दुनिया छोड़ जाने के बाद भी सिखाते रहेंगे इब्राहिम अल्काजी

उस समय जबकि नाटक को निचले दर्जे की चीज़ माना जाता था और नाटक करने आए लड़के-लड़कियों को ‘नाचने-गाने वाले’ कहकर दूर हटाया जाता था। उस समय अल्काज़ी आधुनिक हिन्दुस्तानी रंगमंच की नयी फसल पैदा करने की तैयारी में लगे थे।

उन्होंने घरों से झगड़कर, भागकर नाटक करने की ठानकर आए युवाओं की ज़िम्मेदारी ली। न सिर्फ़ एक दूर-दृष्टि रखने वाले रंग-शिक्षक की तरह बल्कि एक पिता की तरह।

एक ऐसा पिता जो जानता था कि हिन्दुस्तानी समाज में उसके ‘बच्चों’ को इज्ज़त कमाने के लिए बहुत मेहनत करनी होगी। इसलिए उन्होंने खुद कठोर परिश्रम किया। अपने ‘बच्चों’ से कठोर परिश्रम करवाया और कठोर प्रेम किया।

बेशक नसीरुद्दीन शाह के शब्दों में अल्काजी उनके ‘सरोगेट पिता’ थे, जिन्हें वे प्यार से चचा बुलाते थे; लेकिन किसी पिता से कहीं ज़्यादा विस्तृत नज़र से उन्होंने नाटक करने वालों की एक पूरी नस्ल तैयार की। एक ऐसी नस्ल जिसने आगे चलकर हिन्दुस्तानी रंगमंच को नए आयाम दिए।

ज़्यादातर तस्वीरों में कोट-पैंट और खूबसूरत, चमकदार रंगों की टाई में दिखने वाले इस व्यक्ति ने अपने ‘बच्चों’ को अनुशासन सिखाने के लिए टॉयलेट साफ़ किए। ऑडिटोरियम बनाने के लिए सर पर तसला उठाकर रेत ढोई, दर्शकों के लिए कुर्सियां डिजाइन कीं और अपने जीवन को उदाहरण बनाकर नाटक करने के लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने की अहमियत बताई।

शायद यही वजह होगी कि उनके नाटकों की भव्यता इतनी अर्थपूर्ण थी और इसीलिये इतनी मूल्यवान भी। वरना, भव्य नाटक तो उनके बाद भी होते रहे, लेकिन बात ‘अँधा युग’ और ‘तुगलक़’ की होती रही है।

उनके प्रशिक्षण की कठोरता और रिहर्सल में तर्क कर पाने की जगह को लेकर सबकी अलग-अलग राय ज़रूर हो सकती है, लेकिन उनके तराशे हुए रंगकर्मी जिस मुक़ाम पर पहुंचे, ये देख कर सिखाने की उनकी शिद्दत समझ में आती है।

`राडा` की ट्रेनिंग के बाद एक व्यक्ति एक वैश्विक-दृष्टि के साथ हिन्दुस्तान लौटता है और खालिस भारतीय आलेखों के साथ पश्चिमी यथार्थवादी शैली का अभ्यास करता है, तब स्टेजक्राफ्ट एक अलग विषय की तरह स्थापित होता है और निर्देशन के नए आयाम खुलते हैं।

आधुनिक भारतीय रंगमच को आंदोलित करने वाले बेशक अल्काजी एकमात्र नहीं हैं, लेकिन उन शुरुआती व्यक्तियों में से हैं जिन्होंने यह ज़िम्मेदारी ली और उसे बखूबी निभाया। हमारी पीढ़ी के ज्यादातर लोग उनसे व्यक्तिगत तौर पर नहीं मिले।

मेरी तरह कभी मौक़ा पाकर उनके साथ एकाध तस्वीर खिंचवा लीं और उनके आभामंडल के विस्तार को बहुत देर तक अपने अन्दर महसूस करते रहे, लेकिन इससे हमारी पीढ़ी का रिश्ता उनके साथ कम गहरा बना हो, ऐसा नहीं है, क्योंकि नाटक करना सीखने में अल्काजी उस सिलेबस का हिस्सा हैं जो नाटक की किताबों से लेकर चाय की मुलाकातों में ज़रूरी तौर पर शामिल हैं। वे एक ऐसे रंग शिक्षक हैं जो बिना मिले भी हमें सिखाते रहे हैं।

बाकी रही उनके चले जाने की बात तो नाटक से तो वो बहुत पहले दूर चले गए थे। लेकिन इतना करके गए कि नाटक से विदा लेने के बाद भी नाटकों में बने रहे, उनसे सीखना-सिखाना बदस्तूर बना रहा और अब जबकि वो दुनिया छोड़ गए हैं, बेशक, अब भी उनसे सीखना बना रहेगा।

  • गगन दीप

(लेखिका रबींद्र भारती यूनिवर्सिटी कोलकाता में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

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