उत्तराखंड विधानसभा चुनाव: बेरोज़गारी और पलायन के शिकार युवा

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के द्वारा जारी बेरोजगारी के आंकड़ों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि यूपी, पंजाब, गोवा और उत्तराखंड में दिसंबर 2021 के दौरान नौकरी पेशा लोगों की कुल संख्या पांच साल पूर्व से भी कम थी। इन आंकड़ों के सामने आने के साथ-साथ बिहार और उत्तर प्रदेश में रेलवे अभ्यर्थियों के आंदोलन के बाद से उत्तराखंड में भी विधानसभा चुनावों से पहले बेरोज़गारी एक बड़ा मुद्दा बनता दिख रहा है। कांग्रेस पार्टी  बेरोजगारी को एक बड़ा मुद्दा बनाना चाह रही है। पार्टी को उम्मीद है कि इस बार के विधानसभा चुनावों में  इस मुद्दे पर उसे मतदाताओं का समर्थन मिलेगा।

कोरोना की वज़ह से और अधिक बढ़ी बेरोज़गारी

कोरोना के दौरान लौट कर आने वाले प्रवासियों की वज़ह से उत्तराखंड में बेरोज़गारी की समस्या और भी विकराल हो गई है। ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग, उत्तराखंड पौड़ी द्वारा जून 2021 में दिए गए आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में पहली लहर के दौरान सितंबर 2020 तक 3,57,536 प्रवासी वापस लौटे थे, जिसमें से सितंबर अंत तक 1,04,849 प्रवासी एक बार फिर से वापस मैदानी क्षेत्रों में लौट गए। जो प्रवासी प्रदेश में बचे रहे गए, अगर उनके रोज़गार पर नज़र दौड़ाएं तो उनमें से 38 प्रतिशत की आजीविका का मुख्य स्रोत मनरेगा था। जिसके लिए आवंटित धनराशि में इस बार के बजट में केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने करीब 25 प्रतिशत की कटौती कर दी है।

कृषि, बागबानी और पशुपालन को आजीविका के तौर पर 33 प्रतिशत लोगों ने अपनाया और स्वरोज़गार अपनाने वाले प्रवासियों का प्रतिशत 12 था। आंकड़ों से स्पष्ट है कि उत्तराखंड में प्रच्छन्न बेरोजगारी या छुपी हुई बेरोज़गारी बडे़ पैमाने पर मौजूद है।

जो रोज़गार में थे, उनकी हाल-खबर

संगीत के शिक्षक देहरादून निवासी राहुल थापा कोरोना काल से पहले एक नामी स्कूल में संगीत सिखाते थे, लेकिन कोरोना की वज़ह से स्कूल बंद होने पर वे ज़ोमेटो में डिलीवरी का काम करने लगे। कहने के लिए और खाली बैठकर अवसाद से बचने के लिए रोज़गार के नाम पर राहुल के पास नौकरी तो है, पर महंगाई के इस दौर में उनके पास कमाई के नाम पर महीने में सिर्फ दस हज़ार रुपए ही होते हैं, जो एक बेहतर भविष्य के लिए पूरी तरह से नाकाफ़ी हैं। यही हाल मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के विधानसभा क्षेत्र खटीमा में रहने वाले विजय राणा के भी हैं, जो अमेज़न में डिलीवरी का काम करते हैं।

खटीमा के ही रहने वाले भास्कर चौसाली लॉकडाउन से पहले दिल्ली के चाणक्यपुरी में एक होटल में कार्यरत थे। अब उन्होंने अपने गांव में ही एक फ़ास्ट फूड रेस्टोरेंट खोला है। भास्कर कहते हैं कि “गांव में इतना काम है कि मुझे अपने साथ दो-तीन सहयोगियों की आवश्यकता है लेकिन गांव में मनमाफ़िक काम भी नही किया जा सकता, क्योंकि लोग खुद के काम से ज्यादा दूसरों के कामों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। शहर की तेज़ जिंदगी में तो पड़ोसियों के नाम तक नहीं पता होते।”

प्रदेशवासियों के रोज़गार की उम्मीद पंतनगर सिडकुल के हालात

प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की वज़ह से पंतनगर में सिडकुल की स्थापना हुई थी। शुरू में दी गई सब्सिडी की वज़ह से कई कम्पनियों ने सिडकुल में अपना डेरा डाल दिया था, पर अब कोरोना और सब्सिडी की मियाद खत्म होने के बाद से बहुत सी कम्पनियां या तो वापस चली गई हैं या उन्होंने कर्मचारियों की छंटनी शुरू कर दी है। उदाहरण के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनी एचपी इंडिया द्वारा अपना प्लांट अचानक बंद कर दिया गया ।

