शहादत सप्ताह: दलितों, सोए हुए शेरों ! उठो और बगावत कर दो- भगत सिंह

23 मार्च 1931 को साढे तेईस वर्ष की उम्र में फांसी पर चढ़ा दिए गए भगत सिंह ( 28 सितम्बर 1907 – 23 मार्च 1931) ने प्रचुर लेखन किया है। अपने लेखन में वे गंभीर अध्येता और चिंतक के रूप में सामने आते हैं। उन्होंने ‘अछूत समस्या’ ( आज के संदर्भ में दलित) शीर्षक से जून 1928 में ‘किरती’ में एक लेख लिखा। उस समय उनकी उम्र करीब 21 वर्ष थी। इसके अलावा ‘धर्म और स्वतंत्रता संग्राम’ शीर्षक लेख में भी वे इस समस्या का जिक्र करते हैं। यह लेख मई 1928 में ‘किरती’ में ही प्रकाशित हुआ था। 

उनकी जेल डायरी में भी अछूत समस्या पर टिप्पणियां मिलती हैं। ‘अछूत समस्या’ शीर्षक लेख की शुरूआत में ही वे छूत-अछूत जैसी स्थिति को शर्मनाक कहते हैं और व्यंग्यात्मक तरीके से इसे मान्यता देने  वाले समाज, धर्म और ईश्वर पर करारी चोट करते हुए लिखते हैं, “ हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी देश में नहीं हुए। यहां अजब-गजब सवाल उठते रहते हैं। एक अहम सवाल अछूत-समस्या है। समस्या यह है कि 30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जो 6 करोड़ लोग ‘अछूत’ कहलाते हैं। उनके स्पर्श से धर्म भ्रष्ट हो जायेगा। उनके मंदिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे। कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआं अपवित्र हो जाएगा। यह सवाल बीसवीं सदी में किए जा रहे हैं, जिन्हें सुनते ही शर्म आती है।” ( अछूत समस्या,1928) जिस समस्या पर बीसवीं सदी में भगत सिंह को शर्म आती थी, उसे 21वीं सदी में भी भारत ढो रहा है और हिंदुओं का एक  हिस्सा इस पर आज भी गर्व करता है।

अपने इस लेख में भगत सिंह भारत के तथाकथित आध्यात्मिक देश होने के गर्वोक्ति को खारिज करते हुए कहते हैं जो देश मनुष्य को मनुष्य होने का दर्जा नहीं दे सकता है, उसे खुद को आध्यात्मिक देश कहने का हक क्या है? वे यहीं नहीं रूकते, वे भारत की तुलना में यूरोपीय देशों को आदर्श की तरह प्रस्तुत करते हैं। जिन्होंने हर मनुष्य की समानता की घोषणा कर दिया है। वे डॉ. आंबेडकर द्वारा ‘मूकनायक’ ( समाचार-पत्र) में स्वराज के संदर्भ में उठाए गए प्रश्नों की तरह यह भी प्रश्न उठाते हैं कि जो देश और लोग अपने ही देश के लोगों को समानता देने को तैयार नहीं हैं, क्या उन्हें अंग्रेजों से समानता का हक मांगने का अधिकार है? 

इस संदर्भ में वे लिखते हैं- “हम उलाहना देते हैं कि हमारे साथ विदेशों में अच्छा सलूक नहीं होता। अंग्रेज शासन हमें अंग्रजों के समान नहीं समझता, लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार है।”  इस संदर्भ में वे बम्बई कौंसिल के सदस्य नूर मुहम्मद को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि जब तुम एक इंसान को समान अधिकार देने से भी इंकार करते हो, तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए? 

हिंदू धर्म के भीतर जाति और उसे जुड़ी छूत-अछूत की समस्या पर फुले-आंबेडकर की शैली में तीखी टिप्पणी करते हुए भगत सिंह लिखते हैं- “ कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में नि:संग फिरता है, लेकिन एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है।” अछूत समस्या पर अपने इस लंबे लेख में वे इस समस्या के निदान के उपायों पर भी विचार करते हैं। वे कहते हैं कि सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि सभी इंसान समान हैं और न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ है और न ही कार्य-विभाजन से। वे हिंदुओं के पुनर्जन्म और कर्मफल सिद्धांत को जाति व्यवस्था कोे जायज ठहराने और जो लोग इसका शिकार हैं, उनकी स्वीकृति प्राप्त करके का उपाय मानते हैं। जाति व्यवस्था से पैदा हुई ‘अछूत समस्या ’ ने किस तरह श्रम करने वालों से घृणा करना सिखाया, इस पर भगत सिंह विस्तार से रोशनी डालते हैं।

भगत सिंह का मानना था कि इस समस्या के समाधान के लिए जरूरी है कि जिन्हें अछूत कहकर अपमानित किया गया है, वे लोग भी खुद को संगठित करके इसके खिलाफ खड़े हों। वे लिखते हैं, “यह काम उतने समय तक नहीं हो सकता, जितने समय तक ‘अछूत’ कौंमें अपने को संगठित न कर लें।” भगत सिंह ‘अछूतों’ द्वारा संगठित होकर अलग प्रतिनिधित्व की मांग का भी समर्थन करते हुए लिखते हैं, “ हम तो समझते हैं कि उनका स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना या मुस्लिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की मांग करना बहुत आशाजनक संकेत है।” फिर वे भारतीय इतिहास में अछूत कहे जाने वाले समाज की शानदार भूमिका को रेखांकित करते हुए उनसे संगठित होने का आह्वान करते है। 

इस संदर्भ में वे लिखते हैं, “हम तो साफ कहते हैं कि उठो। अछूत कहे जाने वाले असली जन सवेकों तथा भाइयों! उठो, अपना इतिहास देखो। गुरु गोविन्द सिंह की फौज की असली शक्ति तुम्हीं थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे ही सब कुछ कर सके, जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है। तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं।..उठो अपनी शक्ति पहचानो। संगठनबद्ध हो जाओ। असल में स्वयं की कोशिश के बिना कुछ भी न मिल सकेगा।” इतना ही नहीं, वे ‘अछूत ’ कही जाने वाली कौम से यह भी कहते हैं कि बिना शक्तिशाली बने और जो तुम्हें अछूत समझते हैं, उन्हें अपनी ताकत दिखाए, समानता का अधिकार हासिल नहीं किया जा सकता है। 

वे लिखते हैं, “ कहावत है- ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते।’ अर्थात संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दो। तब देखना, कोई भी तुम्हारे अधिकारों को देने से इंकार करने की जुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों का खुराक मत बनो। दूसरों के मुंह की ओर मत ताको।” 

वे मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र की तर्ज पर दलितों ( अछूतों) का आह्वान करते हैं कि “संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ भी हानि न होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी। उठो, और वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आंदोलनों से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीति और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही देश का मुख्य आधार हो। सोए हुए शेरों ! उठो और बगावत कर दो।”

यह पूरा लेख हमें इस निष्कर्ष की ओर ले जाता है कि छूत-अछूत का बंटवारा और दलितों (अछूतों) को जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता का अधिकार सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के बिना संभव नहीं है। इस क्रांति की अगुआ पंक्ति के योद्धा के रूप में वे दलितों (अछूतों) को देखते हैं। पूरे लेख में भगत सिंह दलितों ( अछूतों) को मार्क्स के सर्वहारा की तरह संबोधित करते हुए दिखते हैं।

(डॉ. सिद्धार्थ वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

डॉ. सिद्धार्थ
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