वैचारिक उथल पुथल और जिज्ञासा की ख़ुराक़ है -“उसने गांधी को क्यों मारा?”

गांधी अपने समय से हमारे समय तक के सबसे चर्चित नाम है। गांधी इसीलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि महात्मा गांधी के अतिरिक्त एक पक्ष वकालत की डिग्री लिए हुए वकील मोहनदास करमचंद गांधी भी का है। जो व्यक्ति के हृदय परिवर्तन में विश्वास करते है।कट्टरपंथी समुदायों के लिए गांधी और गांधी के जैसे लोग राह के रोड़े है इस बात में कोई दोराय नहीं है। ध्यान रहे कट्टरपंथी का तात्पर्य सिर्फ एक समुदाय से नहीं अपितु दोनों अथवा सभी कट्टरपंथीयो के मूल में निहित भावना से है। आम जीवन मे गांधी के आलोचक लगभग वही लोग है जिन्होंने गांधी के जीवन के ‘कवर पृष्ठ’ को देखा तक नहीं है। रटे रटाये तर्कों और अंधभक्ति के सीने पर बैठकर गोली चलाते ये लोग लगभग अनभिज्ञ है। गांधी को गाली देना देश को गाली देना है और खुद की आत्मा के साथ खिलवाड़ तो है ही। गांधी जी का वैचारिक प्रभाव इस कदर तक था कि लोग गांधी से मिलने के बाद आदतें बदल डालते और आदतें उनका जीवन। लोगों ने सीमित समय गुजारकर गांधी के जीवन और व्यवहार पर पुस्तकें लिख दी और यह गांधी का ही प्रभाव था कि वह चल पड़े। सामान्य लिखने वाले ने गांधी पर कलम चलाकर खुद को लेखक के रूप में स्थापित किया यह गांधी की ही महानता थी।पुस्तकें लिखने से मेरा तात्पर्य यह है कि मिलने वाले के प्रति गांधी कितने समर्पित हो जाते है। गांधी जीवन के प्रति कितना संजीदा थे।

 गांधी का जिक्र करते समय हमें यह विचारना ही चाहिए कि रविन्द्र नाथ टैगोर ने जिसे महात्मा कहा और सुभाष चन्द्र बोस ने जिसे राष्ट्रपिता कह आदर व सम्मान दिया। वह मिथ्या दंभ नहीं अपितु गांधी की सर्वकालिक स्वीकार्यता थी। गांधी हत्या के कई पहलुओं से रूबरू करवाती यह पुस्तक दिखाती है कि गांधी कैसे प्रभावी होते है और कट्टरपंथी कैसे निर्मूल। सामान्य से घरों से निकलकर गांधी के हत्यारे बनने वाले नाथूराम गोडसे, आप्टे और किरकिरे आज इस समय इतिहास में दर्ज है तो उसका कारण भी गांधी ही है। धर्म दिमाग में घुसकर कैसे जहर बनता है यह दिखाता है गांधी हत्या का कुत्सित चेहरा। सामान्य परिवारों के लड़के देश के राष्ट्र पिता का खून करते हुए नहीं काँपते क्योंकि मजहबी जहर इतनी गहराई में नसों से भर गया था। गांधी हत्या में शामिल नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे ने 1964 ई। में एक साक्षात्कार में कहा कि वह आरएसएस का स्वयंसेवक था और कभी सदस्यता न छोड़ी। गोडसे की पोती सात्यिकी सावरकर ने भी 2016 में यही दावा दुहराया था हालांकि संघ के लोग इसे नकारते रहे है और सबूत तो है ही असंभव।इसी आधार पर गांधी हत्या का यह आरोप उन पर भी लगाना चाहिए जिन्होंने गांधी हत्या के लिए कट्टरता के बलबूते ऐसे किरदार खड़े किए जिन्होंने हत्या के बाद भी कोई पश्चताप भी प्रकट नहीं किया।

“गांधी जी की हत्या दशकों के व्यवस्थित ब्रेनवॉशिंग का परिणाम थी। गांधी जी कट्टरपंथियों की राह का कांटा बन चुके थे और वक्त के साथ यह असन्तोष फोबिया बन गया” – चुन्नीलाल वैद्य

