जन्नत का रास्ता बनी अटल टनल ने लाहौल-स्पीति को बनाया जहन्नुम

3 अक्टूबर 2020 के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रोहतांग में 2009 से बन रहे टनल को राष्ट्र के नाम समर्पित किया, जिसे नाम दिया गया अटल टनल। खबर है कि दो हफ़्तों में ही रोहतांग दर्रे को पार करते ही, लाहौल-स्पीति के जिस इलाके को एक दूसरी दुनिया के तौर पर जाना जाता था, वह देखते ही देखते नर्क बना रहे हैं पर्यटक।

32,000 की आबादी वाले हिमाचल के सबसे विशाल भौगोलिक क्षेत्र पर काबिज लाहौल-स्पीति में जिस बात की आशंका व्यक्त की जा रही थी, वह सच होती नजर आ रही है। रोहतांग टनल के उद्घाटन ने लाहौल घाटी में मौजूद चन्द्रा, भागा और चेनाब के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को पूरी तरह से असहाय बना डाला है। यहां पर आने वाले इन पर्यटकों ने जहां-तहां कूड़-कबाड़ा फेंकने, प्रदूषण फैलाने, खुले में शौच, चोरी-चकारी सहित छेड़छाड़ की घटनाओं को भी अंजाम देना शुरू कर दिया है, जिससे यह इलाका बेहद आशंकित है।

लाहौल घाटी में जहां आजतक सड़क किनारे आलुओं के बोरे बेखटके पड़े रहते थे, और चोरी की कोई वारदात यहां पर सुनने को नहीं मिलती थी, अब वह आये-दिन की बात हो चुकी है। सेब के बागान की बर्बादी का नजारा तो खून के आंसू रुला रहा है। सड़क किनारे जो भी उपज थी वह सब लुट चुकी है, और बागान तहस-नहस हैं। गोया गजनी वाली लूटपाट की किंवदंती दृष्टिगोचर हो रही हो। इसके साथ ही लाहौल की महिलाओं के साथ दुर्व्यहार और छेड़छाड़ की भी कुछ बेहूदी घटनाएं पिछले दो हफ्तों में सुनने को मिली हैं। इतने कम समय में रोहतांग टनल के खुलने से होने वाले दुष्परिणामों को देखते हुए स्थानीय निवासी सदमे की स्थिति में हैं।

इस बारे में सेव लाहौल सोसाइटी के अध्यक्ष प्रेम कटोच कहते हैं, “हमने अपनी चिंताओं और सवालों से संबंधित अधिकारियों को सूचित कर दिया है, यदि इसे तत्काल नहीं रोका गया और इस पर कार्रवाई नहीं की गई तो चीजें खराब हो सकती हैं। लाहौल का समाज पारंपरिक तौर पर बेहद सभ्य और सहिष्णुता लिए हुए है। टूरिस्ट यदि यहां की यात्रा पर आते हैं तो हमें इस पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन हम किसी प्रकार की खुराफात की इजाजत नहीं दे सकते या नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाने को बर्दाश्त नहीं करने वाले। खासतौर पर स्वच्छता के साथ किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करने वाले।” 

स्थानीय प्रशासन को भी इस मामले में कहीं न कहीं दोषी करार दिया जा सकता है। इस आल वेदर रोड के खुल जाने से अब यह इलाका बारहों महीने के लिए शेष भारत से कनेक्ट हो चुका है और मात्र कुछ किलोमीटर के टनल की यात्रा से बिल्कुल ही अलग संसार में आप पहुंच जाते हैं, लेकिन सिस्सू से लेकर केलोंग के बीच में स्थानीय प्रशासन ने एक भी सार्वजनिक शौचालय का निर्माण अभी तक नहीं किया है और न ही कोई चेतावनी वाले साइन बोर्ड ही लगाए हैं। आने वाले पर्यटक जहां-तहां चिप्स, नूडल, पानी, शराब और बियर की बोतलें और केन फेंक रहे हैं।

तकरीबन 900-1000 वाहन रोजाना मनाली की ओर से लाहौल घाटी में प्रवेश कर रहे हैं। एक स्थानीय निवासी के अनुसार, “कई पर्यटक स्थानीय महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, जिसे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। ऐसी ही एक घटना जह्लमा क्षेत्र में देखने को मिली थी, जिसमें लोगों ने एक पर्यटक द्वारा दुर्व्यवहार के उपरांत एक महिला को रोते हुए पाया था।  पीड़िता ने अपनी आपबीती स्थानीय लोगों से साझा की थी, जिन्होंने हमलावरों को यहां खुराफात न करने की चेतावनी दी थी।” इस संबंध में लाहौल एवं स्पीति जिला परिषद अध्यक्ष रमेश रुल्बा का कहना है, “झालमा की घटना के संबंध में हम जिला प्रशासन से मिले थे और ऐसे कानून का उल्लंघन करने वालों पर कड़ी नजर रखने की मांग की है।”

ज्ञातव्य है कि लाहौल और स्पीति एक समय दो अलग-अलग जिले थे, जिन्हें 1960 में मिलाकर एक जिला बनाया गया। देश के कुल 640 जिलों में यह चौथा सबसे कम जनसंख्या वाला जिला है। 2001 में जहां यहां की आबादी 33,224 थी वह 2011 में घटकर 31,564 रह गई है। जनसंख्या घनत्व इतना विरल है कि एक इस्क्वायर किलोमीटर में दो इंसान निवास करते हैं। ज्यादातर निवासियों की बोलचाल की भाषा किन्नौरी है। इसके बाद पट्टानी, भोटिया, हिंदी भाषा इस्तेमाल में आती है।

इस बेहद दूरस्थ इलाके के जनजातीय लोग इस टनल के बन जाने के बाद से अचानक से तथाकथित सभ्यता से रूबरू हो रहे हैं और उनके शांत प्राकृतिक जीवन जिसे पहाड़ की तरह ही शांत, कठोर संघर्षों वाला कह सकते हैं, को मानो जड़ से हिलाने का काम इस टनल ने कर डाला है। हमारी इस मोटर वाहनों के साथ महानगरीय सभ्यता की पहली मार भले ही लाहौल स्पीति के जनजातीय लोग भुगतेंगे, लेकिन जल्द ही यह समूचे इलाके की नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को झकझोरने के लिए काफी है, जिसके दुष्परिणाम वापस हम शहरी दरिद्रों को अंततः देखने को मिलेंगे।

जिस प्रकार से आज विकास पुत्र को पालने पोसने और उसी के जरिये अपने कामों को दिखाने की हर केंद्र सरकार के पास सबसे बड़ी उपलब्धि नजर आती है, उसने मध्य भारत के आदिवासी इलाकों की धरती को उखाड़-पछाड़ कर रख दिया है, वह भयावह है। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश एवं झारखंड जैसे राज्यों से खनिज संपदा के लिए कॉर्पोरेट और बहुराष्ट्रीय निगम जल्द से जल्द लूट को अंजाम देना चाहते हैं।

उसी प्रकार से पहाड़ी इलाकों एवं हिमालयी क्षेत्रों में महानगरीय प्रदूषण से दो-चार दिनों की निजात पाने के लिए जिस तरह से लाखों की संख्या में ये सैलानी आजकल टिड्डों की तरह आक्रामक मुद्रा में निकलते हैं, उससे सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरणीय प्रदूषण जिस मात्रा में इन दूर दराज के हिमालयी इलाकों में फ़ैलता जा रहा है, वह आने वाले समय के भयावह संकेत को दर्शा रहा है। (इनपुट: ट्रिब्यून एवं आउटलुक से।)

(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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