चुनाव में कल्पित शुद्धतावाद की अपेक्षा क्यों?

बिहार चुनाव में मुख्यतः दो गठबंधन हैं। राजद, कांग्रेस और वामदलों वाला महागठबंधन और सत्ता में मौजूद नीतीश कुमार की जदयू और भाजपा के नेतृत्व वाला राजग। एक तीसरा कोण बनाया गया है केंद्र में राजग का ही हिस्सा दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान की लोजपा का जिसके बारे में राजनीति का अनाड़ी भी अब यह समझ चुका है कि वह नीतीश कुमार को अन्ततः रसातल में पहुंचाने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा प्रायोजित एक मोहरा हैं। चुनाव नतीजों के बाद चिराग की क्या भूमिका रहती है यह भी अंततः उसी वक्त तय होना है! लेकिन इस टिप्पणी  का मुख्य मक़सद महागठबंधन और उसमें शामिल वामपंथी दलों और खासकर भाकपा माले को लेकर है।

बहुत से शुद्धतावादी लिबरल्स और कुछ किताबी और अति क्रांतिकारी मार्क्सवादी मित्रों की राजद के साथ माले के गठबंधन पर तंज करती हुई टिप्पणियां देखने को मिली हैं। उनकी वैचारिक असहमति के अलावा मुख्य तंज जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर की हत्या को लेकर है, जो राजद के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन ने कराई थी। बेशक इस दृष्टि से माले के राजग के साथ जाने पर सवाल उठाए ही जा सकते हैं। पर राजनीतिक निर्वात में जीने वाले ऐसे मित्रों से एक सवाल है कि अगर आप संसदीय राजनीति में होते हैं और जब देश का संविधान और लोकतंत्र ही खतरे में पड़ चुका हो, ऐसे में आपकी भूमिका क्या होती है?

क्या बिना किसी ठोस और व्यापक जमीनी राजनीतिक सक्रियता के आज की परिस्थिति में एक मनोगत और कल्पित शुद्धतावादी विकल्प की अपेक्षा करना एक अराजनीतिक नजरिया नहीं कहा जाएगा? इस समय जब देश के सामने संविधान और लोकतंत्र की हत्या पर उतारू सांप्रदायिक-फासीवादी ताकतों का खतरा मंडरा रहा हो और देश के सार्वजनिक उपक्रमों को कुछ चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों के हवाले कर देने का अभियान चल रहा हो, ऐसे में किसी शुद्धतावादी विकल्प की प्रतीक्षा में चुपचाप बैठे रहना या ऐसी शक्तियों पर ही तंज करना जो अपने सीमित संशाधनों में ही सही, लोकतंत्र और संविधान बचाने की लड़ाई लड़ रही हों, क्या कोई परिपक्व राजनीतिक नजरिया कहा जाएगा? इस नजरिए से आखिर हम किसको मदद पहुंचाएंगे!

क्या यह उन्हीं लोकतंत्र विरोधी विभाजनकारी ताकतों की मदद नहीं होगी, जिन्होंने कोविड 19 के समय देश के लाखों नागरिकों को जानलेवा गर्मी में सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया था? क्या यह खुद को समाजवादी और सुशासन का पाखंड रचने वाले नीतीश कुमार की ही कृपा से राज्यसभा के उपसभापति बने हरिवंश सिंह के उस संविधान की हत्या करने वाले कदम के साथ खड़ा होना नहीं होगा जो उन्होंने न्यूनतम संसदीय प्रक्रियाओं को ताख पर रख कर किसानों का गला घोंटने वाले बिल को पास करने के समय किया था??

बेशक राजद कोई पवित्र और उदात्त जनतांत्रिक मूल्यों वाली पार्टी नहीं रही है, यह सभी को पता है, लेकिन राजनीति का तकाज़ा यह भी है कि जब देश के सामने बड़े खतरे मौजूद हों तो ऐसे समय में वास्तविक जनतांत्रिक ताकतों को भी तदर्थ तौर पर रणनीतिक परिपक्वता के लिहाज़ से बहुत से छोटे अंतर्विरोधों को स्थगित करते हुए बड़े दुश्मन के खिलाफ अंतर्विरोधी ताकतों से भी हाथ मिलाना पड़ता है। आज की राजनीतिक परिस्थिति को देखते हुए राजद और वामदलों खासकर माले के गठबंधन को भी इसी रूप में देखा जाना चाहिए।

बिहार में वैसे भी वामदलों की स्थिति फ़िलहाल अपने सहयोगी बड़े दल पर सिर्फ नकेल की ही रहने वाली है। बेशक माले हो या सीपीआई-सीपीएम, अगर अपनी इस भूमिका की दृष्टि से भविष्य में किसी विचलन का शिकार होते हैं तो वे निर्मम आलोचना का पात्र होंगे ही! लेकिन विभाजनकारी और विकास का ढोल पीटने वाली छद्म ताकतों से लोकतंत्र और संविधान बचाने की आज की लड़ाई में बिहार के पास महागठबंधन के अलावा कोई और तात्कालिक विकल्प नहीं है और संसदीय राजनीति में वैसे भी निरंकुश और भ्रष्ट सरकारों का बदलते रहना संसदीय लोकतंत्र के ही जीवित रहने का प्रमाण होता है। यह तो नहीं कहा जा रहा कि लोकतंत्र का यह नियम राजद या किसी अन्य दल पर लागू नहीं होगा!

लोकतंत्र की नकेल तो अंततः जनता के ही हाथ में रहनी चाहिए, इसलिए ये ठोस और फलदाई राजनीतिक निर्णय का वक्त है, कल्पित शुद्धतावाद और राजनीतिक निर्वात में रहने का नहीं! और फ़िलहाल की स्थिति में बिहार में महागठबंधन के अलावा कोई और विकल्प नहीं! और यह भी न भूलें कि उदासीनता और पलायन जनविरोधी और निरंकुश तंत्र को ही मजबूत करता है, इसलिए विविध कारणों से बिहार के इस ऐतिहासिक चुनाव में बदलाव ही एकमात्र विकल्प है।

  • दया शंकर राय

(लेखक एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के पूर्व संपादक हैं।)

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