‘जंगल राज का युवराज’ बनाम ‘मौत का सौदागर’!

जंगल राज का युवराज और मौत का सौदागर। पहले जुमले पर ग़ौर करें तो ज़्यादा से ज़्यादा एक अफरातफरी का दृश्य ज़हन में तैयार होता है। और दूसरे यानि ‘मौत का सौदागर’ पर नज़र डालें तो 2002 में पूरे गुजरात राज्य में इंसानियत को डराने-शर्मशार करने वाले क्रूर वाकये अपनी तफसील के साथ ज़हन को झकझोरने चले आते हैं। गुलबर्ग सोसायटी में टायर के घेरे में ज़िंदा जलाए जाते कांग्रेस के सांसद रह चुके एहसान जाफरी का क़त्ल और उनकी बेबसी भुलाए नहीं भूलती।

उनका कुसूर सिर्फ़ इतना था कि वो परिवार और सोसायटी के लोगों को हिंदू दंगाइयों के जानलेवा हमले से बचाने के लिए आगे आए। कहीं गर्भवती मां की कोख चीर कर भ्रूण को तलवार की नोक पर उछालने के कुकर्म बाकायदा योजना बना कर अंजाम दिया गया। कहीं औरतों की छातियां काटी गईं। बलात्कार कर जान से मारी गईं। घरों, कारोबारों को लूटा-जलाया, बर्बाद किया गया। सुना है बहुसंख्यक धर्म की सत्ता में अपने आश्रित अल्पसंख्यकों का ये हश्र सभ्य हिंदू राज है।    

बिहार में 1990 से 2005 के लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री काल को एनडीए अर्थात मोदी एंड नीतीश कुमार पार्टी ‘जंगलराज’ बता रही है। क्योंकि लालू प्रसाद यादव ने संविधान के मुताबिक मुसलमानों के सुरक्षित रहने के अधिकार की रक्षा की। और जिन दलित-पिछड़ों, आदिवासियों के पूरे टोले को तथाकथित सवर्ण जाति का कोई एक छोकरा डंडे से हांकने की हिमाकत रखता था लालू के राज में उसका डंडा छीन लिया गया?

क्या गुजरात, 2002 के साम्प्रदायिक क़त्लेआम भुलाए जा सकते हैं। जिन्होंने मोदी राज को क्रूर दंगाई निजाम की पहचान दिलवाई। जिस अमरीका के राष्ट्रपतियों को वो आजकल अपना दोस्त बताकर सीना चौड़ा करते फिरते हैं, उसी अमरीका ने साहब के वीजा पर रिजेक्ट का ठप्पा ठोका था। 

सुशासन बाबू का तमगा सीने पर टांके घूमते नीतीश कुमार समझते हैं कि उनके कंधों पर अपनी बेबसी का रोना रोती मुजफ्फरपुर के बालिका गृह की बार-बार बलत्कृत होती और फिर मारी जाती दर्जनों नाबालिग मासूम नंगी लाशें किसी को दिखाई नहीं देतीं। कि सृजन घोटाले को चारा घोटाला की चादर से आसानी से ढका जा सकता है। कि मोदी हाथरस की दलित बेटी के अस्तित्व को ठाकुरों के वीर्य में लिथड़कर भस्म करने के योगी सरकार के करतब पर मन ही मन मुस्कराएंगे और उनके बोल वचन पर जनता तेजस्वी को जंगलराज का युवराज मान लेगी। यहां जंगल राज का मतलब भ्रष्टाचार, डकैती, अपहरण, लूट और हत्याओं से है। सवर्णों के वर्चस्व काल में यही सब होता है और इसके साथ मुसलमानों-दलित-पिछड़ों आदिवासियों पर अत्याचार, उनकी मेहनत की कमाई खा जाना -बाबू साहब का जूता चमकवाकर मोची के पैसे मार जाना। मुफ्त में अपने से नीचे समझी जाने वाली जातियों के होटलों में भोज उड़ाना। मुफ्त रिक्शे की सवारी जैसे टुच्चे काम गौरव की बात है। और लालू प्रसाद यादव ने यही गौरव छीनने का पाप कर डाला।  

