शहादत सप्ताह: भगत सिंह के विचार हर सत्ता के लिए खतरनाक हैं

धर्म और सांप्रदायिकता का सवाल

भगत सिंह की शहादत की इस नवासीवीं सालगिरह पर क्या हम सबको इस विषय पर गंभीर चिंतन की जरूरत आ पड़ी है कि आधुनिकता के मूल्यों से लैस जागरूक नागरिकों वाले वैज्ञानिक समाजवादी भारत के निर्माण के उनके स्वप्न को कहीं सांप्रदायिकता का ग्रहण तो नहीं लग गया है? अभी हाल ही में दिल्ली में जिस तरह से सांप्रदायिकता का नंगा नाच हुआ है और जिस तरह से ये शक्तियां सभी संवैधानिक संस्थाओं में पैठ बनाती और आक्रामक होती जा रही हैं तथा अपने खिलाफ हर मुमकिन प्रतिरोध की कमर तोड़ देने तथा उसे रक्षात्मक रुख अख्तियार करने के लिए मजबूर करने पर आमादा हैं उससे तो यही लगता है कि सभी प्रगतिशील लोगों को लोकतंत्र पर आसन्न संकट की गंभीरता को समझने और एकजुट होने की सख्त जरूरत आ पड़ी है।

भगत सिंह ने अपने समय में ही इस समस्या की शिनाख्त करते हुए अपने लेखों में सांप्रदायिकता पर कठोर हमला किया था। मुझे लगता है कि आज की सांप्रदायिकता का मुकाबला करने के लिए भी भगत सिंह के विचार हमें प्रकाश-स्तंभ की तरह से रास्ता दिखा सकते हैं। ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ शीर्षक जून 1928 के अपने लेख में वे उस समय की सांप्रदायिकता पर बहुत पीड़ा के साथ लिखते हैं, “भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है।… ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नज़र आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नज़रों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं।”

वे जब अपने समय के सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों को दोषी बताते हैं तो लगता है कि आज के नेताओं और अखबारों तथा चीख-चीख कर पूरी बेशर्मी से सांप्रदायिक फेन उगल रहे खबरिया चैनलों के बारे में लिख रहे हैं: “जहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्र कराने का बीड़ा उठाया था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ दम गजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बह चले हैं।

…पत्रकारिता का व्यवसाय जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर-फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक जिनका दिल व दिमाग़ ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो, बहुत कम हैं।”

“अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था; लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई.झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारत वर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आँखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?”

इससे पहले के एक लेख ‘धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम’ में वे धर्म को रास्ते का रोड़ा बताते हैं। वे कहते हैं कि अलग-अलग धार्मिक विश्वासों की स्वतंत्रता के बावजूद एक राजनीतिक लक्ष्य के लिए काम करने में भी कठिनाई आएगी क्योंकि हर धर्म के आचरण का हिस्सा कुछ ऐसी मान्यताएं हैं जो समाज में बराबरी के उच्चतर मूल्य की स्थापना के रास्ते का रोड़ा बन कर खड़ी हो जाएंगी।

धर्म के संबंध में टॉल्स्टॉय के लेख को उद्धरण देकर वे बताते हैं कि हर धर्म में कुछ मूल बातें होती हैं, जैसे सच बोलना, चोरी न करना, गरीबों की सहायता करना, प्यार से रहना, वगैरह। इस लिहाज से सभी धर्म एक हैं। उनमें भेद उनके दर्शन यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार-रचना आदि और उनके रस्मो-रिवाज में होते हैं। “सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात (दर्शन और रस्मो-रिवाज) के साथ अन्धविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई ज़रूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिए। यदि पहली और दूसरी बात (धर्म की मूल बातों और दर्शन) में स्वतन्त्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो, तो धर्म मुबारक़ है।

लेकिन अलग-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना ज़रूरी है। छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा। जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़कर एक न होंगे, तब तक हम में वास्तविक एकता नहीं हो सकती। इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चलकर ही हम आज़ादी की ओर बढ़ सकते हैं। हमारी आज़ादी का अर्थ केवल अंग्रेज़ी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतन्त्रता का नाम है – जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमाग़ी ग़ुलामी से भी आज़ाद हो जायेंगे।”

