कृषि कानून और जियो मार्ट का रिश्ता क्या कहलाता है!

केंद्र की मोदी सरकार किसानों की हितैषी होने का दावा तो करती है, लेकिन सितंबर महीने में सरकार द्वारा पारित तीन नये कृषि कानून कुछ और ही इशारा करते हैं। दरअसल, सरकार ने कृषि सुधार से संबंधित तीन कानून बनाए हैं, जो किसानों से ज्यादा कृषि क्षेत्र की कंपनियों के हितों को साधती नजर आ रही हैं। खास बात यह है कि सरकार द्वारा कोरोना काल में ही इन कानूनों को अध्यादेश की शक्ल में 5 जून को लागू कर दिया गया था। फिर सरकार संसद के मॉनसून सत्र में अध्यादेशों को विधेयकों के रूप में लेकर आई, जिसके बाद ये कानून बने। इसे लाने की टाइमिंग से भी सरकार की मंशा पर संदेह होता है। आखिर ऐसी भी क्या जल्दी थी, इस कृषि सुधार कानून की? अगर सरकार सच में किसानों की आय को बढ़ाने को लेकर चिंतित होती, तो उसे स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करना चाहिए था।

एक नजर कानूनों पर डालना जरूरी है कि ये कानून कहते क्या हैं। पहला कानून है- ‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020’। सरकार के मुताबिक, वह किसानों की उपज को बेचने के लिए विकल्प को बढ़ाना चाहती है। किसान इस कानून के जरिए अब एपीएमसी मंडियों के बाहर भी अपनी उपज को ऊंचे दामों पर बेच पाएंगे। यानी कि इसे ऐसे भी समझें कि कोई भी कंपनी, कहीं भी सीधे किसानों से उसकी उपज को खरीद सकती है। इसके जरिए बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट दी गई है। बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं। शुरू में किसानों को इसका लाभ जरूर मिल सकता है, लेकिन यही खुली छूट आने वाले वक्त में एपीएमसी मंडियों की प्रासंगिकता को समाप्त कर देगी। ऐसी स्थिति आने पर और एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की गारंटी न होने पर कॉरपोरेट कंपनियों की मोनोपोली वाली स्थिति होगी। यही वजह है कि किसान सशंकित हैं और इस कानून का विरोध कर रहे हैं।

दूसरा कानून है- ‘कृषि (सशक्तीकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020’। इस कानून के संदर्भ में सरकार के मुताबिक, वह किसानों और निजी कंपनियों के बीच में समझौते वाली खेती का रास्ता खोल रही है। इसे सामान्य भाषा में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कहते हैं। इस कानून के मुताबिक, किसी विवाद की स्थिति में पहले विवाद कॉन्‍ट्रैक्‍ट कंपनी के साथ 30 दिन के अंदर किसान खुद निबटाए और अगर ऐसा संभव नहीं हुआ तो देश की ब्यूरोक्रेसी में न्याय के लिए जाए। यह भी नहीं हुआ तो फिर 30 दिन के लिए एक ट्रि‍ब्यूनल के सामने पेश हो।

हर जगह एसडीएम लेवल के अधिकारी जांच के लिए मौजूद रहेंगे। धारा 19 में किसान को सिविल कोर्ट के अधिकार से भी वंचित रखा गया है। यही इस कानून का सबसे बड़ा झोल है? किसी भी विवाद की स्थिति में देश के नागरिक के पास कोर्ट जाने का अधिकार होता है, लेकिन इस कानून में किसानों को कोर्ट जाने से वंचित रखे जाने से संदेह पैदा करते हैं। एसडीएम जैसे अधिकारी सरकार के सेवक होते हैं, उनमें यह हिम्मत कतई नहीं होगी कि वे सरकार के खिलाफ जाने का साहस भी कर सकें।

तीसरा कानून है- ‘आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020’। यह किसानों के लिए ही नहीं, बल्कि आम लोगों के लिए भी नुकसानदेह साबित होने वाला है। इस कानून के बाद अब कृषि उपज को जमा करने की कोई सीमा नहीं होगी। उपज जमा करने के लिए निजी निवेश की छूट होगी। सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है? यानी की यह जमाखोरी को खुली छूट और कानूनी मान्यता देना हुआ। कानून में साफ लिखा है कि सिर्फ युद्ध या भुखमरी या किसी बहुत विषम परिस्थिति में इस कानून को सरकार रेगुलेट करेगी। मोदी सरकार के मुताबिक, इससे आम किसानों को फायदा होगा।

वे सही दाम होने पर अपनी उपज बेचेंगे, लेकिन सवाल है कि देश के कितने किसानों के पास भंडारण की सुविधा है? हमारे यहां तो 80 फीसदी छोटे और मंझोले किसान हैं। सरकारों ने भी इतने गोदाम नहीं बनवाए हैं कि किसान वहां अपनी फसल को जमा कर सकें। ऐसे में इस कानून का भी फायदा उन पूंजीपतियों को होगा, जिनके पास भंडारण व्यवस्था बनाने के लिए एक बड़ी पूंजी उपलब्ध है। वे अब आसानी से सस्ती दर पर आनाज खरीद कर स्टोर करेंगे और जब दाम आसमान छूने लगेंगे तो बाजार में बेच कर लाभ कमाएंगे।

