लोग भूखों मर रहे हैं! सरकार फिर भी नहीं खोल रही है अनाज से भरे भंडारों का दरवाजा

(सरकारी गोदामों के दरवाज़े खोलने में इतनी दिक्कत क्यों है? मौजूदा हाल में सरकार को क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की परवाह करनी चाहिए या देश की ग़रीब जनता की? भारत में अनाज का स्टॉक इतना ज़्यादा पहले कभी नहीं रहा, फिर भी ग़रीबों पर भुखमरी का ख़तरा क्यों मंडरा रहा है। पेंच कहाँ है? जाने माने अर्थशास्त्री ज़्याँ द्रेज के लेख का अनुवाद हिंदी के उन पाठकों के लिए जिन्हें पठनीय सामग्री नहीं मिलती-राजेश प्रियदर्शी)

आपको कैसा महसूस होगा कि जब परिवार के सबसे कमज़ोर सदस्य को भूखा छोड़ दिया जाए जबकि घर भरा हो? भारत में यही हो रहा है।

सबको पता है कि देश में खाने का विशाल भंडार है, और उसके एक हिस्से का इस्तेमाल उन लोगों का पेट भरने के लिए हो सकता है जो कोरोना संकट की वजह से भूख से जूझ रहे हैं। स्थिति कितनी भयावह है यह कई लोग समझ नहीं पा रहे हैं।

अब से तकरीबन बीसेक साल पहले पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्ज़ी दी थी कि देश के विशाल अनाज भंडारों का इस्तेमाल सार्वजनिक कामों (ग्रामीण सड़क निर्माण वगैरह) और सामाजिक सुरक्षा स्कीमों को चलाने के लिए किया जाए। उस जनहित याचिका से ही अहम खाद्य सुरक्षा योजनाओं का रास्ता खुला, जैसे मिड-डे मील, जन वितरण प्रणाली में सुधार और आगे चलकर आया राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (एनएफ़एसए).

खाद्य सामग्री पर आधारित स्कीमों के ज़रिए कुल मिलाकर देश भर में तकरीबन 5-6 करोड़ टन चावल और गेहूँ हर साल दिया जाता है लेकिन इसके बावजूद भंडार भरा रहता है क्योंकि फूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (एफ़सीआई) अनाज की खरीद बढ़ाता ही रहा है।

नई सदी की शुरुआत में जब पीयूसीएल ने याचिका दायर की थी तो उसके भंडार में पाँच करोड़ टन खाद्यान्न था जो उस समय का रिकॉर्ड था। उसके बाद से एफ़ससीआई हर साल अपनी खरीद बढ़ता ही गया है, और न सिर्फ़ बढ़ाता गया है बल्कि बहुत तेज़ी से बढ़ाता गया है। पिछले साल जून में (इस महीने में भंडार सबसे ज़्यादा भरा होता है) तो खाद्य भंडार में आठ करोड़ टन से भी अधिक खाद्यान्न था, जो बफ़र स्टॉक (आपातकालीन भंडार) के मानदंडों से तीन गुना ज़्यादा था।

अब इस साल की बात करें तो एफ़सीआई के गोदामों में 7.7 करोड़ टन अनाज है और अभी रबी की फसल कटी भी नहीं है, रबी की फसल कटने के बाद 2 करोड़ टन और अनाज गोदाम में पहुँचेगा। कुल मिलाकर, बात ये है कि भारत के पास इतना अनाज पहले कभी नहीं रहा है।

और यही समय है जब लाखों-लाख लोगों के ऊपर भुखमरी का साया मंडराने वाला है क्योंकि उनका रोज़गार लॉकडाउन की वजह से छिन गया है।

जन वितरण प्रणाली के तहत अगले तीन महीने तक दोगुना राशन देने की घोषणा करके वित्त मंत्री ने कोई उपकार नहीं किया है। दरअसल, ये करना तो ज़रूरी था क्योंकि एफ़सीआई ठसाठस भरे गोदाम में रबी कटाई के बाद आने वाले अनाज के लिए जगह नहीं बन पाती, अगर पुराना अनाज नहीं निकाला जाता।

फिर क्या दिक्कत है? सारी मुश्किल फूड सब्सिडी का हिसाब रखने से जुड़ी है. एफ़सीआई न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज ख़रीदता है, फिर राशन वाली दरों पर मुहैया कराता है, इसमें रख-रखाव और ट्रांसपोर्टेशन का खर्च होता है, यानी कुल मिलाकर एफ़सीआई को हर साल घाटा होता है। जब तक स्टॉक रिलीज़ नहीं होता तब तक केंद्र सरकार के हिसाब-किताब में यह घाटा दर्ज नहीं होता।

यही वजह है कि वित्त मंत्री ने रिलीफ़ पैकेज के लिए 40 हज़ार करोड़ रुपए का प्रावधान किया है ताकि जन वितरण प्रणाली में अतिरिक्त अनाज आ सके। अब इसे ठीक से समझें, आर्थिक स्तर पर अतिरिक्त अनाज जारी करने का कोई अतिरिक्त ख़र्च नहीं है, लेकिन हिसाब-किताब की बही में यह काफ़ी महंगा दिखता है।

