राहुल-ओबामा प्रकरण: हम सब अपने-अपने परसेप्शन खुद गढ़ते हैं

हमारी समस्या एक यह भी है कि, हम यह चाहते हैं कि किसी व्यक्ति, विचार या घटना के बारे में जो मेरा परसेप्शन हो, वही हर व्यक्ति का भी हो। हम यह भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति किसी भी घटना, व्यक्ति और विचार के बारे में अलग-अलग तरह से सोचता है और उन सब के बारे में अपना परसेप्शन या धारणा खुद ही बनाता है।

आज बराक ओबामा की आत्मकथा ‘ए प्रोमिस्ड लैंड’ का उल्लेख हो रहा है जिसमें उन्होंने राहुल गांधी को एक नर्वस छात्र कहा है। राहुल के बारे में यह  उनकी अपनी धारणा है और किसी के बारे में भी वह अपनी धारणा बनाने के लिये उतने ही स्वतंत्र हैं, जितने कि हम सब। उनकी किताब अभी-अभी आयी है। किताब में क्या लिखा है यह पता नहीं, पर जब किताब की समीक्षा छपे और उसे पढ़ा जाए तभी इस सब पर विस्तार से टिप्पणी की जा सकती है। ओबामा किसी के बारे में क्या सोचते हैं या हम आप उनके बारे में क्या सोचते हैं यह सब बिल्कुल निजी मूल्यांकन के विषय है।

राहुल नर्वस छात्र रहे हैं या नहीं यह तो उनके सहपाठी ही बता पाएंगे या उन्हें बहुत नजदीक से जानने वाले लोग। राहुल गांधी के बारे में मेरी धारणा यह है कि राहुल  एक संवेदनशील और मुखर व्यक्ति हैं। मैं एसपी रायबरेली रहा हूँ और मेरे कार्यकाल के दौरान वे अमेठी से सांसद थे, जिसमें दो विधानसभा क्षेत्र जनपद रायबरेली के थे। तब जिला अमेठी नहीं बना था। उस दौरान मेरी उनसे चार बार मुलाक़ात और बातचीत हुयी है। मुझे वे एक विनम्र और समझदार व्यक्ति लगे। यह मेरी धारणा है। अब भी देश की विभिन्न समस्याओं को लेकर उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस और विभिन्न विद्वानों तथा एक्सपर्ट्स के साथ जो उनकी बातचीत के वीडियो दिखते हैं उनकी समस्याओं के प्रति सजगता और एक जिज्ञासु भाव साफ दिखाई देता है।

राहुल ने अपने पिता और दादी की जघन्य हत्याएं देखी हैं। जिस उम्र और जिस जमाने में वे पढ़ने के लिये स्कूल कॉलेज में गए होंगे उस जमाने में उनके लिये सुरक्षा एक बड़ी समस्या थी। हो सकता है इन सब परिस्थितियों का उन पर मनोवैज्ञानिक असर पड़ा हो, जो बिल्कुल भी अस्वाभाविक नहीं है और असुरक्षा के भाव से वे नर्वस रहे हों। ओबामा बेहतर जानते होंगे तभी उन्होंने यह धारणा बनाई होगी। लेकिन ओबामा की किताब में राहुल का उल्लेख, एक महत्वपूर्ण संकेत है कि वे चाहे जैसे हों पर उन्हें ओबामा ने नज़रअंदाज़ नहीं किया और राहुल के बारे में अपनी धारणा बताई।

जीवनकाल में व्यक्ति के स्वभाव और आदतों में परिवर्तन होता रहता है और जो वह कल रहता है आज नहीं होता और जो आज है, हो सकता है कल न हो। गांधी जी एक सामान्य छात्र थे। शर्मीले और अंतर्मुखी थे, पर किसे पता था कि यह अंतर्मुखी और विधिपालक व्यक्ति जब ट्रेन से स्टेशन पर वैध टिकट के बावजूद फेंक दिया जाएगा तो उसकी दृढ़ इच्छाशक्ति दुनिया के सबसे बड़े और मजबूत साम्राज्य को हिला कर रख देगी? पर हुआ ऐसा ही। फिर तो यह शर्मीला और विधिपालक छात्र जब सार्वजनिक जीवन में आया तो अपनी सदी का महानतम व्यक्तित्व बन बैठा।

सुभाष बाबू और अरविंद घोष अपने समय के अत्यंत प्रतिभाशाली छात्र थे। दोनों का ही आईसीएस में चयन हो गया था। सुभाष ने नौकरी छोड़ दी और स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। और जब उनमें बदलाव आया तो, वे एक सैनिक की तरह रणक्षेत्र में भी आज़ाद हिंद फौज को लेकर उतर गए। आज वे देश के सबसे प्रिय स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों में से एक हैं। 

