अपनी विरासतों के प्रति क्यों उदासीन हैं भारतीय?

नई दिल्ली। इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार 150 दुर्लभ पुरावशेष; जिसमें प्राचीन कांस्य, पत्थर तथा टेराकोटा की मूर्तिशिल्प तथा अन्य प्राचीन वस्तुएं तस्करी से अमेरिका ले जाई गई थी। उन्हें अमेरिका और भारत सरकार के बीच हुए समझौते के तहत वापस लाया जा रहा हैं, इसके अलावा 250 अन्य कलाकृतियों के भी बारे में एक समझौता हो गया है, वे भी जल्दी ही भारत लाई जाएंगी।

अमेरिका के अलावा ब्रिटेन, फ्रांस और आस्ट्रेलिया सहित सारे यूरोपीय देशों में चोरी या तस्करी से भारतीय कलाकृतियां; जिसमें मूर्तिशिल्प, चित्रकला, दुर्लभ ऐतिहासिक हथियार आदि जो सम्पूर्ण देश की धरोहर है। उन्हें आज़ादी से पहले क़रीब दो सौ वर्षों से चोरी और तस्करी से विदेशों में ले जाया जाता रहा था और आज भी कमोबेश ज़ारी है। अगर आज भी किसी भारतीय को भारत की श्रेष्ठ कलाकृतियों को देखना या उसका अध्ययन करना हो, तो उसे ब्रिटिश म्यूजियम लंदन जाना होगा अथवा न्यूयार्क अमेरिका में मेटा संग्रहालय, न्यूयार्क में देखना होगा।

अगर हम कोहिनूर या फ़िर टीपू सुल्तान सहित भारतीय राजघरानों की बहुमूल्य सामग्रियों को छोड़ भी दें, तो कुछ ऐसी बहुमूल्य दुर्लभ कृतियां विदेशों में गई हैं, जो कि सम्पूर्ण विश्व की बहुमूल्य विरासत हैं। वे इतनी बहुमूल्य और दुर्लभ हैं कि आज हम उसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते।

उन बहुमूल्य कृतियों में एक बिहार के भागलपुर के सुल्तानगंज में 1861 में ईस्ट इंडियन रेलवे के निर्माण के समय खुदाई में मिली ‘एक विशाल तांबे की बुद्ध प्रतिमा’ है। जिसका वज़न 500 किलोग्राम से अधिक है, जिसका निर्माणकाल 500 से 700 ईसा पूर्व बताया जाता है। प्राप्त होने के बाद उसे इंग्लैंड भेज दिया गया, जो आजकल ‘बर्मिंघम म्यूजियम एण्ड आर्ट गैलरी’ में प्रदर्शित है।

एक दूसरी कलाकृति ‘उज्जैन प्राचीन भोजशाला’ में मिली संगमरमर की बनी ‘गुप्तकालीन सरस्वती की प्रतिमा’ आजकल ब्रिटेन में ‘ब्रिटिश म्यूजियम लंदन’ में प्रदर्शित है। जो भारतीय कला का दुनिया का सबसे बड़ा संग्रहालय है। इसके अलावा बाबर द्वारा लिखित बाबरनामा की चित्रित पांडुलिपि की प्रतियां हैं। जिसकी प्रत्येक पांडुलिपि में क़रीब 300-300 लघुचित्र हैं, इनकी तीन प्रतियां ही वर्तमान समय में उपलब्ध हैं। जिन्हें 1980 में ब्रिटेन की एक कला नीलाम करने वाली संस्था ने इसे एक अत्यंत दुर्लभ चित्रित पांडुलिपि बताया था। जिनके एक-एक चित्रों की क़ीमत बाज़ार में दस लाख डॉलर आंकी गई थी। आज के समय इनकी क्या कीमत होगी?

इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इनकी एक प्रति ब्रिटिश म्यूजियम लंदन में, दूसरी मास्को के राष्ट्रीय संग्रहालय में और तीसरी राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली में है। ये मैंने कुछ उदाहरण यह बताने के लिए दिए हैं कि किस तरह भारतीय बहुमूल्य कलाकृतियां विदेशों में तस्करी से भेजी गईं और आज भी विदेशों में स्थित संग्रहालयों, निजी संग्रहकर्ताओं के पास तथा कलाबाज़ार में भारतीय कलाकृतियां भरी पड़ी हैं।

