ग्राउंड रिपोर्ट: बस्तर के आदिवासी आखिर क्यों अनिश्चितकालीन धरना-प्रदर्शन के लिए हैं मजबूर?

बस्तर। आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लंबे समय से चली आ रही है। ऐसी ही एक लड़ाई मौजूदा समय में छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में आदिवासी लड़ रहे हैं। यहां गांव में नये सुरक्षा बल कैंप स्थापित करने और सड़क चौड़ी करने के खिलाफ लोग अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए हैं। लगभग 115 दिनों से अधिक समय से चल रहे इस आंदोलन में 33 गांवों के लोगों ने हिस्सा लिया है।

‘मढोनार जन आंदोलन’ के बैनर तले चल रहे इस आंदोलन में सैकड़ों लोग शामिल हुए हैं। जिसमें पुरुष-महिला, बच्चे-बूढ़े हैं। इनका सिर्फ एक ही मकसद है, अपनी संस्कृति और जंगल को बचाना।

नारायणपुर में खनिज संपदा का भंडार होने के कारण यहां लोगों के आक्रोश के बीच रावघाट और छोटेडोंगर में माइन्स (खदान) खोली गयी है। इसलिए लोगों के बीच भय का माहौल है कि अगर सड़क का चौड़ीकरण हो गया तो यहां भी माइन्स खोली जाएंगी।

पहाड़ियों और जंगल के बीच नारायणपुर से छोटेडोंगर तक की दूरी लगभग 40 किलोमीटर है। यह वह रास्ता है जहां आयरन से भरे ट्रक आदिवासी इलाकों से निकलकर शहर की तरफ जाते हैं। आमजनों के लिए छोटेडोंगर तक ही बस की सुविधा है। यहां से बाईं ओर जा रहा रास्ता मढोनार का है। जहां जाने के लिए आपको निजी वाहन का सहारा लेना पड़ता है।

115 दिन से चल रहा है धरना-प्रदर्शन

इसी जगह पर पिछले 115 दिनों से लोग अपनी दो सूत्री मांगों को लेकर धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। छोटेडोंगर से मढोनार की दूरी लगभग आठ किलोमीटर है। चारों तरफ जंगल और पहाड़ियों से घिरी इस जगह में लोग सीजन का काम-धंधा छोड़कर अपनी मांगों को लेकर बैठे हैं।

इस धरना स्थल के एंट्री प्वांइट में लकड़ी से बैरिकेडिंग की गई है। जहां साफ-साफ लिखा है- ‘अनिश्चितकालीन धरना प्रदर्शन’। इसी जगह पर एक शख्स बैठा रहता है जो आने वाले लोगों से उनकी जानकारी पूछता है।

‘अनिश्चितकालीन धरना-प्रदर्शन का बैनर

लगातार होती बारिश से बचने के लिए आंदोलनरत लोग यहां झोपड़ी बनाकर रह रहे हैं। जिसमें आदिवासी अपने परंपरागत सांस्कृतिक हथियार तीर धनुष के अलावा अन्य औजारों के साथ बैठे हैं। किसान आंदोलन की ही तरह यहां भी खाने-पीने-रहने की व्यवस्था की गई है। ताकि किसी भी परिस्थिति में आंदोलन कमजोर ना हो।

बस्तर में इस वक्त तेंदुपत्ता, इमली और महुआ को सुखाने और बेचने का सीजन चल रहा है। ऐसे में लोग समय-समय पर अपना काम भी कर रहे हैं, साथ ही आंदोलन में भी शामिल हो रहे हैं।

ग्राम सभा की बिना अनुमति के नया कैंप खोलने के तैयारी

बिजेंद्र कुर्राम 22 साल के हैं और खेती किसानी करते हैं। वह उन लोगों में शामिल हैं जो आंदोलन का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इस आंदोलन के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि “यह जगह पांचवीं अनुसूची के अंर्तगत आता है। फिर भी ग्राम सभा की अनुमति के बिना ही यहां पुलिस कैंप खोलने और सड़क के चौड़ीकरण के प्रस्ताव को सरकार ने पास कर दिया है। जिसके कारण हम लंबे समय से यहां धरना प्रदर्शन कर रहे हैं।”

