भारत में क्यों विफल हुई वाम लोकतांत्रिक ताकतें? रास्ता किधर है?

किसी ने सोचा तक न था कि यह देश धर्म के नाम पर इस कदर विभाजित हो जाएगा। सारे मुद्दे गौण हो जाएंगे और एक फासिस्ट ताकत पूरे देश पर काबिज हो जाएगी।

आजादी के बाद से ही एक बेहतर समाज के निर्माण का सपना लेकर तरह-तरह की कम्युनिस्ट, समाजवादी और उदार लोकतंत्रवादी ताकतें अपनी तरह से राजनीति करती रहीं। उन्हें जनता पर भरोसा था कि वह रोजी रोटी की लड़ाई को प्राथमिक समझती होगी। इसलिये सभी धाराएं अपने अपने खास वैचारिक फ्रेम के तहत आगे बढ़ने का प्रयास करती रहीं।इस प्रक्रिया में उनमें विभाजन दर विभाजन होता चला गया।

दूसरी ओर, धर्म के नाम पर देश को विभाजित करने वाली ताकतों ने बेहद चालाकी से गोडसे को हिंदू समाज के एक हिस्से के दिल और दिमाग में बिठा दिया। खासतौर पर मुस्लिम समाज और आमतौर पर दलित आदिवासी पिछड़े वर्गों के खिलाफ नफरत पैदा करके एक फासिस्ट नरेटिव बनाने में सफलता पाई। इसमें पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से नफरत तथा सीमा पार आतंकवाद जैसे मामलों ने काफी मदद की। गुजरात दंगों तथा बाबरी विध्वंस जैसे प्रकरण ने फासिस्ट ताकतों की विचारधारा को फैलाने में बड़ी सफलता हासिल की।

दूसरी ओर वामपंथी, समाजवादी, लोकतांत्रिक ताकतों के भीतर लंबे अरसे से न तो कोई नया विचार पैदा हुआ, न कोई लोकप्रिय लीडरशिप आई। ना कोई साझा प्रयास हुआ। न ही फासीवाद के खतरे को समझने की कोई साझा कोशिश हुई।

रही सही कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी जो तमाम अफवाहों और झूठ को फैलाने में बीजेपी का हथियार बना। इसके उपयोग में भी वाम लोकतान्त्रिक ताकतें फिसड्डी रहीं। यहाँ तक कि जो स्वतंत्र बुद्धिजीवी अपने स्तर से सोशल मीडिया में वामपंथ या लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व करने की कोशिश करते रहे, उन्हें उपहास का पात्र समझा गया।

दूसरी ओर, सोशल मीडिया के साथ मुख्यधारा के मीडिया पर भी बीजेपी का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो गया। इस प्रक्रिया में कांग्रेस सहित अन्य अधिकांश पार्टियां पूरी तरह नेतृत्व विहीन, संकल्प विहीन, मुद्दा विहीन होती चली गईं।

फिलहाल देश पर सबसे बड़ा खतरा कारपोरेट पूंजी के साथ नौकरशाहों और फासिस्ट ताकतों का मजबूत गठबंधन है। कोई भी राजनीतिक लड़ाई इस कारपोरेट गठजोड़ को टारगेट करके ही संभव है। राक्षस की जान किसी तोते में होती है। भारतीय फासीवाद की जान कारपोरेट रूपी तोते में है।

इसलिए, देश की तमाम वाम समाजवादी लोकतांत्रिक लिबरल धाराएं अपने अन्य समस्त आग्रह को बनाए रखते हुए सिर्फ एक मुद्दे पर आम सहमति बनाकर अभियान शुरू करें। बड़ा बदलाव संभव है। यह मुद्दा है- कारपोरेट कंपनियों द्वारा सरकारी बैंकों की लूट का।

हाल के दिनों में एनपीए के मामले दस लाख करोड़ तक जा पहुंचे हैं। बड़ी राशि की कर्ज माफी की जा चुकी है। बैंक खोखले होते जा रहे हैं। आरबीआई का खजाना खाली हो गया।

एनपीए पर केंद्रीय सूचना आयोग तथा सुप्रीम कोर्ट में कई मामले चल रहे हैं। कई बैंक यूनियनों तथा बैंकों ने विलफुल डिफॉल्टर्स अथवा एनपीए की सूची जारी की है।

पिछले दिनों एक सूची में लगभग 6000 से ज्यादा एनपीए कंपनियों के नाम शामिल थे। NPA और विलफुल डिफॉल्टर का अर्थशास्त्र समझना मुश्किल नहीं है। कारपोरेट धंधेवाले लोग तरह-तरह की नई नई कंपनियां बनाकर उसके नाम पर लाखों करोड़ों रुपए सरकारी बैंकों से कर्ज़ लेते हैं। फिर जानबूझकर उन्हें दिवालिया करार देते हैं। कर्ज़ के पैसों की हेराफेरी करके बैंक को अपनी खोखली कंपनियां थमा देते हैं। कहते हैं कि ले जाओ इसे नीलाम कर लो।

सवाल यह है कि जिस एक डायरेक्टर ने एक कंपनी को डुबो दिया, उसे नई कंपनी के लिए नया कर्ज क्यों मिले? एक ही व्यक्ति की पांच कंपनियां दिवालिया हो गईं। उसी की पांच अन्य कंपनियां फल फूल रही हैं। वह मजे ले रहा है। यह कैसे संभव है?