1972 में भारतीय कलाकृतियों की विदेशों में तस्करी तथा अवैध बिक्री को रोकने के लिए ‘पुरावशेष एवं बहुमूल्य कलाकृति अधिनियम 1972′ पास किया गया। इस अधिनियम के अंतर्गत मूर्तियां, सिक्के, चित्र, हथियार, कवच, हौदे, हाथीदांत तथा लकड़ी के कामदार सामान, आभूषण, वस्त्र, फर्नीचर, पांडुलिपियां यदि 100 वर्ष से अधिक पुरानी हों। और उनका ऐतिहासिक, कलात्मक, धार्मिक, राजनीतिक संग्रहालीय महत्व हो, तो वे पुरावशेष समझी जाएंगी।

ऐतिहासिक महत्व की 75 वर्ष पुरानी पांडुलिपियों को भी पुरावशेष माना जाएगा, बाद में प्राचीन सिक्कों को इस अधिनियम से बाहर कर दिया गया। इस अधिनियम के अंतर्गत पंजीकरण कार्यालय में किसी भी व्यक्ति को अपने पास उपलब्ध कलाकृतियों का पंजीकरण कराना पड़ता है। उसकी फोटो और उसकी विस्तृत जानकारी एक फॉर्म में भरकर कार्यालय में जमा करनी पड़ती है, इसके अन्तर्गत कलाकृति पर उसके मालिक का आजन्म अधिकार होता है।

वह देश के अंदर किसी को उपहार में दे सकता है या बेच भी सकता है, लेकिन इसकी सूचना उसे पंजीकरण कार्यालय में देनी होगी। इस अधिनियम के पास होने के बाद कुछ मात्रा में इसकी तस्करी रुकी, लेकिन इसकी तस्करी कमोबेश आज भी ज़ारी है। एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले मध्यप्रदेश में ग्वालियर, खजुराहो और झांसी संभाग से प्रतिवर्ष सैकड़ों कलाकृतियां चोरी होती हैं, तो‌ आप सहज अंदाज़ा लगा सकते हैं कि पूरे देश की क्या स्थिति होगी?

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय सभ्यता का इतिहास अगर 5000 वर्ष पुरानी सिन्धु घाटी से शुरू किया जाए। तो हर काल और इतिहास में बड़े पैमाने पर बड़े-बड़े मंदिर और स्मारक बने। यूनानी, ग्रीक तथा मुग़लकलाओं के मिश्रण से नई-नई कलाओं जन्म और विकास हुआ, परन्तु मध्यकाल के बाद भारतीय समाज स्मृतिविहीन हो गया।

हम भले ही अपनी महानता एवं विश्वगुरु बनने का दावा करते रहें, लेकिन अंग्रेजों के आने तक भारत में कोई ऐसा नहीं बचा था, जो अशोक के स्तंभों में लिखी लिपियों तक को पढ़़ सके या प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को खोजकर उसका संरक्षण कर सके। पहली बार अंग्रेजों ने 1861में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की, जिसके पहले अध्यक्ष सर अलेक्ज़ेंडर कनिंघम बनाए गए, उनके नेतृत्व में भारतीय प्राचीन लिपियों को पढ़ा गया।

दुनिया भर के कई विश्वविद्यालयों में उनके पठन-पाठन की व्यवस्था की गई। लेकिन इनमें सबसे महत्वपूर्ण था, भारतीय पुरास्थलों का सर्वेक्षण, उनकी खोज तथा संरक्षण। आश्चर्य की बात यह है कि उस तक यह माना जाता था कि गौतम बुद्ध कोई अफ़्रीकी व्यक्ति थे तथा उनका जन्म अफ़्रीका में हुआ था। कनिंघम ने पहली बार चीनी यात्रियों के संस्मरणों तथा बौद्धस्तंभों पर लिखित लिपि के आधार पर प्राचीन बौद्धस्थलों लुम्बनी, सारनाथ, बोधगया, कुशीनगर और श्रावस्ती जैसे स्थलों की खोज की तथा उसका संरक्षण किया।

इसके अलावा नालन्दा विश्वविद्यालय, तक्षशिला विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्राचीन अवशेषों की खोज की। इसके अतिरिक्त सांची के ढेरों स्तूपों का संरक्षण किया गया और उन्हें नष्ट होने से बचाया गया, लेकिन अंग्रेजों की सबसे महत्वपूर्ण खोज सिन्धु घाटी की सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता की खोज थी। जिसमें भारत के 5 हज़ार वर्ष पुराने इतिहास की निरंतरता के बारे में सारी दुनिया को पता लगा। अजंता, एलोरा जैसी विश्वविख्यात महान विरासतों की खोज और संरक्षण का श्रेय अंग्रेजों को ही जाता है।

