इस बारे में क्या पक्ष और क्या विपक्ष सभी माथापच्ची कर चुके हैं। 10 साल के शासन से बेहाल युवा और किसान तो सड़कों पर पहले से ही मौजूद हैं। दक्षिण भारत संघीय ढांचे की कमजोर हो चुकी बुनियाद को लेकर केंद्र सरकार को लगातार चुनौती दे रहा है। पिछली बार 303 सीटें कैसे मिल गईं, को लेकर शायद ही किसी को कोई भ्रम हो। फिर मोदी जी ‘अबकी बार, 400 पार’ का नारा कैसे दे पा रहे हैं? यह बात किसी को हजम नहीं हो पा रही है।
होनी भी नहीं चाहिए। जो पार्टी कांग्रेस, तृणमूल, शिवसेना, बीजू जनता दल सहित तमाम पार्टियों के दागी, भ्रष्ट और कुख्यात चेहरों को अपनी पार्टी में न सिर्फ फूलमाला के साथ स्वागत करे, बल्कि पलक झपकते ही उन्हें लोकसभा का टिकट या राज्य सभा सदस्य के तौर पर नामित करा दे, उस पार्टी का नेता आखिर किस बूते पर पार्टी को 400 पार ले जाने का दावा पेश कर रहा है?
400 पार तो संविधान बदल देंगे
अब तक भाजपा के कई नेताओं ने अपने बयानों से स्पष्ट कर दिया है कि 400 पार से उनका अभिप्राय क्या है। इस कड़ी में पहल उसी नेता ने की, जिन्होंने 2017 में भी केंद्रीय मंत्री होते ऐलान किया था कि ‘हम संविधान बदलने के लिए सत्ता में आये हैं।’ उनके इस बयान पर तब संसद में भारी हंगामा मचा था, और तब भाजपा सरकार ने मंत्री, अनंत कुमार हेगड़े के बयान से खुद को अलग कर लिया था। बाद में संसद के गतिरोध को समाप्त करने के लिए उक्त मंत्री साहब ने विपक्ष से माफ़ी भी मांग ली थी।
लेकिन 7 साल बाद जब 400 पार की गूंज सुनाई दी, तो कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ से छह बार सांसद रह चुके अनंत कुमार हेगड़े अपने मन की बात दबा नहीं पाए और एक बार फिर इसे जाहिर कर साफ़-साफ़ कह बैठे कि भारत के संविधान को बदलने के लिए हमें लोकसभा, राज्यसभा और राज्यों में दो तिहाई बहुमत चाहिए। लेकिन इस बात को तो सलीके से धीरे-धीरे आम लोगों के जनमानस में पेश करना था। कहां और कितना बोलना चाहिए था, और कहां बोल गये? नतीजा यह हुआ है कि इस बार भाजपा ने उन्हें लोकसभा का उम्मीदवार तक नहीं बनाया है।
लेकिन इस मामले में अकेले हेगड़े नहीं हैं। फैजाबाद से भाजपा सांसद और 2024 लोकसभा उम्मीदवार, लल्लू सिंह का भी एक वीडियो सोशल मीडिया में काफी वायरल हो रहा है। इसमें उन्हें पार्टी की बैठक में कहते सुना जा सकता है कि, “सरकार तो 272 पर भी बन जाती है, लेकिन 272 की सरकार संविधान में संशोधन नहीं कर सकती है। उसके लिए दो तिहाई बहुमत या उससे अधिक की जरूरत पड़ती है। या नया संविधान बनाना। तो इसके लिए कई-कई नियम बदलने होंगे, संविधान में संशोधन करना होगा, और बहुत सारे काम करने होंगे।”
इसी प्रकार गुजरात में भाजपा के चुनाव प्रचार में 400 पार का शोर सबसे जोर-शोर से किया जा रहा है। एक भाजपा नेत्री अपने भाषण में कह रही हैं कि 400 नहीं 410 सीटें लानी होंगी, तभी अपने मुताबिक संविधान में बदलाव करना संभव होगा। अगर ऐसा नहीं किया तो 25 साल बाद आपकी संतानें आप से सवाल करेंगी कि सत्ता में रहकर क्या किया? बहुत संभव है कि हमारी अगली पीढ़ी देश से पलायन कर जाए।
मेरठ में भी जब अरुण गोविल (रामानंद सागर के टीवी सीरियल के राम), जो मेरठ से भाजपा के प्रत्याशी हैं, उनका भी कहना था कि संविधान में तो परिवर्तन होना समय की मांग है। मोदी जी के नेतृत्व में पूर्ण आस्था रखने वाले अरुण गोविल को संविधान में बदलाव या नये संविधान की तैयारी के बारे में वैसे भी कुछ ख़ास पता नहीं होगा। ये तो वे चारे हैं, जिन्हें आगे कर राजनीतिक पार्टियां आवश्यक जनादेश हासिल करने में कामयाब रहती हैं, और इनसे काम पूरा हो जाने पर किसी नए बकरे को तलाश लिया जाता है।
संविधान में बदलाव पर पीएम मोदी की सफाई
