तेरे बड़े मक्कार बेटे हैं: पाश

क्रांतिकारी-कवि अवतार सिंह सिंह जो ‘पाश’ के नाम से मशहूर हैं, वह हम सबका बहुत ही प्यारा साथी था। उससे आखरी मुलाक़ात मुझे अब भी याद है। वह 28-29 दिसंबर 1987 की रात थी। हर साल की तरह उस दिन भी जालंधर में ‘देशभगत यादगार हाल’ में गदर पार्टी के शहीदों की याद में ‘गदरी बाबाओं का मेला’ चल रहा था। महान नाटककार ‘भाजी’ गुरशरण सिंह तीन बार पहले भी मंच से उसे कविता पाठ करने के लिए आमंत्रित कर चुके थे। लेकिन पाश गायब था। अचानक वह मंच के पीछे आए तो मैं काबू आ गया। उन्होंने मुझसे कहा कि ‘पाश जहाँ कहीं भी है उसे ढूंढ कर लाओ’।

ऑडिटोरियम से मैं बाहर निकला तो सामने से वह मुझे आता हुआ दिखा। उसके चेहरे पर वही सदाबहार मुस्कुराहट थी। एक शरारती बच्चे की मुस्कुराहट, जो जानता है कि आप नहीं जानते उसने क्या शरारत की है। दायें कान की ओर ढलकी हुई लाल रंग की ऊनी टोपी, सफ़ेद कुर्ता-पाजामा, हल्के भूरे रंग की लोई (गर्म चादर) और पैरों में मोज्जे (पंजाबी जूती)। इससे पहले कि मैं कुछ कहता उसने मुझे गले से लगाया और कहा ‘परसों गाँव आ जाओ। रात मेरे पास ही रुकना। भाजी से कहना मैं अभी आया’। बिना मेरी बात सुने वह पीछे मुड़ा और अंधेरे में लिपटी भीड़ में कहीं खो गया। यही हमारी आखिरी मुलाक़ात थी। 

उन दिनों मैं ‘दिनमान’ से जुड़ा हुआ था। जैसे आजकल ‘हिन्दू राष्ट्र’ का बोलबाला है उन दिनों ‘खालसा राष्ट्र’ का बोलबाला था। खालिस्तानी आतंक ज़ोरों पर था। पाश, जो हिट-लिस्ट में था, कुछ अरसा पहले ही वह अमेरिका में डेढ़ साल बिताकर लौटा था। वहां जाकर वह एक ऐसी पत्रिका के सम्पादक के यहां ठहरा जो खालिस्तानी दहशतगर्दों का प्रवक्ता बना हुआ था पर नक्सलवादी आंदोलन के दिनों में पाश और उसकी विचारधारा से जुड़ा रहा था। सभी को बड़ी हैरत हुई। अमरजीत चंदन जैसे पुराने मित्रों ने इस बात का विरोध भी किया। परंतु पाश वहां लगभग डेढ़-दो महीने तक रहा।

दरअसल पाश उनके बीच रहकर जानना चाहता था कि विदेशों में खालसा राष्ट्रवाद के संकल्प के पीछे ‘राजनीतिक शरण’ की आड़ में किस वर्ग के लोग हैं और वे अपना आंदोलन क्यों और कैसे चलाते हैं। यह भेद तब खुला जब उसने “एंटी-47” नामक एक द्विभाषी पत्रिका के सम्पादन का कार्यभार संभाला और डटकर साम्प्रदायिक और धार्मिक राष्ट्रवाद के खिलाफ लिखना आरम्भ कर दिया। पत्रिका में अपनी रचनाओं के ज़रिए उसने विदेशों में बसे भारतीय पंजाबियों खासकर सिखों की खालिस्तान के संकल्प के पीछे छिपे वर्ग-हितों का खासा पर्दाफाश किया।

इसके साथ-साथ अमरीका में उसने खालिस्तानी दहशतगर्दों के खिलाफ “एंटी-47 फ्रंट’ का गठन करने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। फ्रंट ने बड़ी संख्या में लोगों का ध्यानाकर्षित किया और साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ़ लोग अपनी आवाज़ बुलंद करने लगे थे। 

पाश की इन्हीं गतिविधियों को लेकर मैं पाश का इंटरव्यू करना चाहता था। तीन-चार दिन मैं भी उसके गाँव नहीं जा सका। फिर पता चला कि वह दिल्ली चला गया है। दिल्ली में तलाशा तो मित्रों ने बताया चंडीगढ़ में हैं। पंजाबी कवि सुरजीत पातर से खबर मिली कि चंडीगढ़ से वह लुधियाना होते हुए अपने गाव तलवंडी सलेम लौट गया था। दो चार दिनों में उसे अमेरिका लौट जाना था। तलवंडी सलेम के निकटवर्ती गाँव मल्लियां में 4 प्रवासी खेत-मजदूरों की दहशतगर्दों ने हत्या कर दी थी।