कनिंघम के सर्वेक्षण की रिपोर्ट्स आज भी प्राचीन भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं। महान जर्मन दार्शनिक हीगल ने लिखा है कि भारतीयों का अपना कोई इतिहास नहीं है। जिन आक्रमणकारियों ने भारत पर हमला किया तथा शासन किया, उन्हीं का इतिहास भारत का इतिहास बन गया।

हीगल का यह कथन असत्य हो सकता है, लेकिन यह भी सही है कि भारतीयों में इतिहासबोध का अभाव है, बल्कि इसके स्थान पर इतिहासजीविता है,एक उदाहरण से यह बात अच्छी तरह से समझी जा सकती है-क़रीब दौ सौ से अधिक वर्ष पहले अंग्रेजीराज में कोलकाता में सन् 1814 में ‘भारतीय कला संग्रहालय,कोलकाता’ नामक एक संग्रहालय की स्थापना की  गई।

इसमें न केवल हज़ारों साल पुरानी कलाकृतियां संग्रहीत हैं, बल्कि एशिया के अनेक देशों की कलाओं का यहां विशाल संग्रह है और यह एशिया का सबसे बड़ा संग्रहालय है। परन्तु कोलकाता घूमने वाले वहां के धार्मिकस्थलों पर तो जाते हैं, लेकिन यहां पर जाने वालों की संख्या गिनी-चुनी है। आज़ादी के बाद दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू के प्रयासों से 15 अगस्त 1949 मेंराष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली की स्थापना की गई।

इस महत्वपूर्ण संग्रहालय में 5 हज़ार‌ वर्ष पुरानी हड़प्पा सभ्यता से लेकर आधुनिक समय तक का इतिहास क्रमबद्ध रूप से देखा जा सकता है, परन्तु दिल्लीवालों को इसके बारे में बहुत कम जानकारी है। यह तब थोड़ा चर्चा में आया, जब सेंटर विष्टा परियोजना के अंतर्गत इसे यहां से ‌हटाने और अन्यत्र ले जाने की बात कही गई। तब कुछ बौद्धिक हलकों में यह बात उठी कि इसको स्थानांतरित करने पर ढेरों बहुमूल्य कलाकृतियों के नष्ट हो जाने का ख़तरा है। परन्तु कोई व्यापक विरोध न होने के कारण सरकार इसे लागू करने पर दृढ़ है। वास्तव में कुछ शोधकर्ताओं, स्कूली बच्चों और विदेशियों को छोड़कर आम लोग यहाँ बहुत कम आते हैं, जबकि धार्मिकस्थलों तथा शॉपिंग मॉल में अत्यधिक भीड़ रहती है।

कमोबेश देश भर के संग्रहालयों तथा प्राचीन स्मारकों का यही हाल है। मैंने कई बार देखा है कि गांव में खेतों में अगर कोई प्राचीन मूर्ति मिलती है, तो लोग उसे देवी-देवता की ही मूर्ति मानकर संग्रहालय के बजाय मंदिर में रखने की ज़िद करते हैं और जहां से अधिकांश तस्करी द्वारा विदेश भेज दी जाती हैं।

वास्तव में इन सबके पीछे हमारी विरासतों तथा इतिहास के प्रति एक नकारात्मक दृष्टिकोण ज़िम्मेदार है। जिसके कारण भारतीय अपने इतिहास में रुचि नहीं लेते, बल्कि मिथक और इतिहास को एक ही मान लेते हैं। यही कारण है कि फासीवादियों का यह तर्क बहुत जल्दी उनके गले उतर जाता है कि आज की समस्याओं के पीछे मध्यकालीन मुग़लशासक ज़िम्मेदार हैं।

बाबरी मस्ज़िद विध्वंस से लेकर वर्तमान में काशी और मथुरा के विवादों के पीछे भी यही प्रवृत्ति देखी जा सकती है। अगर एक संस्कृति ने दूसरी संस्कृति का विनाश किया है, तो संस्कृतीकरण  की भी प्रक्रिया हुई है। अगर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने कुछ हद तक हिन्दू प्रतीकों को नष्ट किया, तो भारी पैमाने पर हिन्दूधर्मावलंबियों ने बौद्धधर्म के मठों-स्तूपों को नष्ट किया, यह एक ऐतिहासिक गति है। इतिहास की नियति का प्रतिकार वर्तमान समय में नहीं किया जा सकता। इसी इतिहासबोध की हमें आवश्यकता है।

(स्वदेश सिन्हा की रिपोर्ट।)

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