सिंघु बॉर्डर पर जो मैंने देखा

दोस्तों,

कल 26 जनवरी को लाल किले और आईटीओ पर घटित घटना चर्चे में है। और उसको लेकर हर कोई बात कर रहा है। लेकिन यह सब कुछ अचानक नहीं हो गया। बल्कि इसकी एक पृष्ठभूमि है जिसका मैं खुद एक गवाह हूं। ऐसे में मुझे लगा कि आप को उसकी जानकारी दी जानी चाहिए। परसों दिन भर मैं और मेरे जनचौक के सहयोगी आजाद शेखर सिंघु बॉर्डर पर ही थे। हम लोग दिन भर सजे ट्रैक्टरों की झांकियां और अगले दिन की ट्रैक्टर परेड की तैयारियों को कवर करने में लग रहे। वहां से हमने कुछ लाइव भी किए। शाम को हम लोगों ने सोचा कि घर जाने और फिर 26 की सुबह लौटने में परेशानी हो सकती है लिहाजा हमने वहीं पर रुकने का फैसला किया। और इस लिहाज से खालसा एड में हमें रुकने की जगह मिल गयी। लेकिन कहते हैं कि कोई घटना होने से पहले अपने आने की आहट दे देती है। उस दिन रात में अचानक एक खूबसूरत और नौजवान शख्स मंच पर आया और कहना शुरू कर दिया कि उसके लोग आज रात में ही बैरिकेड्स तोड़ेंगे और लाल किले की तरफ कूच करेंगे। देखते ही देखते वहां भीड़ इकट्ठा हो गयी। जिसमें ज्यादातर नौजवान थे। वैसे भी नौजवानों का खून गर्म होता है और वो दिमाग से ज्यादा दिल से काम लेते हैं।

सभी ने उस शख्स के सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया। वैसे भी जिस तरह से सरकार इस आंदोलन के साथ पेश आ रही है उसको लेकर लोगों में बेहद गुस्सा है। और दो महीने के सिंघु बार्डर और उससे पहले के तीन महीने तक पंजाब में आंदोलन के बाद भी सरकार कान में जूं तक नहीं रेंगी। सरकार के खिलाफ यह गुस्सा युवाओं में कुछ ज्यादा ही है। उन्हीं नौजवानों में से कुछ ने धार्मिक तथा कुछ ने किसान आंदोलन के पक्ष में नारे लगाने शुरू कर दिए। यह देखकर न केवल किसान नेता बल्कि उनके समर्थक भी सकते में आ गए। आखिर ये क्या हो रहा है? इससे तो पूरा आंदोलन ही ध्वस्त हो जाएगा। लिहाजा उनकी तरफ के लोग भी एकत्रित होने शुरू हो गए। और उन्होंने उस शख्स का विरोध शुरू कर दिया। लेकिन बहुत देर तक मनाए जाने के बावजूद न मानने पर उन लोगों ने निहंगों के लड़ाके दस्ते बुला लिए। और फिर उन हथियारबंद दस्तों ने वहां मौजूद भीड़ को खदेड़ दिया। और इस तरह से सभी अपने-अपने कैंपों में चले गए। लेकिन ऐसा नहीं है कि वह बात खत्म हो गयी थी।

उसकी आहट सुबह मंच से लाउजस्पीकर के जरिये आने वाली अपीलों में बिल्कुल साफ-साफ सुनी और समझी जा सकती थी। वहां से बार-बार ये अपील की जा रही थी कि किसी भी तरीके से इस आंदोलन को अराजक या हिंसक नहीं होने देना है। अगर हिंसक हुआ तो इसका मतलब होगा मोदी सरकार की जीत। मैंने खुद एक शख्स को मंच पर ‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पायी’ का शेर दोहराते सुना। लिहाजा मुख्यधारा के नेतृत्व को किसी अनहोनी की पहले ही आशंका हो गयी थी। लिहाजा वो आंलोदन के शांतिपूर्ण और अहिंसक होने पर बार-बार जोर दे रहा था। यहां तक कि उसी समय किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने मंच से ही 1 फरवरी के संसद कूच के कार्यक्रम का ऐलान किया। जिसमें यह बात शामिल थी कि अगर किसी को दिल्ली में घुसने या लालकिले और संसद तक जाने की इतनी ही तमन्ना है या फिर वह कोई जौहर दिखाना चाहता है तो उसके सामने 1फरवरी का कार्यक्रम मौजूद है। उन्होंने यहां तक कहा कि ट्रैक्टर मार्च तीन से चार दिन तक खिंच सकता है। और आखिरी ट्रैक्टर को भी मार्च में शामिल होने का मौका दिया जाएगा। इस लिहाज से नेतृत्व ने पहले ही सभी से कुछ राशन-पानी अपने साथ ट्रैक्टरों में रख लेने की सलाह दी थी। और उसी का नतीजा था कि ज्यादातर लोगों ने अपने अपने ट्रैक्टरों के पीछे राशन की बोरियां रखी हुईं थीं।

