‘अमृतकाल’ में विकास के लिए तरसता उत्तराखंड का पटरानी गांव

रामनगर। देश के शहरों में आजादी के 75वें साल का जश्न “आजादी का अमृतकाल महोत्सव” के नाम से भले ही मनाया जा रहा हो लेकिन जिन गांवों में भारत की आत्मा बसती है वह आज भी विकास की मुख्यधारा से बहुत दूर हैं। उत्तराखंड राज्य के सुदूर पर्वतीय गांवों की बदहाली की तस्वीर और उन ग्रामीणों के संघर्ष की गाथा आए दिन नुमाया होती रहती है। दुर्गम भौगौलिक परिस्थितियों के बहाने इन गांवों की समस्याओं से नजरे बचाने की कोशिश होती है। लेकिन राज्य के सुगम माने जाने वाले भावर क्षेत्र के भी कई गांव ऐसे हैं जो राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी की वजह से उपेक्षा के शिकार हैं।

नैनीताल जिले का ऐसा ही एक दलित बहुल्य गांव पटरानी भी है। तराई पश्चिमी वन प्रभाग के आमपोखरा रेंज में घने जंगल के बीच बसे इस गांव की हजारों की आबादी आज भी मुश्किलों का सामना कर रही है। गांव तक पहुंचने के लिए सड़क तो दूर की बात है, शुद्ध पेयजल की भी कोई व्यवस्था नहीं है। पानी जनित रोगों से अधिकांश आबादी ग्रस्त है। वन भूमि पर बसे इस पटरानी गांव में 1900 मतदाता और कुल आबादी करीब 4200 है।

नैनीताल जिले की रामनगर तहसील मुख्यालय से 22 किमी. दूर चारो ओर जंगल से घिरे इस गांव तक पहुंचने के लिए एक अदद पक्की सड़क तक नहीं है। जिस वजह से बरसात के दिनों में इस गांव का संपर्क अन्य इलाकों से कट जाता है। प्राथमिक और हाईस्कूल तक की शिक्षा गांव में उपलब्ध है। लेकिन इण्टर मीडियट की कक्षाओं के लिए विद्यार्थियों को तीन किमी. दूर घने जंगल को पार करके राजकीय इण्टर कॉलेज ढेला में जाना पड़ता है।

नैनीताल जिले का पटरानी गांव

बरसात में वन भूमि के कच्चे रास्ते खराब होने के कारण विद्यार्थियों को तमाम मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। इसकी सबसे ज्यादा गाज लड़कियों पर गिरती है। जो इन कठिन परिस्थितियों में अपनी आगे की शिक्षा जारी नहीं रख पाती। गांव की सीमा तराई पश्चिमी वन प्रभाग के जंगल के साथ ही कॉर्बेट नेशनल पार्क से सटी होने के कारण खूंखार वन्यजीवों का आतंक भी स्थाई समस्या है। पिछले दिनों तो इलाके में बाघिन और जंगली हाथियों की ज्यादा आवाजाही की वजह से स्कूल आने जाने वाले बच्चों को कई महीने तक वन विभाग के सशस्त्र सुरक्षाकर्मियों ने अपनी निगरानी में सरकारी वाहन से विद्यालय पहुंचाया था।

बात करें स्वास्थ्य की, तो स्वास्थ्य की कोई सुविधा गांव में उपलब्ध नहीं है। इसके लिए ग्रामीणों की तमाम उम्मीद रामनगर के उस सरकारी अस्पताल पर टिकी रहती है, जिसे सरकार ने पीपीपी मोड में देकर रैफरल सेंटर बना दिया है। किसी तरह ग्रामीण अस्पताल पहुंच भी जाएं तो उन्हें इलाज के लिए यहां से दूसरी जगह ही रैफर किया जाता है। पीने के साफ पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। पेयजल के लिए हैंडपंप ही एक मात्र सहारा है। दूषित पानी के कारण ग्रामीण तमाम बीमारियों से घिरे रहते हैं।

राज्य में वन भूमि पर बसे ऐसे वन गांवों में पंचायत चुनाव नहीं होते। जिस कारण केंद्र और राज्य सरकार की तमाम योजनाओं का लाभ भी इनको नहीं मिल पाता। इन गांवों के लोग केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव में ही मतदान कर सकते हैं। अपनी बात सरकार या अधिकारियों तक पहुंचाने के लिए ग्रामीण अपने बीच से सर्वसहमति से एक व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं। स्थानीय भाषा में यह व्यक्ति “मनोनित ग्राम प्रधान” कहलाता है।

पटरानी गांव के खेत

पटरानी कारगिल के मनोनीत ग्राम प्रधान हरीश पंचवाल के मुताबिक गांधीनगर से शिवनाथपुर, देवीनाला, कुम्भगडार, गुर्जर बस्ती, कारगिल, पटरानी से होकर ढेला पहुंचने वाले कच्चे मार्ग को पक्का मोटर मार्ग बनाने के लिए मुख्यमंत्री द्वारा घोषणा भी जा चुकी है। साल 2015 में इसका प्रस्ताव भी बन चुका है। 11 लाख रुपये की टोकन मनी भी जारी हो चुकी है। लेकिन सब कुछ आठ साल बीत जाने के बाद भी फाइलों में ही कैद है। धरातल पर कोई काम नहीं हुआ है।

पूर्व सैनिक दीवान राम का कहना है कि मोटर मार्ग बन जाता तो ग्रामीणों की मुश्किलों में कुछ कमी आ जाती। ग्रामीण पुष्कर राम व बलवंत राम के मुताबिक बरसात के दिनों में गांव में किसी की तबियत खराब होने पर ग्रामीणों को खासी दिक्कत होती है। सड़क बन जाए तो मरीज कम से कम अस्पताल तक तो जा सके।

ग्रामीणों के मुताबिक उनका गांव जंगल से घिरा होने के कारण वन्यजीवों द्वारा फसलों को नष्ट किए जाने से भी त्रस्त है। आए दिन हाथी और सूअर उनकी खेत में खड़ी फसल को बरबाद करते रहते हैं। वन विभाग की ओर से नाममात्र के मुआवजे का प्रावधान होने के कारण ग्रामीण अपनी खेत में की गई मेहनत नष्ट होते देखने को अभिशप्त हैं। राजस्व गांव का दर्जा न होने के कारण विकास खंड स्तर से भी कोई मदद मुहैया नहीं हो पाती। ऐसे में युवाओं का गांव से पलायन भी बढ़ रहा है।

(उत्तराखंड से सलीम मलिक की रिपोर्ट)

सलीम मलिक
Published by
सलीम मलिक