि घोर अनादर के मामले हैं, अंततः हमारी अंतरात्मा को हिला कर रख देंगे। मुख्यतः बरखा दत्त जैसी पत्रकारों की असाधारण रिपोर्टिंग और दैनिक भाष्कर जैसे अखबारों की जमीनी रिपोर्टिंग और सांख्यिकीय चीरफाड़ के कामों की बदौलत ही ये चीजें हमारे संज्ञान में आयी हैं।

शायद, यूपी पर चुप्पी का कफन आखिरकार फट जाएगा। लेकिन हमें इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए, और ऐसा ही होगा, यह मान कर नहीं चलना चाहिए। एक तो इसलिए कि यूपी सरकार तथ्यों से और ज्यादा दृढ़तापूर्वक इनकार करती रहेगी, और शायद सच उजागर करने वालों की धर-पकड़ भी तेज कर देगी। लेकिन अभी तक भी, केंद्र सरकार की तरह ही, सरकारी प्रतिक्रिया सहानुभूति की नहीं रही है। बल्कि इस तथ्य को रेखांकित किया जाना चाहिए कि उन्हें लगता है कि वे जितना ही अहंकारपूर्ण क्रूरता दिखाते हैं, उतना ही ज्यादा जनता उनकी ओर आकर्षित होती है।

भारत की त्रासदी यह है कि अक्सर हम जीवित लोगों की पर्याप्त परवाह भले ही न करें, हम कम से कम मृतकों का शोक जरूर मनाते रहे हैं। गंगा से उम्मीद की जाती थी कि जो गरिमा हमें जीते जी नहीं मिली, वह थोड़ी गरिमा कम से कम मृत्यु के समय ही दे दें। लेकिन आप तय मानिए कि जब हम मरे हुओं की परवाह करना बंद कर देते हैं तो जिंदा लोगों को और ज्यादा अपमान झेलना पड़ेगा, खासकर अगर जिंदा लोग यह तय करते हैं कि अपने लोकतांत्रिक ढांचों का इस्तेमाल करके यूपी मॉडल को नष्ट कर देना है, इससे पहले कि यह मॉडल भारत को नष्ट कर दे।

(भानु प्रताप मेहता का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस, 21.05.2021, से साभार लिया गया है और इसका अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद शैलेश ने किया है।)

प्रताप भानु मेहता
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प्रताप भानु मेहता