इन कानूनों को अध्यादेश के रूप में लाने से ठीक पहले अप्रैल महीने में रिलायंस समूह द्वारा कंज्यूमर गुड्स की कैटेगरी में बिजनेस करने के लिए एक नया वेंचर जियो मार्ट लांच किया गया। दिसंबर 2019 में इस कंपनी की स्थापना हुई थी। वहीं, अगस्त महीने में मुकेश अंबानी की कंपनी रिलायंस रिटेल वेंचर्स लिमिटेड द्वारा फ्यूचर ग्रुप के रीटेल, होलसेल लॉजिस्टिक्स और वेयरहाउस बिजनेस ‘बिग बाजार और फूड बाजार’ को लगभग 25 हजार करोड़ रुपये में खरीद लिया जाना किस बात की ओर इशारा करते हैं? मुकेश अंबानी के रिलायंस की एग्रो प्रोडक्ट इंडस्ट्री में कदम रखना और सरकार द्वारा इन कृषि अध्यादेशों को पारित करना। सरकार की मंशा को दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए काफी है।

हालांकि, ऐसा नहीं है कि इन कानूनों से पहले कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट कंपनियों का दखल नहीं है। आज भी शहरी मध्यवर्ग आइटीसी, पतंजलि, अडानी विल्मर जैसी कंपनियों का ही आटा तेल खा रही है। नेस्ले की मैगी खा रही है। इसकी नींव 1990 में ही रखी जा चुकी है, लेकिन मोदी सरकार द्वारा खेती-किसानी को पूरी तरह बाजार के हवाले करने जा रही है। इससे बिचौलियों को नुकसान की बात भी की जा रही है, लेकिन क्या कोई भी कॉरपोरेट किसानों से वन-टू-वन खरीद करने की स्थिति में है? अगर नहीं, तो सीधे तौर पर इस कानून के लागू होने की स्थिति में नया बिचौलिया भी जरूर जन्म लेगा।

भारत में कृषि व्यवसाय नहीं, बल्कि जीवन-मरण का साधन है। यहां कुछ राज्यों को छोड़ कर बाकी जगह के किसान छोटी जोत वाले हैं और मजबूरी में खेती करते हैं, ताकि वे जी सकें। हां उन्हें यह पता होता है कि खेती करके मुश्किलों से ही सही उनकी जिंदगी कट जरूर जाएगी, लेकिन इन कानूनों में एमएसपी का जिक्र तक न होना किसानों को घुटनों के बल ला सकता है। इस कृषि विधेयक को लेकर मोदी सरकार के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते समय हरसिमरत कौर बादल ने कृषि विधेयक की तुलना मुकेश अंबानी की टेलिकॉम कंपनी जियो से की थी। उन्होंने कहा था कि जिस तरह जियो ने शुरू में फ्री में फोन, नेटवर्क और इंटरनेट दिए, फिर इंडस्ट्री पर कब्जा कर लिया, उसी तरह खेत, खेती और किसानों पर भी पूंजीपतियों का कब्जा हो जाएगा। उनकी यह आशंका निराधार नहीं है, क्योंकि जियो मार्ट की ऑफिशियल लॉन्चिंग और इन कानूनों को अध्यादेश के रूप में लाया जाना, महज संयोग तो कतई नहीं है।

आने वाले समय में जियो मार्ट की मोनोपोली का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कंपनी की लॉन्चिंग के कुछ ही महीने के भीतर उसने बिग बाजार और फूड बाजार को खरीद लिया। ऐसे में यह कहना अतिरेक नहीं होगा कि जिस भूमि अधिग्रण अध्यादेश को मोदी सरकार लागू नहीं करवा पाई थी, उसे कोरोना काल में सरकार ने चोर दरवाजे से कानून की शक्ल दे दी है। यदि ये कानून बने रहते हैं तो आने वाले समय में खेती-किसानी चंद पूंजीपतियों के अधीन होगी और छोटे-मंझोले किसान मजदूर की जिंदगी जीने को विवश होंगे। रही इस कानून से किसानों के लाभ की बात, तो वर्ष 2006 में बिहार में एपीएमसी प्रणाली को समाप्त कर दिया गया था, जिससे कृषि उपज के कारोबार में निजी क्षेत्र की भागीदारी जरूर बढ़ी, लेकिन इससे किसानों को भारी क्षति हुई है। किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य से आधी-आधी कीमतों में अपनी फसल बेचने को मजबूर हैं।

सरकार को यदि वाकई में कृषि क्षेत्र की चिंता होती तो सरकार एपीएमसी मंडियों की किसान तक पहुंच में विस्तार के लिए आवश्यक सुधार कर रही होती, जो सरकार नहीं कर रही है। सरकार द्वारा ई-नाम कृषि पोर्टल की शुरुआत तो की गई, लेकिन उस दिशा में भी मजबूत प्रयास किए जाने की आवश्यकता है, ताकि कृषि क्षेत्र में ई-ट्रेडिंग को बढ़ावा दिया जा सके। इसके अलावा मोदी सरकार को कृषि उपज पर एमएसपी के संदर्भ में स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करना चाहिए था, लेकिन सरकार ने इन कृषि सुधार कानूनों के जरिए पूरी खेती-किसानी को बाजार के हवाले करने का मन बना लिया है, ताकि मुकेश अंबानी जैसे उनके कॉरपोरेट मित्रों का भला हो सके।

  • विवेकानंद सिंह

(विवेकानंद सिंह लेखक हैं।)

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