यूट्यूब चैनल ‘अनसुनी आवाज़’ चलाने वाले रुद्रपुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार रूपेश कुमार ने जनचौक को बताया “सिडकुल के शुरुआती दौर में लगभग 450 कम्पनी पंजीकृत थीं, पर लगभग 30 प्रतिशत प्लॉट अभी भी खाली पड़े हैं। अभी मात्र 150 प्लांट में ही काम चल रहा है, उनमें भी अधिकांश बड़ी कम्पनियों की वेंडर हैं। सिडकुल से उत्तराखंड के युवाओं को रोज़गार तो मिला नहीं, ऊपर से पंतनगर यूनिवर्सिटी की हज़ारों एकड़ की बेहद उपजाऊ खेती वाली भूमि भी बेकार हो गई।”

अल्मोड़ा निवासी ललित नैनवाल कहते हैं कि “मेरा वोट उस पार्टी को जाएगा, जो उत्तराखंड से पलायन को रोक सके और या इसे कम कर सके। जो युवा पीढ़ी के दर्द को पहचान सके। उत्तराखंड में रोजगार के लिये सिडकुल सहित कई स्थानों पर कम्पनियां हैं, इसके बावजूद पलायन क्यों कम नही हो पा रहा है। अपने राज्य में रोजगार होने के बावजूद भी उत्तराखंड का युवा वर्ग यहां काम नही करना चाहता है, क्योंकि यहां कम्पनियों का मानदेय 8 से 10 हजार रुपये है। इतनी कम सैलरी में क्या हो पाता है। आज भी उत्तराखंड के युवा वर्ग को 18-20 हज़ार कमाने के लिये दूसरे राज्यों के लिए पलायन करना पड़ता है, ऐसा क्यों! क्या उत्तराखंड की सरकारें, यहां की कम्पनियों द्वारा दिया जाने वाला मानदेय तय नही कर सकती हैं? अगर उत्तराखंड के सिडकुलों में 18 से 20 हजार रुपये मानदेय सरकार तय कर देती है तो उत्तराखण्ड से पलायन खुद-ब-खुद कम होना शुरू हो जाएगा, आने वाली सरकार इस बारे में सोचे।”

क्या है समाधान?

उत्तराखंड में बेरोज़गारी के सवाल पर फ़िल्म और पत्रकारिता जगत से जुड़े पौड़ी निवासी गौरव नौडियाल कहते हैं कि “सरकार ने रोज़गार की जगह पुल बनाने और सड़कें चमकाने को प्राथमिकता में रखा। प्रदेश के सारे बज़ट को कंस्ट्रक्शन में डाल दिया गया। इको-टूरिज्म से प्रदेश में नौकरियां लाई जा सकती थी पर उसके लिए योजनाएं बनानी होंगी, मूलभूत ढांचे तैयार करने होंगे, वर्कशॉप के ज़रिए स्किल्ड लोग तैयार करने होंगे।”

उत्तराखंड के केबर्स गांव में कोरोना के बाद बिगड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था के चलते गांव के 18 से 25 साल तक के करीब 55 लड़के घर पर हैं। इनमें से कई लॉकडाउन से पहले शहरों में काम करते थे, लेकिन अब वे बेरोजगार हैं। ग्राम प्रधान कैलाश सिंह रावत बताते हैं कि “गांव में रोज़गार पैदा करने के कुछ उपाय हैं, जो रोज़गार को लेकर शोर मचाने वालों को ध्यान में रखना चाहिए। वे कहते हैं कि “गांव के खाली पड़े हुए घरों को रहने लायक बनाकर ‘विलेज टूरिज्म’ की दिशा में बढ़ा जा सकता है। साइटसीइंग, बर्ड वॉचिंग और फॉरेस्ट वॉक के साथ ही परफॉर्मिंग आर्ट को आय के साधन के रूप में विकसित कर सकते हैं। इकॉनमी का सस्टेनेबल मॉडल तैयार करना होगा, जिससे गांव में ही रोजगार सृजित हो सके।”

(हिमांशु जोशी लेखक और समीक्षक हैं और आजकल उत्तराखंड में रहते हैं।)

हिमांशु जोशी
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