किसान परेड का आधिकारिक समय राजपथ परेड के खत्म होने के बाद का था। लिहाजा किसान नेताओं ने उसी तरीके से अपनी तैयारी कर रखी थी। कल सुबह साढ़े नौ बजे के करीब जब मैं और मेरे साथी आजाद मंच के करीब पहुंचे तो वहां कूच करने से पहले किसान नेताओं के भाषण हो रहे थे। साढ़े नौ बजे के उस मौके की कई फोटो मेरे मोबाइल में सुरक्षित हैं। और इस तरह से 10 बजे किसान नेता दर्शन पाल, गुरनाम सिंह चढ़ूनी और बलबीर सिंह राजेवाल अलग-अलग समय पर मेरे ही सामने से निकले। और परेड की अगली कतार में शामिल हुए। किसान परेड की जो रुप रेखा तय की गयी थी उसके मुताबिक आगे-आगे निहंगों के दस्तों को रहना था। उसके पीछे किसान नेताओं को तथा उसके पीछे उन ट्रैक्टरों को सम्मान स्वरूप स्थान दिया जाना था जिन्होंने पंजाब से दिल्ली के रास्ते में अवरोधक के तौर पर लगाए गए बैरिकेड्स को तोड़ने में अपनी भूमिका निभायी थी। और फिर उन ट्रैक्टरों के पीछे आम ट्रैक्टरों को शामिल होना था। और ये सारी चीजें अपने तरीके से हुईं भी थीं।

लेकिन उससे पहले ही सुबह 7 से 8 बजे के बीच किसानों का एक जत्था दिल्ली की तरफ कूच कर गया था। लाल किले पर पहुंचे किसानों में ज्यादातर वही थे। और उनका नेतृत्व कोई और नहीं बल्कि यही शख्स दीप सिंह सिद्धू कर रहा था। इसकी गवाह जनचौक की रिपोर्टर वीना हैं जो खुद लाल किले पर मौजूद थीं और उन्होंने जिन लोगों से साक्षात्कार किया है उन सब ने बताया है कि वे सुबह सात बजे ही सिंघु बॉर्डर से लाल किले के लिए कूच कर गए थे। और इन सारी बातों को देखकर एक सवाल तो बनता है कि आखिरकार गृहमंत्री अमित शाह की पुलिस क्या कर रही थी अगर वह एक-दो हजार की भीड़ को भी काबू नहीं कर सकी या फिर उन्हें लाल किले तक जाने से नहीं रोक सकी तो एकबारगी अगर पूरा किसान नेतृत्व और उसकी समर्थक लाखों की तादाद में आयी जनता दिल्ली पर चढ़ायी कर देती तो फिर दिल्ली का क्या होता?

आंदोलन के इस तरह से अराजक होने के बाद किसानों ने अपना ट्रैक्टर मार्च का कार्यक्रम तुरंत वापस ले लिया और सभी किसानों को अपने टैक्टरों के साथ बॉर्डरों पर चले जाने का निर्देश दिया। वैसे भी जो एक-दो हजार की संख्या में लोग दिल्ली के भीतर प्रवेश किए थे उन्होंने ऐसी कोई हिंसा नहीं की जिससे कोई जान-माल की क्षति हुई हो या फिर कोई बड़ा नुकसान हुआ हो। आम आंदोलनों और प्रदर्शनों में इससे ज्यादा नुकसान हो जाता है। कई बैरिकेड्स टूटते हैं और बहुत सारे पुलिसकर्मी चोटिल होते हैं। यहां तो जान भी गयी है तो एक आंदोलनकारी की। रही लाल किले पर झंडे फहराने की बात तो अमूमन गणतंत्र दिवस या फिर इस तरह के किसी मौके पर लोग लाल किले पर जाते ही हैं। और उन्होंने सिखी झंडे फहराये तो किसान और मजदूरों के झंडे भी। जो आम तौर पर किसी भी ट्रैक्टर में देखे जा सकते हैं। इसमें किसी भी तरह से तिरंगे की तौहीन की बात शामिल नहीं है। बल्कि तिरंगा सबसे ऊपर है और उसके नीचे इन झंडों के जरिये सभी के बीच की एकता का संदेश दिया गया है।

दरअसल इस पूरे किसान आंदोलन में 35 घोषित जत्थेबंदियों के अलावा कई संगठन हैं जो लगातार अपना अलग रुख बनाए हुए हैं। इनमें पन्नू गुट से लेकर दीप सिद्धू जैसे अराजक तथा कुछ रेडिकल्स शामिल हैं। ये ऐसे लोग हैं जो किसी की भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। वैसे भी जनता का कोई भी बड़ा आंदोलन होता है तो उसमें मुख्यधारा के अलावा कई प्रवृत्तियां काम करती हैं। वह आजादी की लड़ाई हो या फिर कोई दूसरा मौका सभी में यह बात देखी जा सकती है। गांधी जी के आंदोलन को अहिंसक बनाए जाने के लाख जोर के बावजूद बीच-बीच में हिंसा हो ही जाती थी। चौरी-चौरा में हिंसा होने के बाद असहयोग आंदोलन को वापस लेने वाले गांधी 42 के भारत छोड़ो के दौरान होने वाली हिंसा को नजरंदाज कर दिए थे। इस तरह से कोई भी आंदोलन 100 फीसदी अहिंसक नहीं होता। लिहाजा 24 कैरेट की अपेक्षा की जगह हमें उसके मुख्यधारा के नेतृत्व और उसकी सोच तथा शैली को महत्व देना चाहिए। इसलिए कहा जा सकता है कि सत्ता के इशारे पर या कहिए उसकी मिलीभगत से आंदोलन को ध्वस्त करने की साजिश नाकाम हो चुकी है। यह आंदोलन अभी भी अपनी मंजिल का सफर तय करेगा। मौजूदा किसानों के नेतृत्व ने इसी तरह का संदेश दिया है। लिहाजा पूरे देश को उन पर भरोसा रखना चाहिए। और निश्चित तौर पर यह आंदोलन अपनी मंजिल पर पहुंचेगा।  

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)           

महेंद्र मिश्र
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