शिक्षक दिवस: शिक्षकों के सामने तार्किक समाज बनाने की चुनौती

डॉ. राजू पाण्डेय

शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को सम्मानित-पुरस्कृत करने के लिए पारंपरिक कार्यक्रमों की गहमागहमी के बीच कुछ गंभीर चुनौतियों की चर्चा आवश्यक है जिनका मुकाबला शिक्षक जगत को करना है। यह चुनौतियां पाठ्यक्रम के भाग नहीं हैं और इसी कारण इनसे बड़ी आसानी से बच कर निकला जा सकता है। इनका संबंध शिक्षक के सबसे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व से है- अपने शिष्य को किसी घटना, विचार या परिस्थिति को संपूर्णता में समझने में सहायता करना और उसकी तर्कशक्ति तथा आत्मनिर्णय की क्षमता का विकास करना।

आज का विद्यार्थी सोशल मीडिया के इंस्टैंट ज्ञान का दीवाना है। वह उस आभासी दुनिया में जी रहा है जो भ्रम को वास्तविकता के रूप में प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त है। एक आभासी इतिहास को बनते हुए हम देख रहे हैं जो संदर्भ से काटकर प्रस्तुत किए जाने वाले तथ्यों के कुटिल और जटिल संयोजन पर आधारित है। इसे गढ़ने के पीछे प्रतिशोध और हिंसा को बढ़ावा देने का घृणित उद्देश्य है।

संकीर्ण राष्ट्रवाद तथा सशर्त देशभक्ति के आवरण में इसे लपेटा गया है और इसमें असहमति और तर्क के लिए कोई स्थान नहीं है। यह महापुरुषों की मिथ्या छवियों को गढ़ने का दौर भी है- हर महापुरुष का मनचाहा क्लोन तैयार किया जा रहा है जिसमें अपनी राजनीतिक और वैचारिक आवश्यकताओं के अनुरूप हिंसक और विभाजनकारी जीन प्रविष्ट कराए जा सकते हैं। कुछ  विभूतियों का वंध्याकरण कर उनकी क्रांतिकारिता, प्रगतिशीलता और तार्किकता को आस्था, विश्वास और अंधश्रद्धा में परिवर्तित किया जा रहा है। किसी महापुरुष की वास्तविक शक्ति-उसकी आत्मा- उसके विचारों में निहित होती है। यदि उसके विचारों के साथ छेड़छाड़ की जाती है, उन्हें संदर्भ से काटकर प्रस्तुत किया जाता है तो फिर श्रद्धा की ग्लैमरस अभिव्यक्तियां एक रणनीति का रूप ले लेती हैं। यह रणनीति उस महापुरुष की लोकप्रियता और स्वीकार्यता का दुरुपयोग कर ऐसे विचारों का प्रसार करती है जो उस महापुरुष के जीवन दर्शन से कोई संगति नहीं रखते।

शिक्षक विद्यार्थियों में यह समझ विकसित कर सकते हैं कि वे महापुरुषों की छवियों की ओट में परोसे जा रहे मिथ्या ज्ञान से कैसे स्वयं को अलिप्त रखें। विद्यार्थियों को जागरूक करने के इस अभियान का प्रारंभ करने के लिए शिक्षक दिवस से उपयुक्त और कोई अवसर नहीं हो सकता।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ व्याख्याकारों में सम्मिलित किया जाता है। किंतु जिस संकीर्ण अर्थ में आज कट्टरवादी शक्तियां उन्हें महिमामण्डित करने की चेष्टा कर रही हैं वह उनकी उदारता के साथ क्रूर परिहास ही है। हिन्दू धर्म की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए डॉ राधाकृष्णन ने बल देकर कहा था- हिन्दू धर्म कुछ अन्य धार्मिक विश्वासों की उस विचित्र मनोवृत्ति से पूर्णतः मुक्त है जिसके अनुसार उनकी धार्मिक तत्वमीमांसा को स्वीकार किए बिना मोक्ष नहीं मिल सकता और इसका अस्वीकार एक घृणित अपराध है जिसका दंड अनंतकाल तक नरक भोगना ही है।

