जन्मदिवस पर विशेष : प्रेमचंद का साहित्य ही बन गया था आज़ादी की लड़ाई की मशाल

इतिहास के जिस दौर में प्रेमचंद ने कथा-लेखन की शुरुआत की, उस समय उनके समक्ष दो तरह की चुनौतियां प्रमुख थीं: राष्ट्र की मुक्ति और कहानी व उपन्यास विधा को स्थापित करना। देश अंग्रेजी सत्ता की गुलामी में जकड़ा था। इस गुलामी से मुक्ति के लिए कई तरह के आंदोलन हो रहे थे। तरह-तरह के लोग इनमें शामिल थे। इन लोगों के अपने अंतर्विरोध भी थे। कुछ लोगों का मानना था कि इन अंतर्विरोधों को भूल कर, सबको इस आंदोलन में शरीक होना चाहिए। जबकि कुछ लोग ऐसे थे जो भारतीय सामाजिक संरचना में निहित शोषणामूलक आयाम देख-समझ लेते थे परन्तु अंग्रेजी दासता और औपनिवेशिक सत्ता-संरचना में निहित यातना, अत्याचार और क्रूरता उनकी दृष्टि से ओझल रहता था या इसे नजरंदाज करते थे। नतीजतन ऐसे लोगों की सारी कवायद ब्रिटिश सत्ता का हित-समर्थन करती थी।

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि ऐसे लोग भी थे जो स्वाधीनता आंदोलन के महत्व को समझते हुए इसका समर्थन करते थे, लेकिन इसके साथ ही इसके अंतर्विरोधों को भी उजागर करते थे, इसे ना भूलने पर जोर देते थे। सामंतवाद, जमीदारी प्रथा और जाति प्रथा के भीतर मौजूद छुआछूत ऐसे ही अंतर्विरोध थे। प्रेमचंद अंतर्विरोध की जटिलता और शोषणमूलक पहलू को समझते हुए इसका विरोध करते थे; साथ ही आजादी की लड़ाई का प्राणपण से समर्थन भी।

बतौर कथाकार प्रेमचंद के समक्ष विधा से जुड़ी कई चुनौतियां थीं। कहानी व उपन्यास का आरंभ हो चुका था। जनता के बीच इन का प्रचार-प्रसार कर महत्ता स्थापित करनी थी। कहानी एवं उपन्यास विधा का ढांचा पश्चिम से आया था। इसको देसी रूप प्रदान कर, अपने अनुरूप गढ़ना आवश्यक था। अपने कथा-संग्रह ‘प्रेम द्वादशी’ की भूमिका में प्रेमचंद ने लिखा है, ”हमने उपन्यास और गल्प का कलेवर यूरोप से लिया है, लेकिन हमें यह प्रयत्न करना होगा कि उस कलेवर में भारतीय आत्मा सुरक्षित रहे।”

प्रेमचंद उन लोगों में से नहीं थे, जिन्हें गल्फ का यूरोपीय ढांचा स्वीकार करने से परहेज था; उन लोगों में से भी नहीं, जो इसके यूरोपीय ढांचे का उपयोग करते थे, लेकिन स्वीकार नहीं करते थे।”यूरोपीय ढांचे के भीतर भारतीय आत्मा” कायम रखना प्रेमचंद के समक्ष चुनौती थी। ऐसा करके तत्कालीन लेखक-विचारक अंग्रेजी सत्ता के वर्चस्व वादी सांस्कृतिक तर्क का प्रतिरोधी विमर्श गढ़ रहे थे। प्रेमचंद ऐसे ही लेखकों-विचारकों की श्रेणी में आते हैं।

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में जिन थोड़े लेखकों ने भागीदारी की, (फणीश्वर नाथ रेणु के शब्दों में कहें तो न सिर्फ कलम से बल्कि काया से भी) प्रेमचंद उनमें से एक थे। उन्होंने स्वाधीनता-आंदोलन के लिए न सिर्फ पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कथा लिखे, अपितु काया से शिरकत भी की। उनके कहानी-लेखन का आरंभ देश-भक्ति की कहानियों से हुआ, जिसका सभी दृष्टियों से अनवरत विकास होता गया।