लेकिन इस प्रश्न पर विपक्ष के साथ-साथ आंबेडकरवादी समर्थकों की प्रतिक्रियाओं से भाजपा आशंकित है। उसे लगता है कि भारतीय संविधान के साथ डॉ. भीमराव आंबेडकर के जुड़े होने के कारण दलितों का वोट प्रभावित हो सकता है। इसलिए भाजपा और उसके कार्यकर्ताओं की ओर से जवाब में बताया जा रहा है कि कैसे भारतीय संविधान में पिछले 74 वर्षों में समय-समय पर संशोधन किये गये हैं। खुद कांग्रेस ने दर्जनों बार भारतीय संविधान में संशोधन किये हैं। विपक्ष जानबूझकर इस मुद्दे को अनावश्यक तूल देकर देश को गुमराह करने का प्रयास कर रहा है।
पिछले कई दिनों से खुद कल बिहार में गया लोकसभा क्षेत्र में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने संविधान पर अपनी सफाई देते हुए कहा, “पिछले 25 वर्षों से जब से भाजपा केंद्र की सत्ता पर दस्तक देने लगी है, तबसे विपक्षी पार्टियां हमारे बारे में कुप्रचार कर रही हैं। मोदी और बीजेपी ही नहीं स्वंय बाबा साहेब आंबेडकर तक इस संविधान को नहीं बदल सकते हैं। इसलिए विपक्षी झूठ फैलाना बंद करें। इनको पता होना चाहिए कि जो संविधान सभा थी, उसमें डॉ. राजेंद्र बाबू, बाबा साहेब आंबेडकर और देश के गणमान्य लोगों ने अनेक महीनों तक विचार-विमर्श कर देश की भावनाओं और सामाजिक परिस्थिति को समझकर इस संविधान का निर्माण किया है।”
लेकिन क्या यही सच है? असल में अगर गहराई में झांकें तो हम पाते हैं कि पिछले दस वर्षों के दौरान भारतीय संविधान की मूल आत्मा पर एक के बाद एक कुठाराघात किये जा चुके हैं। बाबा साहेब अम्बेडकर के संविधान में ईडी जैसी संवैधानिक संस्था को असीमित अधिकार कभी नहीं दिया गया था। वास्तव में ऐसे दमनकारी कानून तो स्वयं ब्रिटिश शासन के दौरान भी लागू नहीं किये जा सके। हकीकत तो यह है कि मनी बिल के माध्यम से पीएमएलए कानून में आवश्यक संशोधन कर मोदी सरकार ने ईडी के हाथ में वे अधिकार सौंप दिए हैं, जिसे आधार बनाकर वह देश में किसी भी व्यक्ति को सिर्फ एक प्राथमिकी के आधार पर तलब कर सकती है, और लंबे समय तक गिरफ्तार कर सकती है। पहले सिर्फ आतंकवादी, राजद्रोह जैसे जघन्य अपराधों के शक के आधार पर ही यूएपीए और एनएसए, एस्मा या पोटा कानूनों के तहत किसी को हिरासत में रखा जा सकता था।
हकीकत तो यह है कि 2014 में 272 और 2019 में 303 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली मोदी सरकार ने देश की नौकरशाही, शिक्षा व्यवस्था, मीडिया और बड़ी संख्या में न्यायपालिका पर भी अपनी गिरफ्त बना ली है। मोदी शासन के पहले कार्यकाल में देश ने देखा कि कैसे उग्र हिंदुत्ववादी भीड़ की मानसिकता को सरकारी प्रश्रय देकर एक समुदाय विशेष के खिलाफ मोर्चा खोला गया। देश को धुर दक्षिणपंथी दिशा की ओर मोड़ा गया, और गाय, गौमूत्र और गोबर के नाम पर उत्पात मचाने वाले लोगों ने एक-एक कर लेखकों, बुद्धिजीवियों, मुसलमानों को मुख्यधारा से पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया।
2019 में बारी मोदी सरकार की थी, जिसने तीन तलाक, कश्मीर में धारा 370 और 35ए को समाप्त करने के साथ-साथ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के धार्मिक अल्पसंख्यकों को सीएए कानून के तहत भारत में शरण देने का कानून पारित कराया। सीएए कानून पर देश भर के मुसलमानों, बुद्धिजीवियों और राज्यों में असम ने पूर्ण विरोध दर्ज किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि सरकार को इस कानून को ठंडे बस्ते में डालने के लिए मजबूर होना पड़ा। मोदी सरकार फिर 3 नए कृषि कानून लेकर आई, जिसके बाद पूरा परिदृश्य ही बदल गया।
