मुश्किल में देश…1942 को फिर से जगाने की जरूरत

आज नौ अगस्त है। आज के दिन ही 1942 में मुबई के गोवालिया टैंक मैदान में अरूणा आसफ अली ने तिरंगा फहरा कर आजादी की घोषणा की थी तथा अंग्रेजों को भारत छोड़ने का अल्टीमेटम दिया था। आठ अगस्त, 1942 के दिन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक ने ‘भारत छोड़ो’ के ऐतिहासिक प्रस्ताव को पारित किया तो मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में ढाई सौ सदस्यों की इस बैठक की कार्यवाही का नतीजा देखने हजारों लोग जमा थे। सिर्फ 13 सदस्यों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया।


गांधी जी आंदोलन शुरू करने के पहले ब्रिटिश सरकार से बातचीत करना चाहते थे, लेकिन सरकार ने कोई मौका नहीं दिया। उन्हें सुबह चार बजे गिरफ्तार कर लिया गया। इसके साथ ही कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। देश भर में गिरफ्तारियां हुईं और कांग्रेस के सभी महत्वपूर्ण नेता जेल भेज दिए गए।


सवाल उठता है कि इस ऐतिहासिक संघर्ष को आज हम क्यों और कैसे याद करें? क्या 1942 के शहीदों को नमन करने तथा इस बहुदाराना संघर्ष को याद करने भर से हमारी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है? क्या भारत छोड़ोे आंदोलन महज अंग्रेजों को भगाने का आंदोलन था और इससे आज के लिए हमें कोई सीख नहीं मिलती है?


सच मानिए तो आज उसे याद करना बहुत जरूरी है क्योंकि जिस आजादी की कल्पना इस आंदोलन में की गई थी, वह अब हमारी आंखों से दूर जा चुकी है। देश के लड़खड़ाते लोकतंत्र को मजबूत पांवों पर खड़ा करने के लिए उसी तरह के आंदोलन की जरूरत है, जैसा गांधी जी ने 1942 में खड़ा किया था। उस समय और आज की परिस्थितियों में फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय अंग्रेज राज कर रहे थे और आज हमारे चुने हुए प्रतिनिधि सत्ता में हैं। लेकिन  आज की सत्ता ने वही तौर-तरीके अपना लिए हैं जो उस समय की सत्ता के थे।  पेगासस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।


भारत छोड़ो के प्रस्ताव ने आजाद भारत की लोकत् व्यवस्था की तस्वीर पेश की थी। उसने एक सच्चे संघीय ढांचे वाले लोकतंत्र को बनाने की बात कही थी। संघ में चुनिंदा अधिकारों को छोड़ कर सारी शक्तियां राज्यों को सौपने की बात कही गई थी। इसमें राष्ट्रों की बराबरी के आधार पर विश्वव्यवस्था का निर्माण करने की मांग की गई थी। इसमें नाजीवाद, फासीवाद और साम्राज्यवाद को एक साथ नकार दिया गया था।


गांधी जी ने अंग्रेजों से कहा, ‘‘ भगवान के भरोसे या वक्त पड़ा तो अराजकता के हाथों देश को सौंप कर ब्रिटिशों को यहां से चला जाना चाहिए।’’
लेकिन  ‘करो या मरो’ की घोषणा के आते ही दो महत्वपूर्ण बयान आ गए।  एक सावरकर और दूसरा मोहम्मद अली जिन्ना का था। सावरकर ने हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को आंदोलन से दूर रहने के लिए कहा और जिन्ना ने आंदोलन को मुसलमानों की सुरक्षा के लिए खतरा बताया। उन्होंने आंदोलनकारियों को मुसलमानो से दूर रहने को चेतावनी दी।



उस समय फासिज्म एक बड़ा खतरा था। इसे लेकर कांग्रेस में  जवाहरलाल नेहरू से लेकर मौलाना आजाद तक नेताओं की एक बड़ी संख्या थी जो इसे लेकर चिंतित थी। लेकिन इस बारे में आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण और डा राममनोहर लोहिया समेत अन्य समाजवादी नेता एकदम साफ थे। आचार्य नरेंद्रदेव का कहना था कि नाजीवाद, फासीवाद और साम्राज्यवाद तीनों के उद्देश्यों में कोई फर्क नहीं है। इनसे एक साथ लड़ना होगा। उन्होंने अंग्रेजों के इस दावे को खारिज कर दिया कि  ब्रिटेन मित्र राष्ट्रों के साथ लोकतंत्र तथा मानवता की रक्षा के लिए लड़ रहा है। यही गांधी जी की राय थी। उनका मानना था कि अंग्रेज चले जाएंगे तो भारत अपनी रक्षा कर लेगा और जापान का मुकाबला करेगा। वह फासीवाद से लड़ने में पूरी मदद भी कर सकेगा। उनका कहना था कि अंग्रेज अपनी जान बचाने के लिए भारत को उसी तरह छोड़ देंगे जिस तरह उन्होंने मलाया,बर्मा और सिंगापुर को छोड़ दिया।


उस समय देश के नेताओं के बीच चली बहस तथा 1942 की लड़ाई के आज क्या मायने हैं?