‘भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़’ की प्रस्तावना में क्रांतिकारी आंदोलन के वैचारिक विकास के बारे में उनके साथी शिव वर्मा लिखते हैं, “धर्म जब राजनीति के साथ घुलमिल जाता है तो वह एक घातक विष बन जाता है जो राष्ट्र के जीवन्त अंगों को धीरे-धीरे नष्ट करता रहता है, भाई को भाई से लड़ाता है, जनता के हौसले पस्त करता है, उसकी दृष्टि को धुँधला बनाता है, असली दुश्मन की पहचान कर पाना मुश्किल कर देता है, जनता की जुझारू मनःस्थिति को कमज़ोर करता है, और इस तरह राष्ट्र को साम्राज्यवादी साज़िशों की आक्रमणकारी योजनाओं का लाचार शिकार बना देता है।”

आज का संकट इसलिए और भयावह दिख रहा है कि आज़ादी और विभाजन के बाद के शुरुआती दिनों में जिन सांप्रदायिक शक्तियों को जनाधार और राजनीतिक ताक़त नहीं मिल पा रही थी वे अब काफी ताक़तवर हो चुकी हैं। ये शक्तियां जो अपने मूल में ब्राह्मणवादी-पितृसत्तावादी और सांप्रदायिक हैं उन्होंने कॉरपोरेट पूंजी के साथ गठजोड़ कर लिया है। इसीलिए 1990 के दशक में जहां राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट पूंजी के दबाव में ‘नई आर्थिक नीति’ के रूप में देश की अर्थव्यवस्था ‘निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण’ के रास्ते पर चल पड़ती है, ठीक उसी समय सांप्रदायिक एजेंडे के एक नए दौर की शुरुआत भी होती है।

अर्थव्यवस्था की नई चाल के अनुरूप जिस ‘मानव-संसाधन’ की जरूरत पड़ती है उसके लिए न केवल कला, साहित्य, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र जैसे पुराने मानविकी विषय अप्रासंगिक हो जाते हैं बल्कि मौलिक विज्ञान के विषयों की पढ़ाई भी बेमतलब हो जाती है और केवल तकनीक पर सारा जोर चला जाता है। ऐसी पढ़ाई वाला युवा न केवल उनकी मशीनों की जरूरत-मात्र रह जाता है, बल्कि उदारीकरण के कारण अस्तित्व में आए हजारों टीवी चैनलों के लिए ऐसे युवा का मत-निर्माण आसान भी हो जाता है जो न विचारों और सभ्यताओं के इतिहास और विकास से परिचित है, न स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, न्याय और लोकतंत्र के मूल्यों के लिए किए गए संघर्षों और बलिदानों के महत्व को जानता है और न ही उसे विज्ञान के मूल तत्व ‘कार्य-कारण संबंध’ वाली दृष्टि का बोध है।

अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट पूंजी को बेलगाम होने से रोकने वाले दुनिया भर के साम्यवादी गढ़ों के गिरने और इसकी वजह से मजदूर-आंदोलनों के कमजोर होने से हमारे देश में भी श्रम-कानूनों को बिल्कुल शक्तिहीन करना आसान हो गया। स्मार्ट मोबाइल के युग में सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा अपने आईटी सेल के माध्यम से एक साथ बड़ी संख्या में लोगों के जेहन में जहर भरना आसान हो गया। कॉरपोरेट वर्ग के लिए सुनियोजित तरीक़े से अपने पसंदीदा कारिन्दों की छवि गढ़ना और लहर पैदा करके एकमात्र विकल्प के रूप में पेश करना आसान हो गया।

अब इस सांस्कृतिक-राजनीतिक परिदृश्य में हमें सांप्रदायिकता से मुकाबला करना है। भगत सिंह अपने ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ लेख में ही वर्ग-चेतना विकसित करने का रास्ता भी दिखाते हैं: “लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जाएँगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।”

नकारात्मकता और नाउम्मीदी के घटाटोप के बीच पिछले दिनों के सांप्रदायिक सीएए विरोधी आंदोलनों में उम्मीद की रोशनी भी दिखी है। देश भर में फैले छात्र-आंदोलनों में हजारों की संख्या में हमें भगत सिंह के वारिसों की संभावनाएं दिखीं। आदर्शों और उदात्त नैतिक मूल्यों से लबरेज हजारों युवा चेहरों से दमक रही दीप्ति में विचार झलक रहे थे। और हमें भगत सिंह की बात याद है कि “क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।”

(शैलेश शरण शुक्ल स्वतंत्र लेखक हैं।)

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