इसलिए सब मिलकर निम्नलिखित मांग की जाए

1. एनपीए तथा विलफुल डिफॉल्टर वाली सभी कंपनियों और उनके डायरेक्टर्स की सूची सार्वजनिक की जाए।

2. इन कंपनियों के सभी डायरेक्टर्स के डायरेक्टर आईडेंटिफिकेशन नंबर (DIN) जब्त किए जाएं। इन्हें तब तक किसी भी नई कंपनी का डायरेक्टर न बनने दिया जाए, जब तक पुराना सारा कर्ज वापस न चुका दें।

3. तथाकथित दिवालिया कुछ बड़े नामों की सूची बनाकर उनका सामाजिक बहिष्कार हो। उनसे पूछा जाए कि उन पैसों का क्या किया?

पिछले दिनों पीएमसी बैंक घोटाला सामने आया। सिख समुदाय ने इसके सारे सिख डायरेक्टर्स का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। यही काम पूरा देश करे, तो कारपोरेट लूट के खिलाफ एक बड़ा अभियान शुरू हो सकता है।

यही कारपोरेट कंपनियां हैं, जो मीडिया को सत्ता का दलाल बना चुकी हैं। इसी कारपोरेट ने सत्ताधारी दल के नेताओं को अपने गुलाम के रूप में बदल दिया है। यही कारपोरेट ताकतें केंद्रीय सत्ता के माध्यम से पब्लिक सेक्टर को खोखला कर रही हैं। रेलवे और एयरपोर्ट का निजीकरण करा रही हैं। तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रमुख पदों पर बैठे लोगों को प्रलोभन के जरिए अपना दलाल बना चुकी हैं।

यह कारपोरेट ताकतें चाहती हैं कि देश में मॉब लिंचिंग हो। हिंदू मुस्लिम के झमेले बढ़ें। एनआरसी के नाम पर जनता में डर पैदा किया जाए। आम लोगों के सवालों को दफन कर दिया जाए।

यह कारपोरेट ताकतें ही हैं जिन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बिहार में बाढ़ से कितने लोग तबाह हैं। मुंबई में कितने पेड़ काटे गए या दलितों आदिवासियों का दमन करके उन्हें जल जंगल जमीन से किस तरह वंचित किया गया।

यही कारपोरेट है जो अमेरिका में हाउडी मोदी जैसे चमकदार आयोजन करके देश को गुमराह कर रहा है। यही कारपोरेट वर्ल्ड है जिसने यह माहौल बनाया कि 2 माह से कश्मीर अगर कैद है तो यह देश हित में है।

आज हम सांप्रदायिकता की बात करेंगे तो इसका फायदा फासिस्टों को ही होगा क्योंकि वे लोग जानते हैं कि सांप्रदायिक विभाजन का लाभ कैसे मिले। इसलिए फ़िलहाल एक पल के लिए कश्मीर की चिंता छोड़ दें। मॉब लिंचिंग की बात ना करें। एनआरसी को भी बर्दाश्त कर लें।

इसके बजाय हर मुद्दे पर कारपोरेट के बैंक लूट और एनपीए को टारगेट करें। एनआरसी से देश की जो आबादी भयभीत है, उन्हें कहें कि आप अपना नाम एनआरसी में डलवाने की चिंता बाद में करना। पहले यह मांग करें कि एनपीए वालों और विलफुल डिफॉल्टर्स के नाम NRC से हटाए जाएं।

देश को लूटने वाले लोगों के नाम देश की नागरिकता सूची से हटाए जाएं। एक बार जब ऐसी बात करेंगे तो एक नया नरेटिव क्रिएट होगा। अब तक जो भी आंदोलन के मुद्दे हैं, वे काफी डिफेंसिव, रक्षात्मक या अनुरोध करने वाले हैं। कोई भी मुद्दा ऐसा नहीं है जो फासिस्ट ताकतों से सीधे टकराता हो, उनमें कोई भय पैदा करता हो।

याद करें 1942 में महात्मा गांधी ने जब सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया या उसके पहले नमक आंदोलन शुरू किया, तो यह अंग्रेजों से सीधे टकराव के मुद्दे थे।

आज जबकि देश की असली ताकत कारपोरेट तत्वों के हाथ में आ चुकी है, तब आंदोलन के मुद्दे ऐसे हों, जो सीधे कारपोरेट के जनविरोधी हितों पर चोट करते हों। अब तक यह कारपोरेट जगत खुद को काफी सुरक्षित और चुनौती रहित समझता है। इन्हें लगता है कि उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। जो भी राजनीति होनी है, वह राजनीतिक दलों या समाज के वर्गों के बीच होनी है। कारपोरेट तो पूरी तरह अलग रहकर आनंद ले रहा है।

लेकिन जब जनता के निशाने पर यह कारपोरेट जगत खुद होगा, तब आज की राजनीति का पूरा खेल नए किस्म से खेलने की स्थिति तैयार होगी।उस वक्त जनता का नेतृत्व कौन सी राजनीतिक पार्टी करेगी, कौन से लोग सामने आएंगे, यह भविष्य बताएगा। फिलहाल तो सब मिलकर कारपोरेट जगत के इस मायाजाल का पर्दाफाश करें यही रास्ता है।

(यह लेख राजेश गुप्ता ने लिखा है।)

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