प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह ‘सोजे-वतन’ था। इस संग्रह की कहानियों में देशभक्ति का भाव मिलता है। देशप्रेम की ऐसी कहानियां उस समय हिंदी-उर्दू किसी भाषा में नहीं लिखी गई थीं। देशप्रेम की कहानी की शुरुआत यहीं से होती है। इसकी एक कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रत्न’ का अंतिम वाक्य है, “खून का वह आखिरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरे, दुनिया की सबसे अनमोल चीज है।” इसी भाव की वजह से अंग्रेजी सत्ता ने ‘सोजे-वतन’ की प्रतियां जलवायी थीं।

उन दिनों वह नवाब राय नाम से लिखते थे। अपने मित्र दया नारायण निगम के सुझाव पर, उन्होंने अपना नाम बदलकर, प्रेमचंद रख लिया। प्रेमचंद नाम से स्वाधीनता-आंदोलन से सम्बंधित ‘उपदेश’ शीर्षक से उनकी पहली कहानी छपी। उस समय स्वाधीनता आंदोलन को जातीय आंदोलन भी कहा जाता था। सन 1917 में प्रकाशित इस कहानी से 1935 में प्रकाशित ‘कातिल की मां’ तक की कहानियों के कई स्वर हैं। उनकी कुछ कहानियों में स्वाधीनता आंदोलन या उसके विभिन्न कार्यक्रमों को सीधे-सीधे विषय बनाया गया है। कुछ कहानियों का कोई पात्र स्वाधीनता- आंदोलन से जुड़ा है तो कुछ कहानियों में स्वाधीनता-आंदोलन के दौरान घटी सच्ची घटनाओं को विषय बनाया गया है। कुछ कहानियों का विषय दूसरा है, लेकिन संदर्भ स्वाधीनता- आंदोलन है।

प्रेमचंद अपने दौर के महान लेखक थे। महान लेखक अपने दौर के महत्त्वपूर्ण विचारों से सम्बंध बनाता है। प्रेमचंद के विचार भी आरम्भ से अंत तक एक नहीं रहे। सन 1917 से पहले के प्रेमचंद पर बाल गंगाधर तिलक का प्रभाव देखा जा सकता है। प्रेमचंद ही नहीं, उस दौर के ज्यादातर मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी लोकमान्य तिलक के विचारों से प्रभावित थे। भारतीय राजनीति में गांधीजी के आने के बाद प्रेमचंद सहित मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का बड़ा तबका गांधीजी के विचारों से प्रभावित हुआ। प्रेमचंद महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता-आंदोलन के समर्थक थे, लेकिन यदा-कदा इसकी आलोचना भी करते थे। प्रेमचंद अपने को गांधीजी का ‘कुदरती चेला’ कहते थे। बावजूद इसके अपनी असहमति व्यक्त करने में कतराते नहीं थे।

बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद ने कहा था कि “मेरी आकांक्षाएं कुछ नहीं हैं। इस समय सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य- संग्राम में विजयी हों। यह जरूर चाहता हूं कि दो- चार उच्च कोटि की पुस्तकें लिखूं, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्य प्राप्ति ही हो।”
प्रेमचंद साहित्य के जरिए भी देश के स्वराज-आंदोलन में अपनी भूमिका अदा कर रहे थे। डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्हें ठीक ही ‘स्वाधीनता आंदोलन का कथाकार’ कहा है और अमृतराय ने ‘कलम का सिपाही’।

सन 1917 से पहले प्रेमचन्द की रचनाओं में राष्ट्रीय प्रश्न नहीं मिलता। हालांकि इस बीच उनकी कुछ अच्छी कहानियां छप चुकी थीं। ‘सोजे-वतन’ में प्रेमचंद ने देशभक्ति को दिखाया था। ‘उपदेश’ में राष्ट्रीय आंदोलन पर विचार किया। इस प्रकार, प्रेमचन्द देशभक्ति से सफ़र शुरू करके राष्ट्रवाद के मुकाम तक गए। देशभक्ति से राष्ट्रवाद की यात्रा में उनकी दृष्टि का विकास हुआ है। इसकी पहली झलक ‘उपदेश’ कहानी में दिखती है। उपदेश में राष्ट्रीय आंदोलन पर विचार किया गया। सवाल उठता है कि 1917 ई० के दौरान, भू-राजनीतिक परिदृश्य में, ऐसा क्या घटित हुआ? विश्व राजनीतिक परिदृश्य में 1917 की रूसी क्रांति एक महत्वपूर्ण घटना थी। इस क्रान्ति से मजदूर-किसान की शक्ति का पता चला। मजदूर-किसान की सत्ता- स्थापना ने तत्कालीन प्रगतिशील लोगों को आकर्षित किया था। देश के भीतर गांधीजी का राष्ट्रीय आंदोलन में आना और चम्पारण का किसान सत्याग्रह सर्वाधिक मत्वपूर्ण घटना थी। अब आंदोलन शहर की सीमा से निकलकर गांव की ओर आ गया। सत्याग्रह को गांधी जी ने आजादी की लड़ाई के हथियार के रूप में स्थापित किया। इसके अलावा आजादी की लड़ाई के साथ नैतिक पहलू भी जोड़ा।