जिस रेलवे से लालू ने सालाना 20 हज़ार करोड़ का मुनाफ़ा दिखाया ममता बनर्जी के हाथों में जाते ही वही रेवले 20 हज़ार करोड़ के सालाना घाटे में आ जाता है, कैसे? कोई सवाल नहीं करता। लालू से पहले बतौर रेल मंत्री बिहार के विकास का दम भरने वाले सुशासन बाबू नीतीश कुमार भी रेलवे को सालाना 15 हज़ार करोड़ के घाटे से नवाज़ चुके हैं। लालू प्रसाद यादव के अलावा हर किसी मंत्री के लिए रेलवे घाटे का सूखा कुआं ही बना रहा है। जिसमें जितना भी पानी डालो वो सब खुद ही पी जाता है और फिर भी प्यासे का प्यासा। क्या कभी इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की गई कि मुनाफा करने वाला व्यक्ति यदि बेईमान है तो घाटा करवाने वाला ईमानदार कैसे हुआ? 

लालू प्रसाद यादव इस चुनाव में भले ही सशरीर न मौजूद हों पर केंद्र और राज्य की निकम्मी सरकारें और उनके मुखियाओं ने लालू पर वार करने के भुलावे में आरजेडी का प्रचार अपने हाथों में ले लिया है। लालू इनके कंधों पर बेताल की तरह चिपक गए हैं। 

लग रहा है कि 10 लाख सरकारी नौकरियां, कमाई, पढ़ाई, दवाई, सिंचाई के महागठबंधन के नारों ने पूरे बिहार को अपनी जद में समेट लिया है। हर तरफ शोर है कि बिहार के पहले चरण के मतदान में बीजेपी मुंह की खाएगी। 

आज तेजस्वी यादव जब मोदी से विकास का पता पूछ रहे हैं तो मोदी उन्हें जंगल राज के युवराज की तख्ती दिखा रहे हैं। 2005 में नीतीश कुमार जब सत्ता में आए थे उन्होंने यह वादा किया था कि बिहार के लोगों को अब से राज्य के बाहर काम के लिए नहीं जाना पड़ेगा। यूं तो न हुआ। हां, मगर कोरोना काल में हजारों किलोमीटर पैदल चलकर भूख, पीड़ा व दुख में डूबे जब प्रवासी मज़दूर बिहार की सीमा पर पहुंचे तो नीतीश कुमार ने उनसे कहा कि बिहार में घुसने नहीं देंगे। जो जहां है वहीं रहे।

हाल ये है कि बिहार में बेरोजगारी की दर देश की औसत बेरोजगारी दर से लगभग दुगुनी है। किसानों को उनकी फसल के दाम नहीं मिलते। नीतीश के 15 सालों में कृषि मंडियां ना के बराबर बनीं। इस साल रबी फसल के बिक्री के मौसम में केन्द्र व राज्य दोनों सरकारों की एजेंसियों ने उत्पादित गेहूं की फसल की 1% से भी कम की खरीद की और राज्य भर में महज 1,619 क्रय केंद्र खोले। 

मोदी लालू प्रसाद यादव काल को जंगलराज बता रहे हैं जबकि सरकारी संस्था राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बता रहे हैं कि मोदी-नीतीश की देखरेख में अपराध के मामले में बिहार गुजरात, मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश सरीखे भाजपा शासित राज्यों की तरह ही शीर्ष पर कायम है। नीतीश राज में अपराधों की संख्या हर वर्ष बढ़ती गई है। वर्ष 2018 में बिहार में 167 साम्प्रदायिक-धार्मिक दंगे हुए और इस मामले में वह देश में अव्वल रहा। जातीय हिंसा के मामले में भी बिहार दूसरे नंबर पर रहा। दंगाइयों के रहमो-करम पर सरकार बनाकर क्या दंगा न होने देना संभव है? दबंग जातियों के अंगूठे नीचे दबे रहकर दलितों-वंचितों के अधिकारों पर दस्तखत कैसे कर पाओगे? तो भई, फिर ये सुशासन की चिड़िया कहां उड़ाई जाती रही? सुशासन, महज एक जुमला, एक बड़ा धोखा है।