पहले तो यह हम साफ कर लें कि भारत की आजादी मांगने वालों के खिलाफ अंग्रेजों का सबसे बड़ा हथियार सांप्रदायिक विभाजन था। विश्वयुद्ध शुरू होने के पहले से ही अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा का इस्तेमाल आजादी के आंदोलन के खिलाफ करने की नीति पर और तेजी से अमल करने पर शुरू कर दिया था। विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद दोनों का इस्तेमाल खुल कर होने लगा। मुस्लिम लीग के दो राष्ट्र सिद्धांत को सावरकर भी मानते थे। जिन्ना के दुश्मन हिंदू थे और सावरकर के दुश्मन मुसलमान। दोनों के दोस्त अंग्रेज थे। इस दोस्त की मदद के लिए उन्होंने बंगाल समेत कई राज्यों में मिल कर सरकार बना ली थी। वे अंग्रेजी सेना में लोगों को भर्ती कराने के लिए जुटे थे। मजेदार बात यह है कि हिंदुओं को दुश्मन मानने वाले जिन्ना और मुसलमानों को दुश्मन मानने वाले सावरकर सरकार चलाने में बराबर का सहयोग कर रहे थे और इसके भी प़क्षधर थे कि हिंदू और मुसलमान सैनिक मित्र राष्ट्रों यानि अंग्रेजों के साथ मिल कर जर्मनी तथा जापान को हराएं। हिंदू महासभा नेता और बाद में भारतीय जनसंघ के संस्थापक बने श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार में थे। उन्होंने 1942 के आंदेालन से निबटने के लिए सरकार ब्रिटिश सरकार को कार्रवाई का सुझाव दिया था।
1857 के पहले और बाद मुसलमानोे को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाले अंग्रेज अब यह कहने लगे थे कि भारत के बारे में कोई भी फैसला मुसलमानोें यानि मुस्लिम लीग की राय के बगैर नहीं होगा।


आज भी हम देख सकते हैं कि दोनों मजहबोें की सांप्रदायिक शक्तियां एक-दूसरे के विरोध का नाटक करती हैं, लेकिन वास्तव में एक-दूसरे की मदद करती हैं। यह हम कई चुनावों में देख चुके हैं।


गौर से देखा जाए तो आज के राजनीतिक हालात उस समय के राजनीतिक हालात से बदतर हैं। उस समय तो एक विदेशी सत्ता सामने थी जिसे भारत की बागडोर छोड़ने के लिए कहना आसान था। आज वे लोग सत्ता में हैं जो उस समय अंग्रेजों के सैनिक बन कर देश के खिलाफ काम कर रहे थे। वे उन्हीं लोगों के लिए काम कर रहे हैं जिनके लिए अंग्रेज काम करते थे-देशी और विदेशी पूंजीपति तथा जमींदार। आपको यह जान कर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि 1942 में देश के पूंजीपति अंग्रेजों के साथ थे और युद्ध में उनकी मदद कर रहे थे। भारत  छोड़ो आंदोलन का उन्होंने साथ नहीं दिया।


आज ध्यान रखने वाली सबसे जरूरी बात यह है कि जनता की ताकत सबसे बड़ी है। गांधी जी ने इसी को पहचान लिया था। उस समय इसे पहचानने में कम्युनिस्ट पार्टी भी चूक गई थी। वे अंग्रेजों की नजर में लंबे समय से नंबर एक दुश्मन थे और अपने जन्म के बाद से लगातार प्रतिबंधित रहे। उनके नेता अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ साजिश के आरोप में लगातार जेल भोगते रहे। लेकिन  फासीवाद के खिलाफ लड़ने में आजाद भारत की अहमियत समझने के बदले उन्होंने अंग्रेजो के साथ रह कर लड़ने की रणनीति अपनाई। उन्होंने यह फैसला सोवियत रूस पर जर्मनी के आक्रमण के बाद किया और अंतरराष्ट्रीय राजनीति को ध्यान में रख कर किया। लेकिन देश की जनता ने उनकी रणनीति को नकार दिया। मुंबई, कोलकाता, कानपुर, अहमदाबाद, जमशेदपुर समेत तमाम औद्योगिक शहरों में मजदूरों ने हड़तालेें की और उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों को नहीं माना जबकि उन्हें संगठित करने में उनका बड़ा योगदान था।
कम्युनिस्टों ने अपनी गलती मानी और फिर से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने में लग गए। लेकिन मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा अंत तक अंग्रेजों के लिए काम करती रहीं और लोगों को मजहब के आधार पर बांटने में लगी रहीं। हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों ने तो गांधी जी की हत्या तक कर डाली।


आज भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार देश की संपदा लूटने वाली शक्तियों के साथ खड़ी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण किसानोें के खिलाफ लाए गए तीन कानून हैं। सरकारी कंपनियों को पूंजीपतियों को सौंपने, मजदूरों के अधिकार छीनने और असंठित कामगारों को भूखों मरने के लिए मजबूर करने में लगी है। लेकिन देश की लोकतांत्रिक शक्तियां अपने दायरे से बाहर निकल कर एक बड़ा अहिंसक प्रतिरोेध तथा संसदीय विकल्प तैयार करने में अक्षम साबित हो रही हैं। उन्हें गांधी जी से सीखना चाहिए। भारत छोड़ो के प्रस्ताव में उन्होंने साफ कर दिया कि अंग्रेज चले जाएं और बेशक सत्ता कांग्रेस के हाथ में न दें। इस तरह उन्होंने सत्ता पर कांग्रेस के दावे को पीछे ले लिया । वह इसके लिए तैयार थे कि अंग्रेज सत्ता भारतीयों के हाथ में सौंप दें, चाहे यह कोई भी संगठन हो।  गांधी जी अपनी इस राय पर 1947 तक कायम रहे। क्या कांग्रेस या दूसरी पार्टियां मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए ऐसे किसी विकल्प की नहीं सोच सकतीं? भारत छोड़ो दिवस हमें इन्हीं विचारों की प्रेरणा देता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

अनिल सिन्हा
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