पंजाब के लाखों किसानों ने साल भर का राशन पानी इकट्ठा कर दिल्ली की ओर कूच कर दिया, जिसे हरियाणा, पश्चिमी यूपी सहित राजस्थान और महाराष्ट्र सहित दक्षिण के किसानों ने भरपूर समर्थन दिया। मोदी सरकार अपने स्वप्न में भी इस बात की कल्पना नहीं कर पाई थी कि उसे इतने बड़े पैमाने पर किसानों के विरोध का सामना करना पड़ेगा, जिसमें एक वर्ष से भी अधिक समय तक 700 से भी ज्यादा किसान अपनी शहादत देकर भी नहीं झुकेंगे। आखिरकार, ऐन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले पीएम मोदी ने खुद टीवी पर आकर तीनों काले कानून वापस लेने की घोषणा की।
संविधान के मूल ढांचे में बदलाव के पीछे की मुख्य वजह
सीएए प्रोटेस्ट और किसानों के आंदोलन ने मरणासन्न पड़ चुके विपक्ष में भी आशा का संचार कर दिया था। पिछले वर्ष कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर की अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और इस वर्ष मणिपुर से मुंबई ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ कर एक बार फिर से आम लोगों के सवालों को मुख्यधारा की बहस में लाकर हिंदुत्ववादी परियोजना और एकाधिकार पूंजी के गठजोड़ के सामने कड़ी चुनौती पेश कर दी है। 400 से अधिक लोकसभा सीट के लक्ष्य के पीछे की मंशा इसी प्रतिरोध को हमेशा-हमेशा के लिए दफन कर देना है। एक देश-एक चुनाव, एक देश-एक झंडा, समान नागरिक संहिता जैसे जुमले असल में देश को उस निरंकुश राज की ओर ले जाने की मंशा के साथ आगे किया जाता है, जिसमें देश की बहुसंख्यक आबादी को ढोर-डंगर की तरह दो जून की रोटी के बदले देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कॉर्पोरेट फार्मिंग का गुलाम बनाया जा सके।
ऐसे संविधान की कल्पना पूर्व में आरएसएस के सरसंघचालक लिख कर दे चुके हैं। 400 पार के नारे से दो मकसद हल होते हैं। पहला है अपने कोर वोटरों को विश्वास दिलाना कि असल में अच्छे दिन तो तब पूरे होंगे जब मोदी जी संविधान में पूर्ण बदलाव कर आपके मनमाफिक देश पर एकछत्र राज कर पायेंगे। इसलिए अभी भी रिलैक्स होने की जरूरत नहीं है, डटे रहो। दूसरा, विपक्ष और आम लोगों को हतोत्साहित करने का, जिसे विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी या भाजपा के खेमे में शामिल होते देख विकल्पहीनता का अहसास गहराता जा रहा है।
शीर्ष नेतृत्व के तौर पर नरेंद्र मोदी लगातार बोलते रहेंगे कि उनके दल की मंशा पर किसी भी भारतीय को शंका नहीं होनी चाहिए। लेकिन इसी के साथ, पार्टी नेता और कार्यकर्ता संदेश देते रहेंगे कि मोदी जी देश में कुछ बड़ा करने वाले हैं। इसके लिए समय-समय पर विभिन्न कोनों से अलग-अलग सुरों में लोगों को पहले भी बोलते सुना गया है। पीएम मोदी के आर्थिक सलाहकार मंडल के चेयरमैन विवेक देबरॉय से लेकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और भाजपा समर्थित राज्य सभा सांसद रंजन गोगोई पहले ही संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव की बात को हवा दे चुके हैं।
आरएसएस की नजर में भारतीय संविधान
आरएसएस के बारे में देश में सबसे बारीक नजर रखने वाले इतिहासकारों में से एक शमशुल इस्लाम लिखते हैं कि आजादी मिलने के बाद जब भारतीय संविधान सभा ने डॉ. बीआर अंबेडकर की देखरेख में एक लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान को अंगीकार किया तो आरएसएस इस बात से बेहद खफ़ा था। भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर, 1949 को देश का संविधान पारित किया, उसके चार दिन बाद आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर ने 30 नवंबर, 1949 को ‘संविधान’ पर एक संपादकीय प्रकाशित कर घोषणा की थी कि:
