मनुष्यता के विध्वंस की शब्दावली है कामर्शियल और प्रोफेशनल!

मंजुल भारद्वाज

भूमंडलीकरण का अर्थ है मनुष्य का ‘वस्तुकरण’। मानव उत्क्रांति का सबसे विध्वंसक दौर है भूमंडलीकरण। अभी तक मनुष्य की लड़ाई थी ‘इंसान’ बनने की ‘इंसानियत’ को बढ़ाने की यानी मनुष्य अपनी ‘पशुता’ से संघर्ष करता रहा है और जीतता रहा है। पर 1992 के बाद एक उल्टा दौर शुरू हुआ। मनुष्य ने जितनी ‘इंसानियत’ हासिल की थी उसको एक ‘प्रोडक्ट’ में बदल कर ‘मुनाफ़ा’ कमाने का दौर शुरू हुआ उसी का नाम है ‘भूमंडलीकरण’। खरीदो और बेचो इसका मन्त्र है। जो बिकेगा नहीं और खरीदेगा नहीं उसे इस ‘दौर’ में जीने का अधिकार नहीं! मनुष्य के पतन का दौर है ये, उसके मनुष्य नहीं ‘वस्तु’ होने का दौर है।

वस्तुकरण के इस महाकाल की शोषणकारी शब्दावली है कमर्शियल और प्रोफेशनल। ये शब्द परमाणु बम से भी खतरनाक हैं। परमाणु बम जीवन को खत्म करते हैं पर कामर्शियल और प्रोफेशनल शब्द ‘मनुष्यता’ को नेस्तनाबूद करने की राह पर ले जाते हैं। कामर्शियल होने का अर्थ समझिये ..ये शब्द कहां से आया? कामर्शियल होने का अर्थ है ‘लूट’। इस लूट के लूट तन्त्र को ‘कॉर्पोरेट’ कहा जाता है। इन कॉर्पोरेट में मध्यवर्ग का तबका काम करता है। मध्यवर्ग का अर्थ है किसी भी कीमत पर ‘भोग’ या सुविधा का जिज्ञासु वर्ग।

1992 से पहले भी वस्तु खरीदी और बेची जाती थी पर उसमें वस्तु के निर्माण में लगे श्रम का पारिश्रमिक और अन्य खर्च शामिल होते थे। पर आज सिर्फ़ लूट होती है। अति सामान्य उदहारण लेते हैं। किसान के खेत से आलू 2-3 रूपये किलो में खरीद कर चिप्स 300-1000 रूपये किलो में बेचा जाता है। यही हाल कोक,पेप्सी और पेय पदार्थों का है। चिप्स और कोक में कोई ‘पौष्टिकता’ होती है? होता है सिर्फ़ ‘स्वाद’। मतलब है ‘स्वाद’ बेचो और पौष्टिकता को मारो।

पौष्टिकता का अर्थ है स्वास्थ्य ..स्वास्थ्य का अर्थ है मानसिक ‘स्वास्थ्य’… यानी विचार… ये ‘कॉर्पोरेट’ लूट तंत्र विचारों के विरुद्ध है। कोई भी विचार जो इसकी लूट में बाधा हो उसे खत्म करता है ये लूट तंत्र! इसका उदाहरण सोशल मीडिया पर देख लीजिये.. किसी भी ‘तार्किक’ आवाज़ को फेसबुक ब्लाक कर देता है.. शोषण के,धर्मान्धता के, व्यक्तिवाद के, सरकारी लूट को, कुकर्मों को उजागर करने वाली हर आवाज़ को खत्म करना चाहता है जुकरबर्ग का फेसबुक..क्योंकि उसको ‘विचार’ नहीं मुनाफ़ा चाहिए। विचार के विनाश पर टिका है मासूम सा लगने वाला शब्द ‘कामर्शियल’.. अफ़सोस है कि पूरी युवा पीढ़ी इस विकारवादी नरभक्षी और मनुष्यता के विरोधी वायरस से ग्रसित है.. खतरनाक बात यह है कि वो इस शब्द को जानना भी नहीं चाहती, ‘प्रॉफिट’ के सामने अंधे हैं सब!

दूसरा शब्द है ‘प्रोफेशनल’ इसका सम्बन्ध तकनीकी निपुणता से है जिसको बाज़ार ने ‘मानवीय संवेदनाओं’ से जोड़ दिया है। तकनीक के माध्यम से मानवीय ‘संवेदनाओं’ के दोहन करने वाले को ‘प्रोफेशनल’ कहा जाता है। यानी इंसान के दुःख, दर्द, ख़ुशी को अभियक्त कर उसकी सारी धनसम्पदा को लूट लो इस लूट को कहते हैं प्रोफेशनलिज्म! आज की पीढ़ी को इस कार्य के लिए प्रशिक्षित किया जाता है ताकि ‘लूट’ वंशानुगत हो और तंत्र चलता रहे!

कामर्शियल और प्रोफेशनल इन शब्दों का प्रचार ‘मीडिया’ के माध्यम से किया जा रहा है। ‘लोकतान्त्रिक’ व्यवस्था के ‘जनसरोकारी पक्ष यानी पत्रकारिता’ को सबसे पहले इसका शिकार बनाया गया ताकि भूमंडलीकरण के सुंदर शब्द की कुरूपता को उजागर करने वाला कोई ना बचे और मनुष्य वस्तु में तब्दील हो ..खरीदा और बेचा जाए …मुनाफ़ाखोर पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्यता को लहूलुहान करती रहे!

(मंजुल भारद्वाज नाटककार हैं और ‘थिएटर ऑफ रेलेवेंस’ नाम की नाट्य संस्था के संस्थापक हैं।)

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