नाथूराम गोडसे के संपादन में निकलने वाले अखबार ‘अग्रणी’ के उस कार्टून से घृणित मानसिकता का अंदाजा लगाया जा सकता है कि गांधी के प्रति नफ़रत कितनी गहराई से भरी थी। कार्टून में गांधी को रावण के रूप में दिखाकर उसके दस मुखों में सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद के साथ अंबेडकर भी शामिल है। इसके अलावा ‘हिन्दुराष्ट्र’ के नाम से निकलने वाले अखबार को देखकर यह आभास होता है कि गांधी-हत्या कोई तात्कालिक संयोग नहीं अपितु लंबी योजनाबद्ध प्रक्रिया थी। 30 जनवरी को गांधी हत्या की खबर के साथ 31 जनवरी के बाद इस समाचार पत्र का एक भी अंक प्रकाशित न हुआ क्योंकि गांधी की हत्या हो चुकी थी और हिन्दुराष्ट्र से जुड़े लोगों की मंशा पूर्ण। समाचार पत्रों की यह प्रक्रियाएं दिखाती है गांधी की हत्या कितनी सुकून देने वाली थी। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि जिस अग्रणी और हिन्दुराष्ट्र की बात यहां हो रही है वह दोनों ही तत्कालीन कट्टरपंथी हिन्दू समुदायों के प्रभाव में थे और इनके लिए लिखते भी वही थे।

कट्टरता की आग कितनी गहरी होती है यह इस बात से पता चलता है कि मदनलाल पाहवा ने गांधी हत्या केस से रिहा होने के बाद भी कोई अफ़सोस नहीं जाहिर किया। सामान्य परिवारों से निकले ये लोग अब हत्यारे बन गए थे। नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे ने गांधी हत्या के लिए एक दिन का अवकाश लिया और षड्यंत्र में सफल होने के बाद वापिस नौकरी पर चला भी गया। 2 फरवरी 1998 को आउटलुक की संवाददाता ने जब बात की तो उसे बस एक अफ़सोस था -“काश मैंने गांधी को मारा होता।”

अशोक कुमार पांडेय।

गांधी की हत्या का स्वर इस कदर भर दिया गया था कि जैसे गांधी न हो तो इन कट्टपंथियों का प्रभाव व्याप्त हो जाएगा।अशोक कुमार पांडेय इस पुस्तक में समझाते है कि गांधी-हत्या के लिए हर बार साजिशें करने वाले तमाम लोग केवल हिन्दू कट्टरपंथी संगठनों से ही जुड़े थे और यह कोई संयोग नहीं था। गांधी से वैचारिक मतभेदता मुस्लिमो और कम्युनिस्टों में भी थी बावजूद इसके गांधी पर हुए शारीरिक हमलों में हिन्दू कट्टरपंथी ही अग्रणी पाए जाते है।इस कट्टरपंथ ने न केवल गांधी बल्कि कई लोगों की निर्मम हत्याएं की। “धर्म खतरे में है” कि मूल चिंतन और निर्मूल बहसों से उठकर आने वाले ये लोग कल भी शांति के लिए खतरा थे और आज भी अहिंसा के खिलाफ मैदान में है। यहां यह कहना समीचीन होगा कि हिंसा को जायज मानना एक बात है और केवल हिंसा को ही सही ठहराना दूसरी बात। 

गांधी के लिए अहिंसा का बड़ा व्यापक दृष्टिकोण था। आत्मशुद्धि को ही मानव शुद्धि मानने वाले गांधी के विचार है कि -: 

बिल्कुल वैसे ही जैसे हिंसा के प्रशिक्षण में एक व्यक्ति के लिए मारने की कला (art of killing) सीखना जरूरी है,अहिंसा के प्रशिक्षण में जरूरी है मरने की कला (art of dying) सीखना। – गांधी न अनस्पिकेबल (जेम्स डब्ल्यू डगलस)