पाश भी घटनास्थल पर गया था और लाशों के पास खड़े होकर उसने बड़े आक्रोश में कहा था, “काश मैं यहाँ होता तो उन पर टूट पड़ता।“ पाश के स्वभाव से शायद हत्यारे भी वाकिफ़ थे। उन्होंने पाश पर पीठ पीछे से उस वक़्त गोलियों की बौछार की जब गाँव से बाहर खेतों में ट्यूबवेल पर अपने मित्र हंसराज के साथ नहाने की तैयारी कर रहा था। 

अब देश के इतिहास में 23 मार्च का दिन जनविरोधी हुकूमत, धार्मिक कट्टरता, और सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाले दो इंकलाबियों शहीद भगत सिंह और पाश की शहादत के लिए याद किया जाता है। शासक और शासितों के बीच जब तक जंग जारी रहेगी शहीद भगत सिंह का दिया हुआ नारा ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ और पाश की कवितायें योद्धाओं की ज़ुबान पर हमेशा छाई रहेंगी। आज हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं, डरी हुई युवा पीढ़ी के सामने उसकी कविता ‘युद्ध और शांति’ कितनी प्रासंगिक है:

डर कभी हमारे हाथों पर चुनौती बनकर उग आया 

डर कभी हमारे सिरों पर पगड़ी बनकर सज गया

डर कभी हमारे मन में खूबसूरती बनकर महका

डर कभी रूहों में सज्जनता बन गया

कभी होठों पर चुगली बनकर छाया

हम, ऐ ज़िन्दगी, जिन्होंने युद्ध नहीं किया 

तेरे बड़े मक्कार बेटे हैं….. 

इसमें कोई शक नहीं कि शासकों के लिए पाश हमारे वक़्तों का ‘सबसे ख़तरनाक’ कवि था, जिसने सारी दुनिया के शासितों को यह सिखाया कि सपनों को ज़िंदा रखना कितना जरूरी होता है। 

“मैंने सुना है कि  मेरे क़त्ल का/मंसूबा राजधानी में मेरी/पैदाइश से पहले ही/बन चुका था”
ये पंक्तियां जिस ‘पाश’ ने 70 के दशक में लिखी थीं, वह अब हमारे बीच नहीं रहा । शहीद भगत सिंह के शहीदी दिवस (2 3 मार्च) की सुबह दहशतगर्दों द्वारा उसे अपने पैतृक गांव तलवंडी सलेम में कत्ल कर दिया गया ।  

पाश की सबसे पहली नज्म है…लोहा । इसी नज्म पर उन्होंने अपने प्रथम कविता संग्रह को ‘लोह कथा” का नाम दिया था । पंजाबी साहित्य के आलोचक दलजीत सिंह के अनुसार पाश ने पहले कविता संग्रह से ही यह भ्रम तोड़ डाला कि कविता सिर्फ नाजुक शब्दों और खयालों की देन होती है । 

1974 में उसका दूसरा कविता संग्रह “उड़दे बाजां मगर प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की भी तमाम कविताएं “लोहकथा की कविताओं जैसी पैनी और तेवरयुक्त थीं । -“उड़दे बाजां मगर’ में संकलित गीत ‘करूखगै दीए कुरुलीए मीनाए बण जांई’ आज भी ग्रामीण युवाओं की जुबां से नहीं उतरा। मोगा गोली कांड को समर्पित उसकी कविताएं “बाडरमृ ईज ही सही’, ‘हथ’, “असी लड़गि साथी’ और

‘पुलिस दे सिपाही” पाश की महान काव्य प्रतिभा की मिसाल बनीं । सितम्बर 1978 में पाश की तीसरा संग्रह “साडे समियां विच प्रकाशत होने तक उसकी राजनीतिक गतिविधियां मंद पड़ गई थीं । पाश ने भी स्वीकारा कि सियासी सरगर्मियों से हाथ खींच लेने से उसकी कविता में अन्तर्मुखता बढ़ी । ‘साडे समिया विच’ में संकलित कविताओं के बारे में ‘ आलोचकों का मानना है कि दरअसल पाश की जिंदगी और शायरी का वह दौर, जिसमें उसने ‘साडे समियां विच’ में शामिल कविताएं पंजाबी पाठकों को दी, जीवन और कविता को नये सिरे से समझने और सृजन करने का दौर कहा जा सकता है । पाश के अपने शब्दों में ‘ ‘ पिछले दिनों की किताबों में मेरी लगभग सभी कविताएं लोहे की जंजीरों के प्रति मनुष्य की अनुभवशीलता थीं। इस किताब में मेरे सारे अहसान उन अदृश्य जंजीरों के साथ जूझने और खीझने का इतिहास है जो लोहे की नहीं पर लोहा 