बिजेंद्र बताते हैं कि “जनवरी से इस आंदोलन में 33 गांव और 11 पंचायत के लोग शामिल हुए हैं, जिसमें हम सबकी दो सूत्री मांग है। जिसे सरकार मान नहीं रही है। इसके लिए हमने राज्य के आला-अधिकारियों और प्रशासन के अलावा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को पत्र लिखा है, लेकिन किसी का कोई जवाब नहीं आया है।

उन्होंने बताया कि “एक तो सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं आया, दूसरा हमारे ही लोगों को पुलिस द्वारा परेशान किया जा रहा है। पुलिस द्वारा हमारे लोगों पर ही कार्रवाई की गई है।”

इस आंदोलन में कई युवा हिस्सा ले रहे हैं, अस्सी राम सलाम उनमें से एक हैं। वो बीजापुर से यहां शामिल होने के लिए आए हैं। उनका कहना है कि “अभी बात सिर्फ सड़क चौड़ीकरण और नए कैंप की है। लेकिन इसके पीछे का मकसद आदिवासियों के जंगल और जमीन पर कब्जा करना है।”

धरने पर बैठे आदिवासी

नक्सली घोषित किए जाने का डर

अस्सी राम सलाम करीब 26 साल के हैं और आंदोलन के पहले दिन से ही यहां आए हुए हैं। उन्हें डर है कि अगर यहां नया कैंप और सड़क का चौड़ीकरण हो जाता है तो आदिवासियों का जंगल और जमीन से हक छीन लिया जाएगा, जैसे बाकी जगहों पर हो रहा है।

वह कहते हैं कि “इस तरह से हमारी संस्कृति को नुकसान पहुंचाया जाएगा। फिलहाल हम लोग अपने जंगलों की रक्षा कर रहे हैं, बाद में पुलिस हमारी रक्षा के नाम पर हमें प्रताड़ित करेगी। साथ ही हमारे जंगलों को भी खत्म कर देगी।”

अस्सी राम के अनुसार “अगर यहां पुलिस कैंप बन जाता है तो उनकी स्वतंत्रता पूरी तरह से खत्म हो जाएगी।” वह कहते हैं कि “पुलिस गांव में गश्त के नाम पर आएगी और फिर आदिवासियों को फर्जी मामलों में फंसाकर थाने में बुलाना, जेल भेजना, पिटाई करना, नक्सली करारा देकर एनकाउंटर कर देने जैसी घटनाएं होंगी। 

इन सब बातों के बीच बिजेंद्र और अस्सी एक स्वर में कहते हैं कि “इस बार सरकार को हमारी बात माननी पड़ेगी। अगर हमारी मांग नहीं मानी जाती तो हम लोग अनिश्चिकालीन धरना-प्रदर्शन पर बैठे रहेंगे।

सीजन में नहीं कर पा रहे काम

इस आंदोलन में अलग अलग-अलग तरीके से लोग सहयोग दे रहे हैं, ताकि आदिवासी संस्कृति के साथ-साथ जल, जंगल, जमीन को बचाया जा सके। ऐसे ही एक शख्स हैं मोतीराम जो 10 किलोमीटर दूर अदेरबेढ़ा गांव से आए हैं। मोतीराम पहले दिन से ही इस आंदोलन में शामिल हैं। उनके तीन बच्चे हैं, जो पढ़ते हैं।

मोतीराम कहते हैं कि “मैं खेती बाड़ी करता हूं, अभी सीजन चल रहा है तेंदूपत्ते का, इसके बाद धान रोपने का समय आ जाएगा। यहां रहने के कारण बहुत नुकसान हो रहा है, लेकिन मैं इस नुकसान को बर्दास्त कर सकता हूं।”

वह कहते हैं कि “मैं लगभग हर 15 दिन पर अपने घर जाता हूं या उससे पहले भी चला जाता हूं जब यहां राशन खत्म हो जाता है। खाना भी हमारे लिए जरूरी है, अगर खाएंगे नहीं तो आंदोलन कैसे करेंगे। इसलिए मैं राशन खत्म होने पर घर जाता हूं और अपने बच्चों से भी मिल लेता हूं, फिर जब लौटता हूं तो सामान भी ले आता हूं।”