‘उपदेश’ कहानी से प्रेमचंद के विचारों में मोड़ दिखता है। इस कहानी में राष्ट्रीय नेतृत्व की आलोचना की गई है।राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व कौन कर रहा है? उसका वर्ग चरित्र कैसा है? इस अंदोलन से फायदा किसे होगा? राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्वकारी वर्ग की सीमाएं क्या हैं? इस कहानी में वकील पंडित देव रतन शर्मा की झूठी आदर्शवादिता और जातीय सेवा के ढोल की पोल खोली गई है। ऐसा करके प्रेमचंद ने राष्ट्रीय आंदोलन को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना शुरू किया। इसी दृष्टि का विकास “आहुति” कहानी की नायिका रुपमणि और “गबन” उपन्यास पात्र देवीदीन के सवाल के रुप में हुआ है। सवाल उठता है कि प्रेमचंद किस दृष्टि से आजादी के आंदोलन की आलोचना करते थे?

प्रो. वीर भारत तलवार की स्थापना से इस सवाल का जवाब मिल जाता है। प्रो. तलवार का मानना है कि उन्होंने किसानों के हित की दृष्टि से स्वराज्य के शिक्षित मध्यवर्गीय नेतृत्व की आलोचना की। इस स्थापना के साथ ही प्रो. तलवार ने इस पहलू पर भी ध्यान आकर्षित कराया है कि प्रेमचंद ने कभी भी किसानों के सवाल को राष्ट्रीय स्वाधीनता के सवाल से ज्यादा बड़ा नहीं माना। कहना होगा कि यह प्रेमचन्द की दृष्टि है। इसमें किसानों के सवाल की उपेक्षा नहीं होनी है पर यह स्वाधीनता से बड़ा मसला भी नहीं। प्रेमचंद की निगाह में किसानों की हित-चिंता स्वाधीनता आंदोलन के नेतृत्वकारी वर्ग की कसौटी थी। अलबत्ता किसानों का सवाल स्वाधीनता आंदोलन में अंतर्निहित था, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण और अलहदा सवाल नहीं।

बहरहाल, एक सच्ची घटना पर होमरूल आंदोलन के दिनों में, प्रेमचंद ने “वियोग और मिलाप” कहानी लिखी। आलोचक वीर भारत तलवार ने “किसान, राष्ट्रीय आंदोलन और प्रेमचंद 1918-22” में इस घटना का विस्तार से जिक्र किया है। लोकमान्य तिलक के साथ कानपुर में घटी सच्ची घटना को इस कहानी में वैसे ही चित्रित किया गया है। अंग्रेजी प्रशासन के डर से कोई लोकमान्य तिलक को अपने घर में ठहराने के लिए तैयार नहीं था। स्वराज्य आंदोलन में भाग लेकर यश लेने उच्च-मध्यवर्ग के लोगों को, लोकमान्य तिलक को अपने घर ठहराकर, अंग्रेजी सरकार का कोप भाजन बनना मंजूर नहीं था। आंदोलन में कायर उच्च-मध्यवर्ग की भागीदारी की यह सीमा थी। अंग्रेजी सरकार का कोप भाज़न बने बगैर जितना आंदोलन हो सके, उतना ही कदम आगे बढ़ना, इस तबके का बुनियादी चरित्र था। “आदर्श विरोध” कहानी भी उच्च-मध्यवर्ग के चरित्र पर ही आधारित कहानी है।