“भारत के नए संविधान में सबसे बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है… इसमें प्राचीन भारतीय संवैधानिक कानूनों, संस्थानों, नामकरण और वाक्यांश-विज्ञान का कोई चिन्ह तक मौजूद नहीं है… मनु का कानून तो स्पार्टा के लाइकर्गस या फारस के सोलन से भी बहुत पहले लिखा जा चुका था। आज तक मनुस्मृति में प्रतिपादित कानून पूरे विश्व में प्रशंसित और उत्तेजित करते हैं और सहज स्वीकृति और अनुमोदन हासिल करते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इस सबका कोई अर्थ नहीं है।”
इतना ही नहीं भारतीय संविधान के बारे में आरएसएस के सबसे प्रमुख विचारक गोलवलकर क्या विचार रखते थे, इसे उनके निम्नलिखित कथन से समझा जा सकता है: “हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों के विभिन्न अनुच्छेदों का एक बोझिल और विषम संयोजन मात्र से अधिक कुछ नहीं है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अपना कहा जा सकता है। क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में एक भी शब्द इस संदर्भ को लिए हुए है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या है और हमारे जीवन का मूलमंत्र क्या है? नहीं!” [एमएस गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बैंगलोर, 1996, पृ. 238।]
शमशुल इस्लाम आगे लिखते हैं, मनुस्मृति पर आरएसएस के लीडरान की आस्था स्वाभाविक तौर पर उन्हें जातिवाद पर भी भरोसा करने के लिए प्रेरित करती है, जिसके चलते छूआछूत जैसी घृणित प्रथा हमारे देश में पनपी और हजारों वर्षों से बहुसंख्यक समाज को दासता की बेड़ियों में जकड़े रखा। आरएसएस के लिए जातिवाद हिंदू राष्ट्रवाद का मूल आधार है। गोलवलकर को इस बात को कहने में कोई गुरेज नहीं था कि जातिवाद असल में हिंदू राष्ट्र का दूसरा नाम है। हिंदू के बारे गोलवलकर की परिभाषा उनके ही शब्दों में,
“ऋग्वेद में उन्होंने कहा है, हिंदू लोग विराट पुरुष होते हैं, सर्वशक्तिमान ने स्वयं को इनके माध्यम से प्रकट किया है। हालाँकि उन्होंने ‘हिन्दू’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, लेकिन पुरुष-सूक्त [ऋग्वेद की 10वीं पुस्तक में] में सर्वशक्तिमान के निम्नलिखित विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है, जिसमें कहा गया है कि सूर्य और चंद्रमा उसकी आंखें हैं, तारे और आकाश उसकी नाभि से उत्पन्न हुए हैं और ब्राह्मणमस्तकहै, क्षत्रियभुजाहैं, वैश्यजंघाएंऔरशूद्रपांवहैं।
इसका अर्थ हुआ कि जिन लोगों के पास यह चातुरवर्णीय व्यवस्था है, अर्थात हिंदू लोग, वे हमारे भगवान हैं। ईश्वरत्व की यह सर्वोच्च दृष्टि ‘राष्ट्र’ की हमारी अवधारणा का मूल है और इसने हमारी सोच में घर किया हुआ है और इसी ने हमारी सांस्कृतिक विरासत की विभिन्न अनूठी अवधारणाओं को जन्म दिया है।” [एम।एस।गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स, आरएसएस द्वारा प्रकाशित गोलवलकर के लेखों/भाषणों का संग्रह, पृष्ठ 36-37।]
400 पार आरएसएस और उसके आनुषांगिक संगठनों का दिवास्वप्न है, जिसे हासिल करने की बात फिलहाल कहीं से संभव नहीं है। लेकिन इसे संगठन के भीतर इसकी चर्चा कर कट्टर समर्थकों को तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद एक बार फिर से खड़ा करने की कोशिश अवश्य कहा जाना चाहिए, जो छलक कर बाहर भी जहां-तहां बिखर रखा है। इसे समेटने का काम उनके जिम्मे है, जो जीत की जिग-शॉ पहेली को अकेले दम पर ठेलने का दम भर रहे हैं, और इसी आधार पर आंतरिक अंतर्कलह को भी खामोश किये बैठे हैं।
भारत जैसे विविधताओं से भरे देश को एक डंडे से हांकने के इस प्रयास में भाजपा-आरएसएस के भीतर की विविधता किस कदर खत्म हो चुकी है, इसका अहसास बहुत से पुराने संघ वालों को हो रहा है। सवाल यह भी खड़ा होता है कि 400 पार की जगह यदि भाजपा के खाते में 272 सीटें भी नहीं आतीं, तो उसके बाद इसके भीतर से कितने अलग-अलग सुर निकलेंगे और उन्हें संभालने के लिए कौन बचेगा?
(रविंद्र पटवाल लेखक और टिप्पणीकार हैं।)