यूपी पंचायत चुनाव: नहीं मिली महिलाओं को स्वतंत्र जमीन

कल 14 अप्रैल को भारत एक कृतज्ञ राष्ट्र के तौर पर अपने संविधान निर्माता डॉक्टर भीम राव आम्बेडकर को उनकी 130वीं जयंती पर श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहा था। देश के किसान कल दिल्ली की सीमा पर आम्बेडकर जयंती को ‘संविधान दिवस’ और ‘किसान-बहुजन एकता’ के तौर पर मनाए।

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि भारत की स्त्रियां कल के दिन को कैसे मना रही थीं? गौरतलब है कि भारत में स्त्रीवाद की ठोस ज़मीन बाबा साहेब ने ही तैयार की । धर्म और पुरुष सत्ता की जकड़नों में सदियों से जकड़ी हिंदू स्त्रियों की मुक्ति के लिए बाबा साहेब भीम राव आम्बेडकर साल 1950 में ‘हिंदू कोड बिल’ लेकर आये, जो साल 1955 में आधा अधूरा ही पास हुआ। जबकि 1950 में बाबा साहेब द्वारा प्रस्तावित ‘हिन्दू कोड बिल’ में हिंदू महिलाओं के अधिकारों को लेकर  बुनियादी और ठोस प्रस्ताव रखे गये थे। प्रस्ताव में डॉ आम्बेडकर द्वारा यह साफ-साफ कहा गया था कि स्त्री-स्वाधीनता और उसकी निर्णय-क्षमता को बाधित करने में सबसे अमानवीय, बर्बर और क्रूर भूमिका धर्म की है  और आगे भी रहेगी, वह भी ऐसे समय में जब धर्म ही क़ानून था। डॉ आम्बेडकर द्वारा लाया गया हिंदू कोड ऐसा प्रस्ताव था जिसमें परिवार की निरंकुश जकड़बंदियों की स्पष्ट पहचान हुई। और जिसमें एक क्रांतिकारी  पहल के रूप में विवाह आयु की सीमा बढ़ाने, स्त्रियों को तलाक़ का अधिकार, मुआवज़ा और उत्तराधिकार का अधिकार जैसे प्रस्ताव रखे गये थे।

लेकिन तब से अब तक बहुत पानी बह चुका है। भारतीय स्त्रियों के लेकर डॉ आम्बेडकर ने जो ज़मीन तैयार की थी उस ज़मीन पर आज स्त्रियां कहां हैं इसका मूल्यांकरन करने का एक अवसर उत्तर प्रदेश मुहैया करवा रहा है। आज 15 अप्रैल को देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायतों के लिए होने वाले निर्वाचन के पहले चरण का मतदान है। जहाँ कुल 826 विकासखंड व 58,154 ग्राम पंचायतें, 821 क्षेत्र पंचायतें और 75 जिला पंचायतें हैं, जहां चार चरणों में चुनाव कराए जा रहे हैं।

 महिला उम्मीदवारों के पोस्टर बैनर में पतियों की तस्वीरें क्यों

उत्तर प्रदेश की कुल 58 ,194 ग्राम प्रधान पदों में से 9,793 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं। यानि कुल सीटों का 16.82 प्रतिशत । वहीं प्रदेश में ब्लॉक प्रमुख की 826 सीटों में से 113 सीटों पर महिलाओं का आरक्षण है। प्रयागराज जिले के पंचायत चुनाव में महिलाओं को 33 फीसदी का आरक्षण दिया गया है। यानि जिले भर में प्रधान के कुल 1540 पद हैं। इसमें से 517 पद केवल महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। इन पदों में से ओबीसी महिलाओं के लिए 145 और दलित महिलाओं के लिए 247 ग्राम पंचायतें आरक्षित हैं। जबकि जिले में कुल 23 ब्लॉक में से आठ ब्लॉक प्रमुख की सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। इसमें से चार महिलाएं समान कटेगरी की, दो एससी की और दो ओबीसी के लिए आरक्षित हैं।

उन सभी सीटों पर जहाँ महिलायें चुनाव लड़ रही हैं उनके पोस्टर बैनर में उनके पतियों की तस्वीरें हैं। महिला प्रत्याशियों के पोस्टर बैनर में पति की तस्वीरों का होना इस बात का स्पष्ट सबूत है कि ग्रामसभा के स्तर पर महिलाओं की अपनी पहचान आज भी कुछ नहीं है। उनकी पहचान उनके पतियों से जुड़ी हुई है। जबकि उन ग्राम पंचायतों में जहां पुरुष प्रत्याशी मैदान में हैं उनके पोस्टर बैनर में उनकी पत्नियों की तस्वीरें नहीं हैं। यानि ग्रामसभा के स्तर पर पुरुष की पहचान स्त्री से नहीं जुड़ी हुई है। जबकि स्त्री की पहचान पुरुष से जुड़ी हुई दिखती है, इसीलिए महिला प्रत्याशियों के पोस्टर बैनर पर उनके पतियों की तस्वीरें हैं जबकि पुरुष प्रत्याशियों के पोस्टर बैनर पर उनकी पत्नियों की तस्वीरें नहीं हैं।