प्रदर्शन स्थल पर बनी झोपड़ी में बैठे आंदोलनकारी

मोतीराम का मानना है कि “अभी वह जैसे रह रहे हैं, आदिवासी उसी स्थिति में खुश हैं। उन्हें चौड़ी सड़क की कोई जरूरत नहीं है।” वह कहते हैं कि “फिलहाल जो सड़क है वह हमारे ग्रामवासियों के लिए काफी है। हमें रोड़ और कैंप नहीं चाहिए।”

पांचवीं अनुसूची को लेकर लोग कर रहे सवाल

छत्तीसगढ़ राज्य के लगभग आधे भूभाग में पांचवीं अनुसूची लागू है। जिसके कारण बस्तर संभाग में जल, जंगल, जमीन पर लोगों का अधिकार है। लेकिन आंदोलन में बैठे लोगों को लगता है कि उन्हें यह सुविधा नहीं मिल रही है।

गंगूराम मंडावी 55 साल के हैं। राजनीतिक पार्टियों के बारे में बात करने पर वह लाल-पीले हो जाते हैं। वह कहते हैं कि “भूपेश बघेल सरकार ने हमारे साथ धोखा किया है। जब हमारे क्षेत्र में पांचवीं अनुसूची और पेसा कानून लागू है तो ग्राम सभा की बिना अनुमति के सरकार ने कैंप खोलने की अनुमित कैसे दे दी?”

बस्तर संभाग के ज्यादातर लोग खेती-बाड़ी पर निर्भर हैं। हर सीजन के हिसाब से लोग खेती-बाड़ी करते हैं और अपना जीवन यापन करते हैं। आंदोलन के इस दौर में महुआ, इमली, तेंदूपत्ते का सीजन है। जो इस क्षेत्र के लोगों की आय का स्रोत है।

महिलाएं भी आंदोलन में शामिल

आंदोलन को मजबूती देने के लिए महिलाएं भी कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हैं। आंदोलन में शामिल हुई ज्यादातर महिलाओं को हिंदी भाषा समझ में नहीं आती है। महिलाएं स्थानीय बोली गोंडी बोलती हैं। लचनी वडे को हिंदी नहीं आती। वो अपने एक साल के बच्चे के साथ आंदोलन को अपना समर्थन देने आई हैं। वह अपने बच्चे को दूध पिलाती हुई हमसे बात करने की कोशिश करती हैं।

लचनी वडे कहती हैं कि “मैं और मेरे पति दोनों ही इस आंदोलन का हिस्सा हैं। कभी पति यहां रहते हैं तो कभी मैं। हम दोनों घर और खेती-बाड़ी के काम के साथ-साथ आंदोलन में भी हिस्सा ले रहे हैं। क्योंकि आंदोलन हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी है।”

अपने बच्चे के साथ लचनी वडे

गोप्पे कष्यप उम्रदराज महिला हैं जो आंदोलन के शुरुआती दिनों से ही इसका हिस्सा हैं। उनके घर में सात सदस्य हैं। जिनका मुख्य पेशा खेती-किसानी है। इसी पर इनका पूरा परिवार निर्भर है। गोप्पे को इस वक्त अपनी आय से ज्यादा नए पुलिस कैंप लगने की चिंता है।

गोप्पे कहती हैं कि “जैसे ही यहां सुरक्षाबलों के कैंप की शुरुआत होगी, वैसे ही हमारी स्वतंत्रता खत्म हो जाएगी। खासकर महिलाओं के लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा। हम आज भी जल-जंगल-जमीन पर निर्भर है। यहां तक आज भी महिलाएं नहाने के लिए नदी, नाले, तालाब का सहारा लेती हैं।

वो आगे कहती हैं कि “कैंप शुरू हो जाने के बाद यहां चारों तरफ पुलिस का पहरा शुरू हो जाएगा। जिसके कारण हमें अपने कामों के लिए भी परेशानी होगी। यहां तक की पूछताछ के नाम पर महिलाओं को भी नक्सली घोषित कर दिया जाएगा। आज सड़क चौड़ीकरण की बात है, कल यहां खदान खोल दिए जाएंगे। जिससे हमारे जंगल और जमीन को पूरी तरह से नष्ट कर दिया जाएगा। मेरा सरकार से अनुरोध है कि हमारा जंगल हमारे पास ही रहने दिया जाए। हम जंगल के बिना और जंगल हमारे बिना अधूरे हैं।”