राधाकृष्णन को इंडियन सेकुलरिज्म की अवधारणा के पोषक और संरक्षक के रूप में भी स्मरण किया जाता है। उन्होंने कहा-

“जब भारत को एक सेकुलर राज्य कहा जाता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अदृश्य सत्ता की वास्तविकता को अस्वीकार करते हैं या जीवन में धर्म की प्रासंगिकता को खारिज करते हैं अथवा अधार्मिकता को बढ़ावा देते हैं।हमारा यह मानना है कि किसी धर्म को अन्य धर्मों पर वरीयता नहीं दी जानी चाहिए।”  

उन्होंने सेकुलरिज्म की व्याख्या करते हुए कहा- “जब यह कहा जाता है कि राज्य सेकुलर है तो इसका आशय यह है कि राज्य की पहचान किसी धार्मिक विश्वास के आधार पर नहीं होगी बल्कि राज्य सभी धार्मिक विश्वासों की तब तक रक्षा एवं संरक्षण करता रहेगा जब तक कि इनके अनुयायी ऐसा अनुचित आचरण नहीं करते जो नैतिकता का उल्लंघन और राष्ट्र की एकता को हानि पहुंचाने वाला हो। सेकुलरिज्म धार्मिक प्रतिस्पर्धा का अंत करने का प्रयास करता है और धार्मिक विश्वासों के राजनीतिक उद्देश्यों हेतु किए जाने वाले दुरुपयोग को हतोत्साहित करता है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि सेकुलरिज्म हमारे संवैधानिक मूल्यों में समाविष्ट है।”

उन्होंने कहा कि सेकुलरिज्म का अर्थ यह है कि हम कट्टरवाद की अमानवीयता का अंत करें और दूसरों के प्रति व्यर्थ की घृणा से छुटकारा पाएं। यूनेस्को को अपने संदेश में उन्होंने कहा कि सेकुलर राज्य में किसी भी धर्म के प्रचार की प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। गांधी जी की भांति उन्होंने सेकुलरिज्म को सर्वधर्म समभाव के अर्थ में प्रयुक्त किया। राधाकृष्णन के अनुसार- हम अपने धर्म को इस प्रकार रूपांतरित कर सकते हैं कि वह रिलिजन ऑफ स्पिरिट के सन्निकट पहुंच जाए। मैं आश्वस्त हूं कि प्रत्येक धर्म में रिलिजन ऑफ स्पिरिट बनने की संभावनाएं निहित हैं।इस शिक्षक दिवस पर शिक्षकों का यह आधारभूत कर्त्तव्य बनता है कि वे अपने विद्यार्थियों को यह समझाएं कि जिस भारत के निर्माण की चेष्टा हो रही है वह राधाकृष्णन के सपनों का भारत तो बिल्कुल नहीं है।

आज तुच्छ और महत्वहीन विषय अचानक आस्था और प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिए गए हैं और अराजक भीड़ अफवाहों से संचालित होकर अपनी कुंठा और हताशा की हिंसक अभिव्यक्ति उन निरीह और निर्दोष जनों पर कर रही है जो स्वयं उसी तरह सिस्टम की अमानवीयता के शिकार हैं जैसे हिंसक भीड़ के भटके हुए नौजवान। किसी समाज को अफवाहों से संचालित करने के लिए उसकी विवेक शक्ति को कुंद करना और उसके इतिहास बोध को विकृत करना आवश्यक है। यह कार्य सोशल मीडिया के द्वारा अंजाम दिया जा रहा है।

शिक्षकों के सम्मुख यह चुनौती है कि वे अपने विद्यार्थियों में यह समझ विकसित करें कि हर सूचना और हर विचार को तर्क की कसौटी पर कसकर देखा जाना चाहिए। अतीत और इतिहास का समग्र आकलन आवश्यक है। जोशीली और अलंकृत भाषा में अधूरे तथ्यों और कल्पना का जो नशीला कॉकटेल परोसा जा रहा है उसका अधिकतम उदार मूल्यांकन करने पर उसे ऐतिहासिक नामों का आश्रय ले रचा गया गल्प या कपोल कल्पित कथा ही कहा जा सकता है जो मनोरंजक इसलिए नहीं है कि इसकी रचना का उद्देश्य हिंसा और वैमनस्य फैलाना है।