अरविंदो घोष, घुड़सवारी की परीक्षा में असफल हो जाने के कारण, चयनित होने पर भी आईसीएस की सेवा में नहीं लिए जा सके। अरविंदो भारत आते हैं और महाराजा बड़ौदा के एक स्कूल में प्रिंसिपल हो जाते हैं। फिर वे बंगाल के प्रमुख क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन दल में शामिल हो जाते हैं। उनके बड़े भाई बारीन्द्र घोष पहले से ही उस दल में शामिल थे। वक़्त फिर पलटी खाता है और वे सब कुछ छोड़ कर, तत्कालीन फ्रेंच कॉलोनी पांडिचेरी में शरण ले लेते हैं और एक आध्यात्मिक महापुरुष बन जाते हैं। उन्हें बचपन से ही इंग्लैंड इसलिए उनके माता-पिता ने भेज दिया था कि वे अंग्रेजी में महारत हासिल कर पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति में ही पलें बढ़ें और भारतीय संस्कृति से दूर रहें। पर ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ ।

यह भी एक विडंबना है कि उन्हें भारतीय संस्कृति से जितनी ही दूर रखने की कोशिश की गयी, वे उतनी ही भारतीय वांग्मय में रम गए। उन्होंने वेद, गीता, साहित्य पर किताबें लिखी और आधुनिक दर्शन में एक नयी अवधारणा जो मानसिक विकास की बात करता है की स्थापना की। सावित्री जैसा दुरूह महाकाव्य अंग्रेजी में लिखा और उनकी लाइव डिवाइन (हिंदी में दिव्य जीवन) तो एक अलग तरह की पुस्तक है ही।

बीसवीं सदी के ही भारतीय इतिहास के दो उदाहरण और देना चाहूंगा, जब किसी व्यक्ति की धारणा में ध्रुवीय परिवर्तन हुआ है। आज़ादी के संघर्ष के समय दो बड़े नाम एमए जिन्ना जो पाकिस्तान के क़ायदे आज़म कहे जाते हैं, और मौलाना अबुल कलाम आजाद, जिन्हें इतिहास में मौलाना साहब के नाम से जाता है। जिन्ना साहब आधुनिक सोच और सेक्युलर विचारधारा के थे तथा एक अत्यंत प्रतिभाशाली वकील थे। जबकि  मौलाना आज़ाद एक धार्मिक और प्रैक्टिसिंग मुस्लिम थे और जीवन  भर सेक्युलर भारत की सोच के साथ अडिग रहे।

लेकिन वक़्त बदला और सेक्युलर जिन्ना ने देश मे कम्युनल राजनीति की शुरुआत की और  धर्म ही राष्ट्र है के आधार पर द्विराष्ट्रवाद की नींव रखी और देश बंट कर एक नए देश का उदय हुआ। जिन्ना के हमसफ़र सावरकर हुए जो हिंदू राष्ट्र के पक्षधर थे। कट्टरता, कट्टरता का ही पोषण करती है। हालांकि जिन्ना का 11 अगस्त, 1947 का भाषण उनके सेक्युलर स्वरूप की एक बानगी ज़रूर है, पर तब तक सांप्रदायिकता के दैत्य ने देश के सामाजिक ताने बाने का बहुत नुकसान कर दिया था और अब इतिहास की उस भयंकर भूल का कोई उपचार नहीं था।

पर यह घातक सिद्धांत 25 साल भी नहीं चल पाया और पाकिस्तान पुनः टूट कर दो देशों में बंट गया, तथा बांग्लादेश का जन्म हुआ। मौलाना आजाद अंतिम समय तक द्विराष्ट्रवाद और भारत विभाजन के विरोधी रहे। उनका धर्म उनकी राजनीतिक सोच पर हावी नहीं हो पाया। मौलाना आजाद अपने सहधर्मी कट्टरपंथी ताकतों, जो मुस्लिम लीग के पक्षधर थीं, के निशाने पर तो रहे ही, हिंदू कट्टरपंथी भी उन्हें बहुत अधिक पसंद नहीं करते थे। तो धारणाएं ऐसे ही बदलती हैं और जब बदलती हैं तो इतिहास भी उसी के अनुसार नयी इबारत लिखता है।

यह उदाहरण मैंने इसलिए दिए हैं कि हम सबको अपने-अपने दृष्टिकोण से देखते हैं और अपने-अपने परसेप्शन गढ़ते हैं। ओबामा का यह आकलन उनका है, हो सकता है औरों का भी यही हो या यह भी हो सकता है कि यह न भी हो। हमें खुद अपनी धारणा बनानी चाहिए, न कि यह उम्मीद करनी चाहिए कि हर व्यक्ति मेरे ही और मेरी ही नज़र से किसी को परखे और उसके बारे में अपनी धारणा बनाये। यह देखना दिलचस्प होगा कि उन्होंने अपने कार्यकाल में भारत पर और अपने समकालीन नेताओ के बारे में क्या लिखा है।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

विजय शंकर सिंह
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