सीजन में काम करने से ज्यादा आंदोलन जरूरी

समलो मंडावी की उम्र लगभग पचास साल होगी। वह लगभग सात किलोमीटर दूर से इस आंदोलन में हिस्सा लेने आई हैं। समलो ने शादी नहीं की है। वह कहती हैं कि “जहां तक परेशानी की बात है, यह सच है कि मुझे बहुत परेशानी है, यह सीजन काम करने का है, इस वक्त पूरा का पूरा गांव जंगल से तेंदूपत्ता लेने जा रहा है, इससे पहले लोगों ने महुआ इकट्ठा किया है। लेकिन मैं नहीं कर पा रही हूं, क्योंकि मुझे लगता है सीजन में काम करने से ज्यादा जरूरी है अपने जंगल को बचाना। अगर जंगल बचा रहेगा तो हमारा अस्तित्व बचा रहेगा। इस वक्त जरूरी है कि हम अपनी संस्कृति को बचाएं और मैं वही कर रही हूं।”

जल जंगल जमीन को बचाने के लिए पहले भी नारायणपुर जिले में लोगों ने आंदोलन किया था। जिसमें आसपास के लोगों ने भी हिस्सा लिया था। इन सबके बीच रावघाट और छोटेडोंगर में माइऩ्स खोली गईं।

इस बार भी लोग अनिश्चितकालीन धरने-प्रदर्शन पर बैठे हैं। जिसमें कई आला अधिकारियों के साथ-साथ पीएम और सीएम को भी पत्र लिखा गया है। जनचौक ने इस संबंध में नारायणपुर के डीएम अजीत वसंत से बातचीत की। डीएम अजीत वसंत ने बताया कि “नारायणपुर में लोग अलग-अलग चार जगहों पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं ताकि वहां नया कैंप न खोला जाए। यह एक लंबी प्रक्रिया है। सारी चीजें सरकार के हाथ में हैं। जो सरकार को सही लगेगा, संवैधानिक मूल्यों के साथ वही होगा। यह जिला स्तर का काम नहीं है।”

आदिवासियों की झोपड़ियां

बस्तर आयरन का तीसरा सबसे बड़ा क्षेत्र

छत्तीसगढ़ राज्य उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम चारों दिशाओं में खनिज संपदाओं से भरा हुआ है। जिसके कारण सरकारी और प्राइवेट कंपनियों की इस पर नजर रहती है। पिछले साल हसदेव अरण्य का मामला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जिसके लिए छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक आंदोलन किए गए हैं।

मौजूदा समय में छत्तीसगढ़ आयरन (लौह अयस्क) के भंडार का देश का तीसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है। दक्षिण छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में बड़ी मात्रा में आयरन की पहाड़ियां हैं। दंतेवाड़ा, नारायणपुर, बस्तर, कांकेर, बालोद, राजनाथगांव एवं कबीरधाम जिले में यह पाया जाता है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार पूरे राज्य में आयरन का 4031 मिलियन टन भंडार है। जो पूरे देश का 19.59 प्रतिशत है। उत्पादन की दृष्टि से यह देश में दूसरे स्थान पर है।

यहां हेमेटाइट किस्म का आयरन पाया जाता है, जो दंतेवाडा के बैलाडीला पहाड़ी, नारायणपुर के रावघाट, छोटेडोंगर, भानुप्रतापुर तहसील के चारगांव, कोंडापाराव, हाहालद्दी पहाड़ी में पाया जाता है।

नारायणपुर जिले की अबूझमाड़ की पहाड़ी के पूर्वी दिशा में रावघाट पहाड़ी स्थित है। जिसके छः निक्षेप हैं। जिसमें से एक छोटेडोंगर है। जहां लोग अपनी मांगों को लेकर अनिश्चितकालीन धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। इन पहाड़ियों में आयरन का संचित भंडार 732 मिलियन टन है।

(छत्तीसगढ़ के बस्तर से पूनम मसीह की ग्राउंड रिपोर्ट)

पूनम मसीह
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पूनम मसीह