लगता है ये हिंदुत्व का ढोल पीटने वाले तथाकथित श्रेष्ठ आर्य चमगादड़ों के वंशज हैं। तभी सीधा इन्हें उल्टा नज़र आता है। दरअसल जंगलराज को जुमला बनाकर अराजकता से जोड़ना प्रकृति के नियमों का मज़ाक बनाना है। और अगर कहीं बच्चों की कहानियों की तरह जंगल के वासी जीव-जंतु इंसानों की दुनिया से राबता रख रहे होते तो अब तक वे नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को उनके सुरक्षा घेरों से उठाकर ले जाते और जंगल में किसी पेड़ पर उल्टा टांगकर पूछते- बता बे धूर्त-अनपढ़ मनुष्य, तू जंगल राज को बदनाम क्यों करता है? 

जहां तक जंगली जानवरों, जीव-जंतुओं की बात है उनके लिए जंगल के नियम प्रकृति पर आधारित हैं। वो इंसानों की तरह ख़ुद ही ख़ुद के बनाए नियमों को तोड़ने का आनंद नहीं उठा सकते। मौसमों के हिसाब से उनके ठिकाने बदलते रहते हैं। उनके प्रजनन का समय निश्चित है। इंसान की तरह मादा को गुलाम बनाकर वहां बलात्कार और जनसंख्या वृद्धि नहीं की जाती। जंगल में नर को मादा को लुभाना पड़ता है। ये मादा तय करती है उसे किस नर से सहवास करना है। जंगल में मादा को गर्भपात करवाकर मारा नहीं जाता। दहेज देकर एक खूंटे से दूसरे पर बांधा नहीं जाता। कोई भी मादा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नहीं होती। अगर आप ये कहें कि ताकत का खेल जंगल में ही होता है तो जनाब शेर सहवास शेरनी से ही करता है। गाय-भैंस, हिरनी-मोरनी या चुहिया-चींटी से नहीं।

जहां तक बात भूख-सुख सुविधाओं की है तो जंगल में हर जानवर-जीव जन्तु केवल उतना ही शिकार करता है जितना उसके पेट में समाता है। पेट से ज़्यादा हो गया तो दूसरों के लिए छोड़ देता है। मनुष्यों की तरह कमज़ोर को भूखा मारकर और बाकायदा कानून बनाकर गोदामों में अनाज या भोजन सड़ने के लिए नहीं छोड़ता। शेर-शेरनी या किसी भी जानवर-जन्तु का जंगल की धरती पर कब्ज़ा उनकी अपनी ताकत और प्रकृति की परिस्थिति से निश्चित होता है। वहां राज के लिए किसी प्रधानमंत्री, पुलिस, फौज, मीडिया को कब्ज़े में लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। बाढ़ शेर और चींटी सबके ठिकानों को बहा ले जाती है।

एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए सब अपने पैरों का ही इस्तेमाल करते हैं। कोई प्राइवेट जेट और कोई रेल-जुगाड़ में नहीं जाता। बंगाल का टाइगर मुंह छिपाकर अमरीका के जंगलों की नागरिकता लेने नहीं जाता। हिंदुस्तानी अजगर और एमोज़न के एनाकोन्डा के स्विस खाते नहीं होते। सो लालू के राज को अगर भ्रष्टाचार और अराजकता का राज मानकर जंगलराज कहा जा रहा है तो ये असली जंगलराज का अपमान है। और इसके विपरीत अगर लालू के राज में असल जंगलराज की कुछ भी खूबियां मौजूद रहीं हो तो वो राज यक़ीनन मोदी-योगी, मनमोहन सिंह आदि-आदि किसी के भी राज से बेहतर ही कहा जाना चाहिये। 

(वीना जनचौक दिल्ली की स्टेट हेड हैं। आप व्यंग्यकार होने के साथ डाक्यूमेंट्री निर्माता भी हैं।) 

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