राजा ढाले: दलित पैंथर की एक और मशाल का बुझ जाना

दलित पैंथर आंदोलन दलितों के स्वाभिमान, आक्रोश और विद्रोह का प्रतीक बनकर उभरा था। यह एक आक्रामक तेवर वाला आंदोलन था और इसने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। दलित पैंथर की स्थापना राजा ढाले, नामदेव ढसाल और जेवी पवार ने 29 मई, 1972 को की थी। इस आंदोलन ने दलितों की समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार की कार्यवाही की प्रतीक्षा किए बिना खुद उचित कार्यवाही करनी शुरू की थी। इसका नारा था- “हम किसी को छेड़ेंगे नहीं, पर किसी ने छेड़ा तो छोड़ेंगे नहीं।” इसने ऐसी आग को जन्म दिया, जिसकी आंच अब तक महसूस की जाती है।

दलित पैंथर का नाम सुनते ही अन्याय के खिलाफ खड़े दलित युवकों की तस्वीर उभरकर सामने आती है। इन दलित युवकों की सबसे अगली पंक्ति में इस आंदोलन की मशाल लिए राजा ढाले, नामदेव ढसाल और जेवी पवार दिखते हैं। 15 जनवरी, 2014 को नामदेव ढसाल नहीं रहे। कल (16 जुलाई, 2019) को दलित पैंथर की एक और मशाल तब बुझ गई, जब दलित की बुलंद आवाज राजा ढाले ने 78 वर्ष की उम्र में अंतिम विदा ली। आज (17 जुलाई को) राजा ढाले की अंत्येष्टि मुंबई स्थित दादर की चैत्यभूमि में की जाएगी।

राजा ढाले का जन्म महाराष्ट्र के सांगली जिले में 30 सितंबर  1940 में हुआ था। वे एक सच्चे आंबेडकरवादी थे। दलित पैंथर की चिंगारी को ज्वाला का रूप देने में राजा ढाले के लेख ‘काला स्वतंत्रता दिन’ की अहम भूमिका है। यह लेख 15 अगस्त, 1972 को ‘साधना’ के विशेषांक में प्रकाशित हुआ था। इसने दलित समाज को यह अहसास कराया कि देश और सरकार की नजर में दलितों और दलित-महिलाओं की गरिमा और सम्मान की कितनी कम कीमत है। इससे पैदा हुए आक्रोश और उत्तेजना ने पूरे महाराष्ट्र में दलित पैंथर को व्यापक रूप दे दिया। इस लेख में राजा ढाले ने भारत सरकार और कानून निर्माताओं से यह तीखा सवाल पूछा कि आपकी नजर में एक दलित महिला को नंगा करने और राष्ट्रीय झंडे के अपमान में से कौन-सा अपराध बड़ा है? और क्यों आपके कानून की नजर में दलित महिला को नंगा करने का अपराध राष्ट्रीय झंडे का अपमान करने की तुलना में नगण्य अपराध है? क्या राष्ट्रीय झंडा एक दलित महिला से ज्यादा मूल्यवान है?

उन्होंने लिखा- “यदि एक दलित महिला को नंगा किया जाता है, तो उस अपराध का अधिकतम दंड एक महीने की जेल की सजा या 50 रुपया आर्थिक दंड है। लेकिन, यदि कोई राष्ट्रीय झंडे का अपमान करता है, तो उस अपराध के लिए आर्थिक दंड 300 रुपया है।’’ उन्होंने कहा कि, ‘‘राष्ट्रीय झंडा कपड़े का एक टुकड़ा है; जबकि दलित महिला जीती-जागती इंसान है। क्या यह उचित है कि राष्ट्रीय झंडे के अपमान का दंड 300 रुपया हो और एक दलित महिला को नंगा करने का दंड सिर्फ 50 रुपया हो? …राष्ट्र इंसानों से बनता है। इंसान का अपमान राष्ट्रीय झंडे के अपमान से बड़ा अपमान नहीं है क्या?’’ ( “दलित पैंथर्स : एन ऑथोरिटेटिव हिस्ट्री”, जे.वी. पवार)

उनके यह लिखते ही हंगामा मच गया। उनके ऊपर केस दर्ज हुआ। लेकिन, इस लेख ने दलित पैंथर के विचारों की आंच को पूरे महाराष्ट्र में फैलाने में अहम भूमिका निभाई। 1 फरवरी, 1975 को राजा ढाले और उनके साथी उस समय सुर्खियों में आ गए, जब उन्होंने महाराष्ट्र की यात्रा पर आईं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गवई भाइयों की तथाकथित उच्च जातियों द्वारा द्वारा आंख फोड़ने की क्रूरतम घटना से अवगत कराया और गवई भाइयों को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलवाया। गवई भाइयों की दास्तान सुनकर इंदिरा गांधी की आंखें आंसुओं से भर गईं।

यह सब कुछ राजा ढाले और उनके साथियों ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और पुलिस महानिरीक्षक की उपस्थिति में उन्हें झिड़कते हुए किया। उन्होंने इंदिरा गांधी को इस बात से अवगत कराया कि कैसे महाराष्ट्र का पूरा प्रशासन ऊंची जातियों के अन्याय पर चुप्पी साधे हुए है। 2 फरवरी, 1975 को देशभर के अखबारों में गवई भाइयों और दलित पैंथर के नेताओं की मीटिंग की खबर छाई रही। राजा ढाले और उनके साथी दलितों और अन्याय के पीड़ित अन्य समूहों के नायक के रूप में स्थापित हो गए।

राजा ढाले अन्याय के खिलाफ संघर्षरत योद्धा एवं राजनेता होने के साथ विचारक, लेखक और सच्चे आंबेडकरवादी थे। दलित पैंथर के भंग होने के बाद भी उन्होंने अन्याय के लिए अपना संघर्ष जारी रखा। वे बिना थके आजीवन दलित-बहुजनों के लिए संघर्ष करते रहे। आखिरकार दलित पैंथर की एक और मशाल बुझ गई। एक सच्चे आंबेडकवादी राजे ढाले को अंतिम सलाम!

(डॉ. सिद्धार्थ फारवर्ड प्रेस के हिंदी प्रकाशन विभाग के संपादक हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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  • Dalit panther k Phir se jagne ka samay Aa Gaya hai dalito ko apne upar hone wale atyachar ka virodh pratirodh kar k hi kiya ja sakta hai

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