प्रेमचंद गांधीजी के असहयोग-आंदोलन के प्रतिबद्ध समर्थक थे। असहयोग- आंदोलन के दौर में गांधी जी के आह्वान से प्रेमचंद इस कदर प्रभावित हुए कि 8 फरवरी, 1921 को गोरखपुर स्थित गाजी मियां के मैदान में, बीवी- बच्चे सहित भाषण सुनने के बाद, द्वंद्व में पड़ गये। गांधी जी के असहयोग- आंदोलन की बात ने उन्हें नौकरी छोड़ने के लिए प्रेरित किया। उस समय वह बीस साल से अधिक नौकरी कर चुके थे। आगे परिवार कैसे चलेगा, प्रेमचंद इसे लेकर चिंतित थे! शिवरानी देवी ने इसकी परवाह किये बगैर नौकरी से इस्तीफा देने के लिए कहा। जब मन असहयोग के साथ, नौकरी करना मिजाज के अनुरूप नहीं तो सोचना क्या!!

अपने मित्र और ‘जमाना’ के संपादक दयानारायण निगम को एक पत्र में प्रेमचंद ने लिखा था कि ”एक ख्वाहिश है कि देश की स्वाधीनता की लड़ाई मैं लेखन द्वारा लड़ूं”। वे लेखन के जरिये लड़ रहे थे। लेकिन इतने से मन नहीं माना! यही वजह है कि नौकरी से इस्तीफा दे दिया। प्रेमचन्द ने असहयोग- आंदोलन के प्रचार-प्रसार के लिए भी कहानियां लिखी हैं। ऐसी ही एक कहानी ”लालफीता” या ”मजिस्ट्रेट का इस्तीफा” है। इसी तरह की दूसरी कहानी ‘मृत्यु के पीछे’ है। इस कहानी का नायक ईश्वरचन्द्र धन कमाने एवं जातीय सेवा के लिए वकालत की पढ़ाई पूरी करना चाहता है। लेकिन देश-प्रेम उसे वकालत के रास्ते से हटाकर पत्र-सम्पादन की ओर आकर्षित करता है।

प्रेमचंद की कुछ कहानियों में पति स्वाधीनता आंदोलन का समर्थक है जबकि पत्नी स्वाधीनता-आंदोलन के रास्ते में रोड़े खड़ा करती है; इसके विपरीत कुछ कहानियों में पत्नी आज़ादी की लड़ाई से जुड़ी है और पति या तो उदासीन है या उसके राह में बाधा। “पत्नी से पति”, “होली का उपहार” जैसी कहानियों में स्वाधीनता-आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती है जबकि पति ऐसा करने से रोकता है। पति देर से इस आंदोलन का महत्व समझ पाता है।

प्रेमचंद ने एक तरफ मध्यवर्ग के ढोंग एवं खोखली आदर्शवादिता पर कहानी लिखी है तो दूसरी तरफ “बौड़म” जैसी अनोखी कथा भी। मोहम्मद खलील (जिसे लोग उसकी आदर्शवादिता के कारण बौड़म कहते हैं!) धनी परिवार का युवक है। खिलाफत आंदोलन का समर्थक है। खिलाफत आंदोलन भी ब्रिटिश राज विरोधी आंदोलन था, जो गांधीजी, शौकत अली और रहमत अली के नेतृत्व में हुआ था। यह कहानी उच्च मध्यवर्ग, व्यवसायी वर्ग के भीतर आजादी के दीवाने चरित्र पर आधारित है। क्या यह कहने की जरूरत है कि स्वाधीनता-आंदोलन ने ऐसा चरित्र पैदा किया था! महात्मा गांधी ने विदेशी कपड़ों के बहिष्कार एवं स्वदेशी अपनाने की अपील की थी। जगह-जगह विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाती थी। विदेशी कपड़ों की दुकान में कांग्रेस के कार्यकर्ता पिकेटिंग करते थे।

प्रेमचंद की स्वाधीनता विषयक कहानियों से स्पष्ट होता है कि उनका भरोसा गांव के गरीब किसानों पर था। ‘समर-यात्रा’ कहानी में गरीब विधवा नोहरी का चित्रण करके दिखाया गया है कि इस वर्ग के लोगों मे आजादी के लिए कितना उत्साह था।’आहुति’ कहानी को ‘समर यात्रा’ के साथ पढ़ने पर स्पष्ट होता है कि उच्च मध्य वर्ग के लड़के, जो शहर मे पढ़ाई करते थे, आज़ादी के आंदोलन से कितना जुड़े थे! इनकी अपेक्षा गरीब छात्रों का जुड़ाव कितना गहरा था! ‘आहुति’ कहानी का आनंद उच्च मध्य वर्ग का लड़का है। विशम्भर गरीब है। दोनों विश्वविद्यालय में एम.ए. के छात्र हैं। स्वराज आंदोलन में दोनों हिस्सा लेते हैं। दोनों में बुनियादी फर्क क्या है? आनंद सोचता है, “आग में कूदने से क्या फायदा! यूनिवर्सिटी में रहकर भी बहुत कुछ देश का काम किया जा सकता है।” आखिरकार “आनंद महीने में कुछ- न- कुछ चंदा जमाकर कर देता है, दूसरे छात्रों में स्वदेशी की प्रतिज्ञा करा ही लेता है।”