डॉ राधाकृष्णन का शिक्षा दर्शन भी विराट और समावेशी है। उन्होंने कहा-

“यदि हम स्वयं को सभ्य समझते हैं तो हमें निर्धन और पीड़ितों को अपने चिंतन का केंद्र बनाना होगा, महिलाओं के प्रति गहन सम्मान एवं आदर रखना होगा, जाति, वर्ण, देश और धर्म को गौण मानकर विश्व बंधुत्व की भावना पर आस्था रखनी होगी, शांति और स्वतंत्रता से प्रेम करना होगा, क्रूरता से घृणा करनी होगी तथा न्याय की स्थापना के प्रति अंतहीन समर्पण दिखाना होगा। डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षा को प्रजातंत्र को सशक्त बनाने का माध्यम माना। उन्होंने कहा कि शिक्षा का ध्येय वैज्ञानिक चेतना का विकास एवं अन्वेषण की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना हो। शिक्षा स्वतंत्रता और समानता के आदर्श को प्राप्त करने हेतु सहायक हो। शिक्षा मानवीय मूल्यों और आध्यात्मिकता के विकास का माध्यम बने।”

राधाकृष्णन के शैक्षिक दर्शन का समग्र क्रियान्वयन तब तक संभव नहीं है जब तक हम शिक्षक की परिभाषा को व्यापकता प्रदान न करें। हमने प्रेरणा और ज्ञान प्राप्त करने के लिए कुछ चुनिंदा महापुरुषों, मनीषियों तथा शिक्षण संस्थानों के अध्यापकों के साथ स्वयं को आबद्ध कर लिया है। इन स्थापित महापुरुषों से प्रेरणा और मार्गदर्शन तलाशते हम अपने आस पास की उन अचर्चित और विलक्षण विभूतियों को अनदेखा कर देते हैं जो अनुकरणीय और स्तुत्य हैं। यह शिक्षक दिवस इन गुमनाम प्रेरणास्रोतों को समर्पित होना चाहिए।

हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह शिक्षक दिवस केवल स्कूल और कॉलेज के शिक्षकों तक सीमित न रह जाए। समाज के सभी सदस्य- डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, वकील,श्रमिक, कृषक, व्यापारी, उद्योगपति, कलाकार, साहित्यकार, इतिहासविद- अपने जीवनानुभवों के द्वारा समाज को दिशा दे सकते हैं और एक सच्चे शिक्षक की भूमिका निभा सकते हैं। 

शिक्षा का निरंतर प्रसार हो रहा है किंतु नारियों पर होने वाले अत्याचारों में कमी आती नहीं दिखती। बल्कि इनका स्वरूप अधिक अमानवीय और बर्बर होता जा रहा है। नारी एवं उसकी शिक्षा की बेहतरी के लिए नीति निर्धारण और उसके क्रियान्वयन पर या तो पुरुष हावी हैं या पुरुषवादी सोच। यह शिक्षक दिवस नारियों के लिए एक अवसर होना चाहिए कि वे न केवल शिक्षा को पुरुषवाद के प्रभाव से मुक्त करें बल्कि नारीवादी विमर्श को भी महज पुरुषवाद के प्रति प्रतिक्रिया स्वरूप न रहने दें अपितु इसे मौलिकता प्रदान कर शिक्षा पर पुरुष आधिपत्य को समाप्त करें।

शिक्षक दिवस सम्मानित और पुरस्कृत होते शिक्षकों में यह दायित्वबोध उत्पन्न करता है कि शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण से उत्पन्न तमाम संकटों और बाधाओं का सामना करते हुए भी देश के आधारभूत समावेशी और सहिष्णु चरित्र की रक्षा में वे सन्नद्ध हों। शिक्षक दिवस समाज के हर व्यक्ति में यह चेतना उत्पन्न करता है कि यदि उसके पास सामाजिक समरसता को शक्ति देने वाले विचार अथवा जीवनानुभव हैं तो वह निस्संकोच शिक्षक की भूमिका में आकर जन जागरण का कार्य करे।

(डॉ. राजू पाण्डेय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में रहते हैं।)

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