डन्हीं का है ।” 29 नवम्बर 1950 को गांग तलवंडी सलेम में जन्मे पाश ने मेजर मोहन सिंह के घर ग्यारहवीं तक की पढ़ाई की थी । पर बेसिक ट्रेनिंग टीचर का कोर्स करके वह मास्टर कहलाने के योग्य बन गये थे । उनके एक मित्र पाश को एक स्वाभिमानी व्यक्ति मानते थे । इसलिए किसी विधायक या मंत्री के तलवे चाटकर सरकारी नौकरी प्राप्त करने की बजाय, पाश ने बच्चों का एक छोटा सा स्कूल खोला था, जिसके सफाई कर्मचारी, चपरासी और प्रिंसिपल भी वही थे । रेडियो तथा दूरदर्शन ने पाश को कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया परन्तु उन्होंने कभी भी यह निमंत्रण नहीं स्वीकार किया ।

बड़े-बड़े मुशायरों में अपना कलाम सुनाने के लिए भी बुलाया जाता था, लेकिन वह भी पाश को पसंद नहीं था। हां, यदि उनके साथी देश के किसी कोने से भी संदेश भेजें, तो वह पहाड़ चीरकर भी उनके पास पहुंचते थे। देखने वालों को वह चाहे और कुछ भी दिखाई देते हों पर शायर नहीं लगते थे। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि वह पाश तो नकली है । अंदर ही अंदर मुस्कराने की उसकी अदा किसी को भी संदेह में डाल देती थी कि वह आदमी तो “नान सीरियस’ है। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत थी तथा गर्म शायरी करने वाला पाश भीतर से बहुत ही नम्र स्वभाव वाला था । किसी साथी का सुंदर शेर सुनकर वह अपनी सभी नज्मों को उस शेर पर कुर्बान करने को तैयार हो जाता था।

सबसे बड़ी बात थी उसकी कथनी और करनी। उसने जैसा लिखा, व्यवहार में भी वैसे ही जिया। पिछले दिनों तलवंडी सलेम के निकटवर्ती गांव मल्लरैंयां में 4 खेतिहरों की दहशतगर्दों ने हत्या कर दी । पाश भी घटनास्थल पर गये थे और बड़े आक्रोश में कहा था, “काश ! मैं उस वक्त वहां होता तो उन पर टूट पड़ता।” पाश के स्वभाव से शायद कातिल भी वाकिफ थे। और उन्होंने पाश पर पीछे से उस वक्त गोलियों की बौछार की जब वह गांव के बाहर खेतों में ट्यूबवेल पर नहाने की तैयारी कर रहे थे। अगले दिन ही पाश को अमरीका लौट जाना था जहां उनकी पत्नी रानी और नन्हीं बच्ची टिकल उनका इंतजार कर रही थीं। बेशक पाश आज हमारे बीच नहीं रहे परंतु जन कवि पाश जनता के बीच अपनी कविताओं की मार्फत हमेशा जिंदा रहेगा।

28 यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही पाश प्रेम के अर्थ तलाशने लगा था। उन दिनों पाश को शिवकुमार बटालवी जैसे “विरहा के सुरुतान’ के प्रेम गीतों ने बहुत प्रभावित किया । यहीं से उसकी काव्य यात्रा शुरू हुई। मगर शीघ्र ही पाश के दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन भी आया। यह नक्सलवादी आंदोलन के उभार के दिन थे। पाश का ध्यान बाप के धूप से झुलसे हुए जिस्म, मां के पैरों की बिवाइयों, पनिहारिन की उंगलियों से रिसते राग और सामी के काले स्याह होंठों सी रात की ओर गया। आंदोलन ने उसके चिंतन और लेखन को एक नई दिशा और ऊर्जा प्रदान की ।

उसने शोषणहीन समाज और सुनहरे भविष्य के अपने सपनों को शब्दों के साये में ढालना प्रारम्भ कर दिया। पाश जटिल विषयों और अपने अंदाजे बयां और तिलिस्म से परे क्रांतिकारी वैचारिक दिशा और स्पष्ट ज़नपक्षधरता के साथ सहज और सरल शैली में कवितायें लिखने लगा । उसकी कवितायें निसंदेह आंदोलन के लिए कूच नगाड़ा साबित हुईं। पाश शीघ्र ही पंजाब के पाब्लो नेरूदा के रूप में जाना जाने लगा।  