 चुनाव प्रचार से नदारद महिलायें

प्रयागराज जिले में ग्राम प्रधान के लिए आज मतदान हो रहे हैं। इससे पहले अधिकांश गांवों में दलित पिछड़े समाजों के पुरुष पिछले चार दिन से दारू मुर्गा की पार्टी कर रहे हैं। तमाम ग्राम प्रधान और बीडीसी प्रत्याशी के परिजन घर घर दारू मुर्गा पहुंचा रहे हैं। इससे साफ है कि सभी उम्मीदवार सिर्फ़ पुरुष को अपना मतदाता मानकर चल रहे हैं। या फिर ये मान रहे हैं कि पुरुष जहां चाहेगा, जहां कहेगा स्त्रियां वहीं वोट देंगी।

वहीं महिला प्रत्याशी प्रचार करने के लिए भी अपने घरों से बाहर नहीं निकल रही हैं। सवर्ण समाज की स्त्रियां तो वैसे भी दहलीज नहीं लाँघती लेकिन जो श्रमशील महिलायें हैं जो खेतों और मनरेगा में काम करती हैं और खुद ग्राम प्रधान पद की प्रत्याशी हैं वो भी अपने प्रचार के लिए नहीं निकल रही हैं। 

अब हम सिर्फ़ एक ग्रामसभा सीट के जरिये ग्रामसभा की पुरुषवादी सामाजिक संरचना को समझने की कोशिश करेंगे। फूलपुर एक संसदीय सीट है। जहाँ से विजय लक्ष्मी पंडित दो बार सांसद रही हैं। फूलपुर की वर्तमान सांसद केसरी देवी पटेल भी एक महिला ही हैं। इतना ही नहीं फूलपुर ब्लॉक प्रमुख गीता सिंह भी महिला ही हैं। तो हम इसी फूलपुर के एक ग्राम सभा पाली की बात करेंगे। जहाँ ग्राम सभा और जिला पंचायत सदस्य दोनों पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। इस गांव के आस पास के तमाम गांवों में लगभग एक सी कहानी है। तो पाली ग्राम सभा में ग्राम प्रधान का पद ‘सामान्य महिला’ के लिए आरक्षित है। कुल 9 प्रत्याशी मैदान में हैं। 2 सवर्ण, 4 पिछड़ी और 3 दलित। सबसे पहले हमने सभी प्रत्याशिय़ों के पर्चों और पोस्टर्स को देखा। प्रचार के पर्चे, पोस्टर में सबसे पहली और सबसे बड़ी तस्वीरें पतियों के छपे हैं और उनके बाद व उनसे छोटी तस्वीरें ग्राम प्रधान पद की प्रत्याशी पत्नियों के हैं।

खुद प्रधान होने के बावजूद शिव कुमारी के पोस्टर में उनके प्रधानपति की तस्वीर

पाली ग्रामसभा में कुल 9 महिला प्रत्याशी मैदान में हैं। दो सवर्ण, 4 ओबीसी और 3 दलित। दलित समुदाय से आने वाली शिव कुमारी एक पंचवर्षीय़ कार्यकाल तक ग्राम प्रधान रह चुकी हैं। और एक बार फिर से उम्मीदवार के तौर पर मैदान में हैं। जबकि उनके पति अमरनाथ मौजूदा प्रधान हैं और कुल 3 बार ग्राम प्रधान निर्वाचित हुए हैं । बावजूद इसके कि शिव कुमारी खुद ग्राम प्रधान रही हैं उनके पोस्टर बैनर में उनसे पहले उनके प्रधान पति अमरनाथ की तस्वीर है। जोकि उनकी तस्वीर से बड़ी भी है। पांच साल ग्राम प्रधान रहने के बावजूद शिव कुमारी को गांव में कोई नहीं पहचानता। क्योंकि वो सिर्फ़ नाम के लिए ग्रम प्रधान बनी थीं सारा काम तो उनके पति संभालते थे, यहां तक कि उनकी साइन भी खुद से ही कर लेते थे। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से साइंस ग्रेजुएट अमरनाथ पूरी तरह से ब्राह्मणवादी हैं। और सारे ब्राह्मणवादी फार्मूले फॉलो करते हैं।

अब बात दो सामान्य वर्ग की महिलाओं की। पहली महिला प्रत्याशी अर्चना मिश्रा हैं। वो इलाहाबाद हाईकोर्ट में बतौर अधिवक्ता प्रैक्टिस करती हैं। अर्चना मिश्रा के पति अशोक मिश्रा के साथ घर घर जाकर प्रचार कर रही हैं। अशोक मिश्रा इफको में मुंशीगिरी करते हैं और आरएसएस के ब्राह्मण सभा से जुड़े हुए हैं। प्रचार में अमूमन अर्चना मिश्रा कम अशोक मिश्रा ज्यादा बोलते हैं। जबकि दूसरी सवर्ण महिला प्रत्याशी रीता सिंह हैं। रीता सिंह के प्रचार का जिम्मा उनके पत्रकार पति विजय बहादुर सिंह (मुन्ना) व एमआर बेटे अभिषेक सिंह के हाथों में है। रीता सिंह कहीं भी वोट मांगने के लिए नहीं गईं। उनके बेटे अभिषेक कहते हैं महिलाओं को बाहर निकलने की ज़रूरत ही क्या है। जब मैं उनसे कहता हूँ ग्राम प्रधान बनने के बाद तो निकलना ही होगा तो वो वर्तमान फूलपुर ब्लॉक प्रमुख गीता सिंह का नाम लेकर कहते हैं ब्लॉक प्रमुख होकर भी उन्होंने कभी ब्लॉक का मुंह नहीं देखा। सब मैनेज हो जाता है।

