शैलेंद्र की शख़्सियत और फ़िल्मी सफ़र पर चर्चा करने वाली किताब

अपने गीतों के माध्यम से एक साथ प्रेम, क्रांति और मानवता को अभिव्यक्त करने वाले मशहूर गीतकार शैलेंद्र के लोकप्रिय फ़िल्मी गीत ‘मेरा जूता है जापानी’, ‘आवारा हूं’, ‘सजन रे झूठ मत बोलो’, ‘रमय्या वस्तावय्या’ आज भी लाखों लोगों की ज़ुबान पर हैं। लगभग सात दशक पूर्व अपने गीतों और कविता के माध्यम से मानवता के पक्ष में, मज़दूरों के हक़ में, युवाओं की भावनाओं को अभिव्यक्त करनेवाले, प्रगतिशील सोच के गीतकार शैलेंद्र आज भी उतने ही प्रासंगिक दिखाई देते हैं।

शैलेंद्र की इसी लोकप्रियता और प्रासंगिकता के कारण आज भी शैलेंद्र के संघर्षशील जीवन, फ़िल्मी गीतकार के रूप में उनके रोमांचकारी सफ़र और मानवता का संदेश देने वाले उनके गीतों पर निरंतर लिखा जा रहा है। इस क्रम में आलोचक, लेखक-पत्रकार ज़ाहिद ख़ान द्वारा संपादित किताब ‘शैलेंद्र-हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में’ एक महत्वपूर्ण किताब के रूप में देखी जा सकती है। उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित यह किताब गीतकार शैलेंद्र के संघर्षशील व्यक्तित्व, फ़िल्मी दुनिया के उनके रोचक सफ़र को बड़ी ख़ूबी के साथ अभिव्यक्त करने में सफल हुई है।

ज़ाहिद ख़ान इन दिनों प्रगतिशील साहित्य और परंपरा पर निरंतर लिख रहे हैं। प्रगतिशील आंदोलन को लेकर लिखी उनकी किताबें, ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’, ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’, ‘तहरीक-ए-आज़ादी और तरक़्क़ीपसंद शायर’ प्रगतिशील साहित्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का द्धोतक है। किताब ‘शैलेंद्र..हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में’ को भी इसी परंपरा की अगली कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।

किताब समीक्षा : ‘शैलेन्द्र : हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में…’, संपादन : ज़ाहिद ख़ान, पेज : 112, मूल्य : 100, प्रकाशक : ‘उद्भावना’ गाजियाबाद।  

किताब को बहुआयामी बनाने की दृष्टि से संपादक ज़ाहिद ख़ान ने बड़े श्रम से सामग्री जुटाई और उसका संपादन किया है। किताब में गीतकार शैलेंद्र का 1965 में ‘धर्मयुग’ पत्रिका में छपा ‘आत्मकथ्य’ शामिल किया है। इस ‘आत्मकथ्य’ से पाठकों को शैलेंद्र की जीवन कहानी उनके ज़ुबान से पढ़ने को मिलती है। साथ ही ‘उद्भावना’ के संपादक लेखक अजेय कुमार ने अपनी भूमिका के माध्यम से ‘जनकवि के रूप में शैलेंद्र का स्थान कितना अहम् था।’, इससे जुड़ा हुआ एक राेचक क़िस्सा बयान किया है।

किताब में ज़ाहिद ख़ान के एक विस्तृत लेख के अलावा शैलेंद्र के जीवन और गीतकार के रूप में उनके योगदान को लेकर गहन चिंतन करनेवाले कुछ लेख भी इस किताब में शामिल किए गए हैं। वरिष्ठ कवि राजेश जोशी, अरुण कमल, मराठी भाषा के अध्येता विजय पाडलकर, फ़िल्म समीक्षक जयनारायण प्रसाद, दीप भट्ट के साथ-साथ शैलेंद्र पर बहुत विस्तृत लेखन करने वाले डॉ. इंद्रजीत सिंह जैसे अध्येताओं के लेख किताब में शामिल किए गए हैं। इन लेखों के अलावा किताब के अंतिम हिस्से में हिंदी आलोचकों और फ़िल्मी दुनिया की कुछ बड़ी हस्तियों की नज़र में शैलेंद्र की प्रतिमा क्या थी ?, इस पर चर्चा की गई है।

साथ ही किताब को रोचक बनाने की दृष्टि से शैलेंद्र के कुछ लोकप्रिय जनगीत, मशहूर फ़िल्मी गीत और कवि नागार्जुन द्वारा शैलेंद्र पर लिखी कविता ‘शैलेंद्र के प्रति’ को भी किताब में शामिल किया गया है। परिणामस्वरूप यह किताब गीतकार शैलेंद्र के व्यक्तित्व और फ़िल्मी सफ़र के विभिन्न आयामाें से पाठकों का परिचित करवानेवाली एक मुकम्मल किताब दिखाई देती है।
       