गांधी अपने समय के महत्वपूर्ण व्यक्ति थे तो जायज है उन पर हमले भी स्वाभाविक थे। गांधी अहिंसा का पहला सूत्र साहस बताते थे। कायर अहिंसा का पालन कर ही नहीं सकता ऐसा उनका मानना था। गांधी पर पहला हमला जनवरी 1897 ई। में अफ्रीका में हुआ जहां वे लंबे समय से रंगभेद के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। ये एक लीचिंग थी। प्लैग के कारण तेईस दिन तक गांधी अपने साथियों के साथ क्वारन्टीन रहे और इसके बाद एक दिन गांधी पर भीड़ ने पथराव कर दिया।डर्बन के पुलीस अधीक्षक की पत्नी जैन अलेक्जेंडर की मदद से गांधी किसी तरह बचे और बाद मे जब नाटाल के एस्कोम्बे ने गांधी से मांफी मांगी तो गांधी में यह कहते हुए टाल दिया कि यह तो मैं कब का भुला चुका और आपके प्रति कोई दुर्भाव भी नहीं है। इसकी सबसे महत्वपूर्ण कड़ी वह क्षण है जब गांधी ने हमलावरों को पहचानने के समय यह कहा कि हमलावर भटके हुए लोग थे और हमलावरों को माफ किया जाना चाहिए। यह घटना बताती है कि क्यों गांधी होना मुश्किल है। यह घटना दर्शाती है कि गांधी व्यक्ति और समाज की कितनी गहरी समझ रखते थे।

जब गांधी भारत लौटे तो उनके कई संशय थे। नमक आंदोलन और सत्याग्रह दो ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं थी जिन्होंने गांधी के वैचारिक द्वंद्व को समाप्त करने में भूमिका अदा की। इससे पहले गांधी निष्कलंक ब्रिटिश बनने की ओर थे। गांधी यह समझते थे कि दक्षिणी अफ्रीका की तरह ही अंग्रेजों के साथ रहकर ही उन के द्वारा होने वाली समस्याओं का हल किया जा सकता है। दक्षिणी अफ्रीका और यहां की परिस्थितियों में बराबर भेद थे। वहां वे ब्रिटिश अधिकारियों के साथ रहकर प्रवासियों के लिए संघर्षरत थे वहीं भारत मे ऐसा संभव नहीं था। भारत मे उनके तीखे सुर थे और शांत आंदोलन। शांति से यहां तात्पर्य अहिंसा से है।

गांधी कहते है कि -“भारत में दुनिया के हर धर्म के प्रतिनिधित्व करने वाले लोग है और यह स्वीकारना शर्म की बात है कि हम आपस मे बंटे हुए है,यह कि हम हिन्दू-मुसलमान आपस मे लड़ रहे है। यह मेरे लिए और गहरे शर्म की बात है कि हिन्दू अपने ही लाखो भाई-बन्दों को छूने से परहेज करते है।मैं कथित अछूतों की बात कर रहा हूँ।”

कदाचित यह वह कथन थे जिन्होंने कट्टरपंथियो के हृदय में आग लगाने का काम किया। एकता और अखंडता के लिए इस निर्भीकता से लड़ने वाले शख्श पर गोलियां दाग देना कोई आबाचूक बनी योजना नहीं थी अपितु वह तो कई योजनाबद्ध तरीकों से की गई साजिश थी और ऐसे बयान दिखाते है कि क्यों कट्टरपंथीयो के हृदय में गांधी नाम से आग उठती थी।

गाँधी की निर्भीकता ही कह सकती है कि -” अस्पृश्यता के जीवित रहने की तुलना में मैं हिन्दू धर्म का मर जाना पसंद करूँगा”

गांधी के हत्यारे वही लोग थे जिनको प्रेम से घिन्न आती थी। जिनके लिए दलित इंसान नहीं थे। गांधी इस कदर दलितों की आवाज थे कि 24 अप्रैल 1947 को उन्होंने पटना में कहा था कि -” एक उसूल बनाया है कि वे उस विवाह में शामिल नहीं होंगे और न ही उसे आशीर्वाद देंगे जिसमे कम से कम एक पक्ष हरिजन न हो” ये वे कथन थे जो एक ओर गांधी को आदर्श के रूप में लोक में स्थापित कर रहे थे वहीं दूसरी ओर कट्टरपंथी सनातनी लोगों को अपना दुश्मन भी बना रहे थे।