परन्तु पाश को तब तक शायद वजूद में एक अधूरापन का अहसास खल रहा था और वह सक्रिय रूप से संघर्षों से जुड़ गया। कविता के बारे में पाश का मानना था कि वर्ग हितों के टकराव में कविता विचारधारक हथियार होती है । यह हथियार उसने` बखूबी उठाया और मौजूदा संविधान और व्यवस्था के प्रति अपनी अविश्वसनीयता का इज़हार किया । भूमिगत जीवन, गिरफ्तारी, बर्बर यातनाओं का लंबा सिलसिला और जेल यात्रा ने उसकी भाषा को और पैनापन प्रदान किया। जेल में भी पाश ” लिखता रहा । इसके साथ-साथ अपने कवि मित्रों से उनकी कविताओं व अन्य विषयों के बारे में अपने विचार खतो-खिताबत के ज़रिये जाहिर करता रहा । .

आँदोलन में व्यापक बिखराव और अपनी रिहाई के बाद पाश विचारधारा के प्रति पूर्णरूपेण प्रतिबद्ध होते हुए भी किसी संगठन से नहीं जुड़ पाया। सन 77 में उसने लिखा कि लिखने के मामले में आपकी प्रतिबद्धता आपके अंतर्मन से है। सभा सोसाइटियों की प्रतिबद्धता आपकी कल्पना को सूर्यमुखी बनाती हैं, आपकी सूझ की कल्पना मुखी वही बना सकती। सन 78 में उसने स्वीकार किया कि सियासी सरगर्मियों से हाथ खींच लेने से उसकी कविता में अंतर्मुखता बढ़ी । इसी दौर में पाश के रचना कर्म में गतिरुद्धता आ गई थी। फिर भी ज्वलंत मुद्दों पर उसकी रचनायें गाहे-बगाहे छपतीं और चर्चा का विषय बनती रहीं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश भर में किए गये व्यापक नरसंहार के संदर्भ में उसने एक कविता ‘बेदखली के लिए विनय पत्र’ लिखी। इस कविता को लेकर भी काफी चर्चा हुई। उसने लिखा था

…मैंने उम्र भर उसके खिलाफ सोचा और लिखा है 

अगर आज उसके शोक में सारा देश शामिल है तो इस देश से मेरा नाम काट दो

मैं उस पायलट की धूर्त आँखों में चुभता हुआ भारत हूं। हाँ मैं भारत हूं’ चुभता हुआ उसकी आंखों में। अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है तो मेरा नाम उसमें से अभी काट दो। 

पंजाब में धार्मिक रूढ़िवाद का नाग जब अपना फन फैला रहा था और अधिकांश कलमें खामोश थीं तो उसने भिंडरावाले को संबोधित करते हुए व्यंग्य कविता “धर्म दीक्षा के लिए निवेदन पत्र’ लिखकर खामोशी भंग की। पाश ने पंजाब में आतंकवादी हिंसा के सामने छाई कायर चुप्पी को भी बड़े कटु शब्दों में झिंझोड़ा जब उसने अपनी कविता ‘सबसे खतरनाक’ में लिखा…

“सबसे खतरनाक वह चाँद होता है जो हर हत्याकाँड के बाद वीरान हुए आंगनों में चढ़ता है लेकिन तुम्हारी आंखों में मित्रों की तरह नहीं गड़ता है’ जाहिर है पायलट की आंखों में चुभता हुआ भारत साम्प्रदायिक शक्तियों की आंखों में भी चुभने लग गया था। पाश दोनों का ही साझा शत्रु बन गया था । इसलिए और सिर्फ इसलिए जब पाश पंजाब आया हुआ था, तभी उसकी हत्या कर दी गई। 

इस प्रकार जीवन के आखिरी क्षणों में फिर एक बार पाश न सिर्फ जनपक्षीय लेखन बल्कि जनपक्षीय आंदोलनों से भी जुड़ा हुआ था। मात्र कवि ही नहीं था, एक मुकम्मल इंसान था, एक मुकम्मल शख्सियत था…पाश; जिसकी हत्या कर दी गई। जाहिर है उसके कातिलों का वर्ग चरित्र भी वही है जो उसे सलाखों में कैद करने वालों का है। पाश की हत्या पंजाब ही नहीं, देश भर के जनवादी लेखकों बुद्धिजीवियों के लिए चुनौती है जिसे पाश की तरह निडरता से स्वीकार करना ही होगा। –

(देवेन्द्र पाल 40 वर्षों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। दिनमान और जनसत्ता में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं। इसके अलावा संस्कृत कर्म और जनांदोलनों से भी उनका बराबर का सरोकार रहा है। आप आजकल लुधियाना में रहते हैं।)

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