वरिष्ठ कवि राजेश जोशी अपने लेख में शैलेंद्र की प्रगतिशील कविताओं की विशेषताओं पर चर्चा करते हुए, उनकी कविता किस तरह ‘नारेबाज़ी की कविता न होकर हज़ारों मेहनतकश मज़दूरों का नारा बन गई’ इस बात की ओर संकेत करते हैं। तो वहीं अरुण कमल अपने लेख में एक ऐतिहासिक घटना की ओर संकेत करते हैं कि ‘शैलेंद्र उनके इलाके के थे, किंतु बहुत दिन तक उन्हें यह मालूम नहीं था। बाद में जब उन्हें पता चला तब उन्हें अपने आप पर गर्व होने लगा।’ इस संदर्भ में वह कहते हैं, ‘आज मैं ताक़तवर महसूस कर रहा हूं और गौरवान्वित कि मेरा सबसे प्रिय गीतकार आख़िर है, तो हमारी ही मिट्टी का।’ इसके अलावा शैलेंद्र के गीतों में व्यक्त विद्रोही चेतना, धार्मिक कर्मकांड और सामाजिक रूढ़ियों पर उन्होंने जो प्रहार किये,अरुण कमल उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं।

शैलेंद्र का फ़िल्म जगत में प्रवेश राज कपूर की फ़िल्म ‘बरसात’ के माध्यम से हुआ। उसके बाद उनके और राज कपूर के संबंध इतने घनिष्ठ हुए कि जीवन के अंत तक राज कपूर शैलेंद्र को साथ लेकर फ़िल्में करते रहे। विजय पाडलकर अपने लेख में शैलेंद्र और राज कपूर के आत्मीय संबंधों को लेकर विस्तार से चर्चा करते  हैं। जिसमें राज कपूर के हवाले से वे लिखते हैं, ‘उनसे (शैलेंद्र) मेरा संबंध गाने लिखने वाले के रूप में नहीं था, पूर्व जन्म का कोई मेल सम्मेल था।’ इसके अलावा पाडलकर शैलेंद्र के कालजयी गीत ‘आवारा हूं’, ‘मेरा जूता है जापानी’ के निर्माण की रोचक कहानियों पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं। साथ ही उनके गीतों में शब्दों का जो सादापन, सरलता है उस विशेषता की ओर भी संकेत करते हैं।

इंद्रजीत सिंह शैलेंद्र के जीवन और साहित्य के गहन अध्येता हैं। उन्होंने, ‘जनकवि शैलेंद्र’, ‘धरती कहे पुकार के’ और ‘तू प्यार का सागर है’ आदि तीन किताबों के माध्यम से शैलेंद्र के जीवन और फ़िल्मी जगत में उनके योगदान पर बहुत विस्तार से चर्चा की है। प्रस्तुत किताब में निहित लेख ‘इश्क़, इंक़लाब और इंसानियत के कवि’ में भी वह शैलेंद्र के संघर्षपूर्ण सफ़र पर चर्चा करते हैं। फ़िल्म समीक्षक जयनारायण प्रसाद ने अपने लेख में शैलेंद्र द्वारा फणीश्वरनाथ रेणु की चर्चित कहानी ‘तीसरी कसम’ पर बनाई गई फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ के निर्माण की रोचक कहानी कही है।

पत्रकार दीप भट्ट अपने लेख में शैलेंद्र की सबसे बड़ी ख़ूबी की ओर संकेत करते हुए, बताते हैं कि उन्होंने किस तरह वामपंथी विचारधारा को फ़िल्मों के लिए लिखे अपने गीतों में पिरोया। इन गीतों से वे मेहनतकश समाज और निम्न मध्यम वर्ग के लिए एक आदर्श बन गये। संपादक ज़ाहिद ख़ान ने समग्र किताब में इस बात का विशेष ख़याल रखा है कि विभिन्न लेखकों के विचारों को पढ़ते हुए, इनमें प्रसंगों का दोहराव न हो।

शैलेंद्र के जीवन और फ़िल्मी सफ़र की एक मुकम्मल कहानी पाठकों को सरलता से पढ़ने को मिले। गीतकार शैलेंद्र को जानने-समझने के इच्छुक पाठकों के लिए ‘शैलेंद्र-हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में’ एक अनमोल तोहफ़ा साबित होगी, इसमें संदेह नहीं।

(समीक्षक डॉ. जयराम सूर्यवंशी, श्री संत गाडगे महाराज महाविद्यालय, नांदेड़ में शिक्षक हैं।)
 

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