यही पेंच है जो गरीबों के लिए अनाज जारी करने को मुश्किल काम बना देता है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियाँ वित्तीय घाटे पर नज़र रखती हैं, लेकिन लोगों के खाने-पीने की उन्हें परवाह नहीं होती।

अब समस्या को ज़रा राज्यों के नज़रिए से देखें, मिसाल के तौर पर झारखंड, जहाँ बहुत सारे लोग जन वितरण प्रणाली से बाहर हैं। राज्य में करीब सात लाख परिवारों के राशन कार्ड के आवेदन लटके पड़े हैं जिनमें बहुत सारे बहुत गरीब लोग हैं। केंद्र सरकार की खाद्य सहायता में से उन वंचित लोगों को कुछ नहीं मिलेगा। जिन लोगों के पास राशन कार्ड नहीं हैं, अगर ऐसे गरीबों को झारखंड सरकार अनाज देना चाहे तो उसे एफ़सीआई से बाज़ार भाव से अनाज खरीदना होगा, जो सस्ता नहीं है।

अगर झारखंड के सात लाख परिवारों को छह महीने के लिए इमरजेंसी राशन कार्ड दिया जाए, और उन्हें खाद्य सुरक्षा कानून के मानकों के अनुरूप प्रति व्यक्ति पाँच किलो अनाज प्रति माह दिया जाए तो इसमें एक लाख टन अनाज लगेगा। यह एफ़सीआई के गोदाम में रखे स्टॉक के एक प्रतिशत अनाज का दसवाँ हिस्सा होगा. इससे गोदाम पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा लेकिन भारत के एक गरीब राज्य के लोगों को भूख से बचाने में बहुत बड़ी मदद हो जाएगी।

केंद्र सरकार को गोदाम से और अनाज मुफ़्त में (या फिर बहुत कम कीमत में) जारी करना चाहिए. इस अतिरिक्त अनाज से न सिर्फ़ गरीब परिवारों का पेट भर सकेगा बल्कि जन वितरण प्रणाली के लाभ से वंचित रह गए लोगों का भी भला होगा। साथ ही, यह अनाज जनता रसोइयों के भी काम आ सकेगा। लॉकडाउन की वजह से अनाज की कीमतों में पिछले दिनों जो बढ़ोतरी देखी जा रही है, वह भी इस तरह से रुक सकती है।

सरकार को अधिक अनाज गोदाम से निकालने पर विचार करना चाहिए क्योंकि वित्त मंत्री के सुझाए इमरजेंसी कैश ट्रांसफ़र की बहुत सीमाएँ हैं। एक तो यही कि रकम बहुत कम है, मिसाल के तौर पर, महिलाओं के खाते में प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत तीन महीने तक हर महीने पाँच सौ रुपए देना। इसमें भी वंचित लोगों की तादाद काफ़ी ज़्यादा होगी जिन्हें किसी न किसी वजह से यह पैसा नहीं मिल पाएगा। प्रधानमंत्री जन धन योजना के चल रहे खाते बहुत सारे परिवारों के पास नहीं हैं। इनके बारे में बहुत आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं।

ऐसी संकट की घड़ी में इतने बड़े पैमाने पर नकदी पहुँचाना चुनौती भरा काम है, बहुत सारे ग्रामीण इलाकों में बैंक नहीं हैं, हैं भी तो सब जगह नहीं हैं। इसके अलावा बैंकों में पैसे के लेन-देन के लिए अँगूठा लगाना पड़ता है जो अभी सुरक्षित नहीं है। ग्रामीण बैंकों में भीड़ बढ़ने का ख़तरा भी है।

पैसे के ट्रांसफ़र में होने वाली मामूली गलतियाँ ग़रीबों के लिए बहुत भारी पड़ेंगी, जिनके खाते में पैसे नहीं आएँगे उन्हें बहुत भटकना पड़ सकता है, पैसे खर्च करके पता लगाने के लिए बैंक के चक्कर लगाने पड़ सकते हैं। किसी को कहा जाएगा कि काउंटर बंद है, किसी को कहा जाएगा बायोमेट्रिक वेरिफ़िकेशन नहीं हो पा रहा है वगैरह… मैं समस्या की कल्पना या उसका आविष्कार नहीं कर रहा हूँ। मैंने यह सब राँची के पास नगड़ी ब्लॉक में देखा है, जहाँ झारखंड सरकार ने जन वितरण प्रणाली की जगह डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर चलाने की कोशिश की थी।

अगले कुछ महीनों में राशन का वितरण ग़रीब लोगों की जान बचाने में अहम भूमिका निभाएगा। देश के ज़्यादातर गांवों में जन वितरण प्रणाली और मिड डे मील की व्यवस्था मौजूद है, सिर्फ़ उसे बेहतर बनाना है। उसे बेहतर बनाने के लिए केंद्र सरकार को अपने गोदाम खोलने होंगे, और राज्यों को भरपूर अनाज भेजना होगा। अगर इसकी वजह से वित्तीय घाटा, वह भी अजीब तरह के हिसाब किताब की वजह से, थोड़ा बढ़ता है तो उसकी परवाह नहीं करनी चाहिए।

(अर्थशास्त्री और एक्टिविस्ट ज्यां द्रेज के अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख का हिंदी अनुवाद पत्रकार राजेश प्रियदर्शी ने किया है।)

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