आर्थिक संपन्नता आने के साथ ही बहुजन महिलायें भी ब्राह्मणवादी खोल में

पाली ग्रामसभा में चार बहुजन महिलायें भी मैदान में हैं। 3 यादव और 1 पाल। सभी आर्थिक रूप से संपन्न। और संपन्नता की कीमत इनकी महिलाओं को घर की चारदीवारी में सिमटकर चुकानी पड़ी है। ऐसी ही एक महिला प्रत्याशी हैं निशा यादव। जो पूर्व प्रधान राकेश यादव की पत्नी हैं। राकेश यादव के पिता चाचा सब इफको मैं लैंडलूजर्स के तौर पर स्थायी नौकरी में थे। आर्थिक संपन्नता के चलते निशा यादव का बाहर निकलना बहुत कम होता है। पिछड़े वर्ग की एक और महिला प्रत्याशी हैं अनीता यादव। उनके पति सुरेश यादव ठेकेदारी करते हैं। मन बनाये थे कि चुनाव लड़ेंगे महिला सीट होने पर पत्नी अनीता यादव को आगे कर दिया लेकिन प्रचार का जिम्मा सारा मर्दों के हाथों में ही है।

अगली प्रत्याशी चन्द्रावती देवी अनपढ़ हैं। उनके पति मुन्शी लाल पाल इफको में लैंडलूजर्स के तौर पर काम करके रिटायर हुए हैं। रिटायरमेंट के बाद से ही उन्होंने प्रधानी लड़ने का मन बनाया हुआ था। महिला सीट हो गई तो वीबी को खड़ा करवा दिया। जबकि हरिगोविन्द यादव वर्तमान में बीडीसी हैं। पहले से ही मन बनाये थे कि प्रधानी लड़ेंगे। महिला सीट हो गई तो पत्नी सरोजा देवी को खड़ा करवा दिये। हरिगोविंद यादव मजदूर हैं सरोजा देवी खेतों में काम करती हैं। लेकिन पोस्टर बैनर में पति पत्नी दोनों जनों की तस्वीरें हैं।

दलित समुदाय से आने वाले उदय नारायण पिछले कई पंचवर्षीय से चुनाव लड़ते आ रहे हैं। महिला सीट होने पर उन्होंने पत्नी लक्ष्मी देवी को मैदान में उतार दिया है। लेकिन लक्ष्मी देवी कहीं प्रचार पर नहीं जाती हैं।

दलित समुदाय से आने वाले श्याम जी गौतम युवा हैं और पेशे से शिक्षक हैं, बावजूद इसके उम्मीदवार पत्नी के पोस्टर बैनर्स में आधा स्पेस घेरे हुए हैं। श्रमिक वर्ग और शिक्षा के पेशे से जुड़े होने के बावजूद श्याम जी गौतम ने एक व्यक्ति के तौर पर पत्नी की खुद से अलग पहचान निर्मित करने की ज़रूरन नहीं महसूस की।   

सवर्ण स्त्रियां तो खैर वैसे भी बाहर कम निकलती हैं। और पुरुषवादी समाज में कम से कम दख़ल देती हैं। लेकिन श्रमशील महिलायें जो कि दैनिक ज़रूरतों के लिए कृषि मजदूर और मनरेगा मजदूर के तौर पर काम करती हैं उनमें भी आर्थिक संपन्नता के समानुपात में ब्राह्मणवादी जकड़न दिखाई देती है। इनमें से कोई भी महिला अपनी इच्छा से और अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति व इरादे से नहीं बल्कि पतियों के आदेश पर चुनाव में खड़ी हुई हैं। महिला सीट न होती तो शायद इनमें से एक भी महिला चुनाव में न खड़ी होती। तो ऐसे में जाहिर है कि इन महिलाओं के पास न तो कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति है, ग्रामसभा की महिलाओं के उत्त्थान व विकास के लिए कोई स्वप्न, रणनीति या कार्ययोजना। भारत में महिला शिक्षा व महिला मुक्ति की ज़मीन तैयार करने वाले डॉ भीम राव आम्बेडकर और फुले दम्पत्ति को याद करते हुए हम कह सकते हैं कि भारत की स्त्रियों की मति और अधिकारों के लेकर जो सपने उन्होंने देखे थे भारत के ग्रामीण समाज की लगभग हर वर्ग की स्त्रियां उनसे बहुत दूर हैं।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

सुशील मानव
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