खुद को सनातनी कहने वाले लोगों को ये डर था कि गांधी जिस समाज की कल्पना करते है अगर वैसा समाज बना तो उनकी प्रतिष्ठा न रहेगी। अहंभाव से ग्रसित और जातीय मद में चूर सनातनियों ने शांति के उपासक पर कई हमले किये।16 जुलाई 1934 की खबर है कि कराची में एक सनातनी ने फरसे से गांधी पर हमले का प्रयास किया। 19 जुलाई 1934 में सनातनियों द्वारा गांधी के स्वयंसेवकों पर हमले की खबर है। 20 जुलाई 1934 को काशी में गांधी बहिष्कार समिति के कमलनयनाचार्य का बयान है कि -“काशी में गांधी जी का कड़ा बहिष्कार किया जाना चाहिए ताकि न केवल भारत के अपितु इंग्लैंड के भी बड़े बड़े कुशल राजनीतिज्ञ कांप उठे……गांधीजी का आंदोलन हमारे सनातन धर्म पर जानलेवा संकट है।हर सनातनी इसका डटकर मुकाबला करें।”

 ये वह बौखलाहट थी जो सनातनियों में स्पष्ट रूप से झलकती थी। इस बात का अंदाजा भी लगाया जा सकता है कि गांधी हत्या कोई आकस्मिस्क प्रतिरोध न होकर एक लंबी कार्य योजना रही होगी।

1934 ई। में गांधी ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और गांधी राजनीति से दूर जाने का मानस बना चुके थे। इतने विशाल प्रभाव वाले सख्स का यूं अराजनैतिक हो जाना सहज न था। कई घटनाएं ऐसी हुई जिन्होंने गांधी को विलोड़ित किया। 1937 के चुनावों के बाद जिन्ना ने कांग्रेस के सत्ता ने भागीदारी का प्रस्ताव दिया था। पटेल इसके लिए राजी थे लेकिन नेहरू लीग को कोई स्पेस नहीं देना चाहते थे। गांधी खुद को असहाय महसूस करते हुए कहते है कि -” एकता में मेरा भरोसा अब भी उतना ही है लेकिन इस गहरे अंधेरे में कोई किरण नहीं दिखाई दे रही।”

1944 ई। की एक बातचीत का जिक्र करते हुए गांधी कहते है कि जिन्ना समझौता चाहते है लेकिन वह यह नहीं जानते कि वह चाहते क्या है। जिन्ना का मानस एक पृथक राष्ट्र की ओर अग्रसर था और जिन्ना इसके लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे।गांधी विभाजन को तैयार न थे और जिन्ना इसके सिवाय किसी बात पर तैयार न थे।वहीं सावरकर और हिन्दू महासभा दो राष्ट्र के सिद्धांत के पक्ष में थे।

1945 के पत्रकार सम्मेलन को संबोधित करते हुए सावरकर कहते है कि- “मुझे जिन्ना के दो राष्ट्रों के सिद्धांत से कोई समस्या नहीं है हम हिन्दू लोग अपने आप मे एक राष्ट्र है और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र है ।”

विभाजन की महत्वपूर्ण घटना को अनभिज्ञ गांधी की देन समझते है लेकिन यहां यह तथ्य पूर्णतः चिंतनीय है।1944 में जिन्ना से बातचीत विफ़ल होने के बाद गांधी जी कहते है कि -‘मैं इस बात से मुतमईन हूँ कि श्री जिन्ना एक भले आदमी है लेकिन वह एक मतिभ्रम के शिकार है।जिसमे वह कल्पना करते है कि भारत का एक अप्राकृतिक विभाजन इसके निवासियों के लिए कोई खुशी या समृद्धि ला सकती है”

गांधीजी इस बात से वाकिफ़ थे कि विभाजन भारत को एक त्रासदी में धकेल देगा। गांधी जी विभाजन को राजनैतिक देखने के बजाय मानवीय दृष्टिकोण से देख रहे थे।उन्हें इस बात का अंदेशा था कि विघटनकारी विभाजन राष्ट्र के हितकर कदापि न होगा। जिन्ना की बौखलाहट इस बात को स्पष्ट करती है कि क्यों गांधी महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। 1945 ने याहया बख्तियार को लिखे खत में जिन्ना कहते है कि -“जिससे मैं डरता हूँ वह गांधी है।उनके पास दिमाग है और वह मुझे फंसाने की कोशिश करते है। मुझे उनसे हमेशा सावधान रहना होगा”।

