यूपी: गोहत्या संबंधी कानून के बेजा इस्तेमाल पर हाईकोर्ट ने जताया कड़ा एतराज

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि उत्तर प्रदेश गोहत्या निरोधक कानून का दुरुपयोग हो रहा है। किसी भी मांस के बरामद होने पर उसकी फारेंसिक लैब में जांच कराए बगैर उसे गोमांस कह दिया जाता है और निर्दोष व्यक्ति को उस आरोप में जेल भेज दिया जाता है, जो शायद उसने किया नहीं है। हाई कोर्ट ने सोमवार को निर्दोष व्यक्तियों को फंसाने के लिए उत्तर प्रदेश गोहत्या निरोधक कानून, 1955 के प्रावधानों के लगातार दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त की है।

गोहत्या निरोधक कानून, 1955 की धारा 3, 5 और 8 के तहत गोहत्या और गोमांस की बिक्री के आरोपी रहमुद्दीन की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस सिद्धार्थ की एकल पीठ ने कहा कि कानून का निर्दोष व्यक्तियों के खिलाफ दुरुपयोग किया जा रहा है। जब भी कोई मांस बरामद किया जाता है, तो इसे सामान्य रूप से गाय के मांस (गोमांस) के रूप में दिखाया जाता है, बिना इसकी जांच या फॉरेंसिक प्रयोगशाला द्वारा विश्लेषण किए बगैर। अधिकांश मामलों में, मांस को विश्लेषण के लिए नहीं भेजा जाता है। व्यक्तियों को ऐसे अपराध के लिए जेल में रखा गया है जो शायद किए नहीं गए थे और जो कि सात साल तक की अधिकतम सजा होने के चलते प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट द्वारा ट्रायल किए जाते हैं।

एकल पीठ ने ये टिप्पणी तब की है जब पीठ को सूचित किया गया कि आरोपी-आवेदक एक महीने से अधिक समय से जेल में था। कथित तौर पर एफआईआर में उसके खिलाफ कोई आरोप नहीं हैं। यह भी आरोप लगाया गया कि आवेदक को मौके से गिरफ्तार नहीं किया गया था। इस प्रकार सामग्री को रिकॉर्ड पर विचार करते हुए एकल पीठ ने आवेदक को संबंधित अदालत की संतुष्टि के लिए दो समान राशि, एक व्यक्तिगत बांड प्रस्तुत करने और अन्य जमानत शर्तों के अधीन जमानत निर्धारित करने की अनुमति दी।

एकल पीठ ने पाया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के बड़े जनादेश के संदर्भ में और दाताराम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2018) 3 एससीसी 22 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार ये जमानत के लिए एक मामला है।

इससे पहले एकल पीठ ने राज्य में परित्यक्त मवेशियों और आवारा गायों के खतरे के संबंध में भी महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि जब भी गायों को बरामद दिखाया जाता है, कोई उचित जब्ती मेमो तैयार नहीं किया जाता है और किसी को नहीं पता होता है कि गाय पुनर्प्राप्ति के बाद कहां जाती हैं। गोशालाएं दूध न देने वाली गायों या बूढ़ी गायों को स्वीकार नहीं करती हैं और उन्हें सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है। उनके मालिक भी उन्हें खिला पाने में सक्षम नहीं हैं। पुलिस और स्थानीय लोगों द्वारा पकड़े जाने के डर से वे इन पशुओं को किसी दूसरे राज्य में ले नहीं जा सकते। ऐसे में दूध न देने वाले जानवरों को घूमने के लिए छुट्टा छोड़ दिया जाता है। ऐसे पशु किसानों की फसल बर्बाद कर रहे हैं। यही नहीं, ये छुट्टा जानवर सड़क और खेत दोनों जगह समाज को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे हैं। इन्हें गो सरंक्षण गृह या अपने मालिकों के घर रखने के लिए कोई रास्ता निकालने की आवश्यकता है। इसी तरह दूध देने के बाद गायों का मालिक, गायों को सड़कों पर घूमने के लिए, नाली, सीवर का पानी पीने के लिए और कचरा, पॉलिथिन आदि खाने के लिए छोड़ देता है। इसके अलावा, सड़क पर गायों और मवेशियों से लिए खतरा होता है और उनके कारण मरने वालों की संख्या में बढ़ोतरी की रिपोर्ट भी आती है।

एकल पीठ ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालक जो अपने पशुओं को खिलाने में असमर्थ हैं, उन्हें छोड़ देते हैं। उन्हें स्थानीय लोगों और पुलिस के डर से राज्य के बाहर नहीं ले जाया जा सकता है। अब कोई चारागाह नहीं है। इस प्रकार, ये जानवर यहां-वहां भटकते हैं और फसलें नष्ट करते हैं। एकल पीठ ने छुट्टा जानवरों की देखभाल की स्थिति पर कहा कि प्रदेश में गोवध अधिनियम को सही भावना के साथ लागू करने की आवश्यकता है।

एकल पीठ ने कहा कि पहले किसान ‘नील गाय’ (मृग की प्रजाति) से डरते थे, अब उन्हें अपनी फसलों को आवारा गायों से बचाना होगा। चाहे गाय सड़कों पर हों या खेतों पर, उनके परित्याग का समाज पर बड़े पैमाने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अगर उत्तर प्रदेश गोहत्या निरोधक कानून को उसकी भावना के तहत लागू किया जाना है तो उन्हें गाय आश्रय में या मालिकों के साथ रखने के लिए कार्रवाई की जानी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

जेपी सिंह
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