लिहाजा “विशम्भर को भी आनंद ने यही सलाह दी।” लेकिन विशम्भर गांव में जाकर स्वराज आंदोलन का अलख जगाने निकल पड़ता है। अपनी मित्र रूपमणि से आनंद इस बारे में बहस करता है। रूपमणि विशम्भर का पक्ष लेती है। बहसो मुबहीसा में आनंद उच्च वर्ग के प्रतिनिधि चरित्र के रूप में कहता है, ”शिक्षा और संपति का प्रभुत्व हमेशा रहा है और हमेशा रहेगा। हां, उसका रूप भले ही बदल जाए।” इस पर रुपमणि प्रतिवाद करती हुए कहती है-

”अगर स्वराज्य आने पर भी संपति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा- लिखा समाज यों ही स्वार्थांध बना रहे, तो मैं कहूंगी, ऐसे स्वराज का न आना ही अच्छा। अंग्रेज़ी महाजनों की धन-लोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। जिन बुराइयों को दूर करने के लिए आज हम प्राणों को हथेली पर लिए हुए हैं, उन्हीं बुराइयों को क्या, प्रजा इसलिए सर चढाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी हैं। कम-से-कम मेरे लिए तो स्वराज का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोबिंद बैठ जाए। मैं समाज की ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूं जहां कम-से-कम विषमता को आश्रय न मिल सके।”

रुपमणि के इस कथन के साथ “गबन” उपन्यास के किरदार देवीदीन द्वारा कांग्रेस के नेता से पूछे गये सवाल को याद करने पर प्रेमचंद की दृष्टि का पता चलता है। जब पूर्ण स्वराज के लिए आंदोलन हो रहा था तब ‘जनता का लेखक’ तत्कालीन नेतृत्व से उनकी भावी योजना के बारे मे सवाल पूछता है। प्रेमचंद स्वराज के पक्षधर थे, लेकिन इसके संबंध में उनकी रूपरेखा समता के मूल्य पर आधारित थी। उसमें गैर बराबरी की कोई जगह नहीं थी। प्रेमचंद की स्वाधीनता-आंदोलन से सम्बन्धित कहानियों में ऐसा दृढ़ विचार मिलता है।

स्वाधीनता-आंदोलन के नेता महात्मा गांधी ने स्वराज से सुराज की तरफ कदम बढ़ाने के लिए एक मार्ग दिखाया था। इसे गांधी- मार्ग कह सकते हैं। स्वराज और सुराज को जांचने की यह कसौटी भी है। उन्होंने भारत -भाग्य-विधाताओं को अपने जंतर के जरिए कहा था- ‘‘मैं तुम्हे एक जंतर देता हूं। जब भी तुम्हे संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी अपनाओ, जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा, क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त… तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है।’’

प्रेमचंद के किरदारों- रूपमणि और देवी दीन-के सवालों के आलोक में गांधीजी की इस जंतर के जरिए दी गई समझाइश को देखना लाजिमी है। भारत की संविधान सभा की तरफ से बाबू जगजीवन राम गांधी जी के पास गए थे, संविधान- निर्माताओं के लिए मार्गदर्शन और आशीर्वचन लेने। तब गांधी जी ने उन्हें यह जंतर लिख कर दिया था। स्वराज निकट आने के दौरान गांधी जी के सुराज का यह जंतर भारत के भावी विधान के लिए कसौटी था। इसमें निहित है गांधी-विचार का निचोड़ भी। यही प्रेमचंद के दीन-हीन किरदारों की ख्वाहिश भी थी।

(डॉ.राजीव रंजन गिरि दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

डॉ. राजीव रंजन गिरि
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डॉ. राजीव रंजन गिरि