नोआखली में जिस तरह सांप्रदायिक दंगे हुए उससे गांधी अत्यंत व्यथित दिखते है। गांधी के हृदय पर मानो हल चल रहे है। इन दंगों की भीषणता व वीभत्सता को गांधी अपनी पराजय के रूप में देखते है। गांधी यह समझने की चेष्टा करते है कि उनकी खुद की पराजय हुई है। भीतर तक एक टूटन से घिर चुके गांधी इस पर लिखते है कि – ” यहां आकर मैंने किसी पर कृपा नहीं की है। अगर यह कृपा है तो अपने ऊपर।मेरा अपना सिद्धांत हार रहा था। मैं पराजित व्यक्ति की तरह नहीं सफल व्यक्ति की तरह मरना चाहता हूँ। लेकिन यह संभव है कि मैं असफल ही मर जाऊं”

यह गांधी के अपने सिद्धांत थे कि वह लोगों को गांव गांव पैदल जाकर समझा रहे थे।सात हफ़्तों में गांधी ने 116 मील पैदल यात्रा की और 47 गांवों का दौरा किया। गांधी अपने जीवन के विकट दौर से गुजर रहे थे। यह दंगे आजादी के बाद हुए दंगो की पूर्वपीठिका थी। गांधी इस मायने से यात्रा कर रहे थे कि लोगों को उनसे मिलकर सहानुभूति नहीं साहस मिले।गांधी की अहिंसा के मूल में साहस था। मुस्लिम बहुल दंगो वाले इलाकों में गांधी हिंदुओ को बचाने की बात कर रहे थे और हिन्दू बहुल में इसके ठीक उलट। कई कट्टरपंथी गांधी से इस कदर गुस्साए थे की उन्होंने गांधी के रास्ते में मल,गंदगी और कांच के टुकड़े बिखेर दिये लेकिन गांधी ने कहा अब तो वह नंगे पांव चलेंगे।फिर अगले दिन से यह घटनाएं बंद हो गई।एक शख्स ने गांधी का गला दबा दिया और मुंह नीला पड़ गया लेकिन गांधी हंसते रहे और फिर अगले दिन उस शख्स ने माफी मांग ली। यह शांति लोगों के भीतर से आ रही थी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर गांधी बहुत स्पष्ट थे। जब गांधी जब गांधी के एक सहयोगी ने रिफ्यूजी कैंप में आरएसएस के काम,अनुशासन,साहस और क्षमता की तारीफ की तो गांधी ने कहा -“मत भूलो कि यह सब गुण हिटलर की नाज़ी और मुसोलिनी के फ़ासिस्ट समर्थकों में भी था।संघ तानाशाही विचारों का एक सांप्रदायिक संघठन है। जब गांधी आरएसएस के बुलावे पर उनके कैंप में गए तो ‘महान हिन्दू’ कहकर उनका स्वागत किया गया। उन्होंने जवाब दिया – मुझे निश्चित रूप से अपने हिन्दू होने पर गर्व है लेकिन मेरा हिन्दू धर्म न तो असहिष्णु है और न ही एकांतिक।हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी खूबसूरती है कि वह हर धर्म की सबसे सुंदर चीजों को अपने मे समाहित करता है”।

गांधी के नाम के साथ जो निकृष्ट कलंक कट्टरपंथियों द्वारा स्वभावतः जोड़ दिए गए थे उनकी भी पड़तें यह किताब उजागर करती है। 55 करोड़ के दुष्प्रचार की राजनीति भी गांधी के ही सर है।कुछ मतिभ्रम के शिकार गांधी को विभाजन का जिम्मेदार ठहराते है किंतु यह पुस्तक वैचारिक उधेड़बुन से बाहर निकालती है।चाहे भगत सिंह हो या कश्मीर की समस्या कट्टरपंथियों ने यह आरोप भी गांधी के सिर मढ़े है।यह पुस्तक वैचारिक उथल पुथल और जिज्ञासा के दोराहे पर खड़ी है।

(कमल सिंह सुल्ताना लेखक व स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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