पिता नेहरू की चिट्ठियां बेटी इंदिरा के लिए शैक्षणिक कोर्स साबित हुईं

बच्चों के लिए लिखना कुछ लोग हल्का-फुल्का काम समझते हैं, लेकिन मेरी समझ से यह अपेक्षाकृत  कठिन है। अनेक बड़े लेखकों ने बच्चों के लिए मन से लिखा है। टॉलस्टॉय, चेखव, रवींद्र नाथ टैगोर, प्रेमचंद जैसे लेखकों ने तो खूब लिखा है। जिस जुबान में बच्चों के लिए पर्याप्त साहित्य नहीं है, मैं उसे दयनीय कहना चाहूंगा।

आज मैं जवाहरलाल नेहरू की एक किताब पर बात करना चाहूंगा, जो बच्चों के लिए लिखी गई है। दरअसल यह किताब उन्होंने अपनी बिटिया इंदु के लिए लिखी थी जब वह कोई दस साल की थीं। यह चिट्ठियों की शक्ल में लिखी गई थी और फिर इसका संकलित रूप ‘Letters from a Father to his  daughter’ के नाम से 1929 में प्रकाशित हुई। 1931 में इस किताब का हिंदी अनुवाद ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। ख्यात लेखक प्रेमचंद ने इसका हिंदी अनुवाद किया है।

इस हिंदी अनुवाद की एक जीर्ण-शीर्ण प्रति मेरे पास अब भी है, जिसे मैंने बहुत बचा कर धरोहर की तरह रखा हुआ है, इसलिए कि यह हमारे बचपन की स्मृति है। लगभग दस साल की उम्र में ही यह किताब मेरे पिता ने मुझे दी थी, जिसे उन्होंने शायद अपने युवा काल में खरीदी थी। मेरे पास जो प्रति है, उसका प्रकाशक इलाहाबाद स्थित इलाहाबाद लॉ जर्नल प्रेस है। किताब की कीमत बारह आने है, जो यूं दर्ज है- मूल्य III/। इसके अनुसार यह 1946 का संस्करण है, जो नौंआ संस्करण है। प्रथम हिंदी संस्करण 1931 में बताया गया है।

किताब इंदिरा को समर्पित है, क्योंकि संकलन की चिट्ठियां उन्हें ही लिखी गईं थीं। हिंदी संस्करण की भूमिका नेहरू ने लिखी है, वह देखने लायक है।

उसे पूरा उद्धृत करना चाहूंगा-
“तीन बरस हुए मैंने ये खत अपनी पुत्री इंदिरा को लिखे थे। उस समय वह मसूरी में हिमालय पर थी और मैं इलाहाबाद में था। वह दस वर्ष की थी और ये खत उसी के लिए लिखे गए थे और किसी और का ख्याल नहीं था, लेकिन फिर बाद में बहुत मित्रों ने मुझे राय दी कि मैं इनको छपवाऊं ताकि और लड़के और लड़कियां भी इनको पढ़ें।

पत्र अंग्रेजी भाषा में लिखे गए थे और करीब दो वर्ष हुए अंग्रेजी में छपे भी थे। मुझे आशा थी कि हिंदी में भी जल्दी निकले, लेकिन और कामों में मैं फंसा रहा और कई कठिनाइयां पेश आ गईं, इसलिए देर हो गई।

यह खत एकाएक ख़त्म हो जाते हैं। गर्मी का मौसम ख़त्म हुआ और इंदिरा पहाड़ से उतर आई। फिर ऐसे खत लिखने का मौका मुझे नहीं मिला। उसके बाद के साल वह पहाड़ पर नहीं गई और दो बरस बाद 1930 में मुझे नैनी की, जो पहाड़ नहीं है, की यात्रा करनी पड़ी। नैनी जेल में कुछ और पत्र मैंने इंदिरा को लिखे, लेकिन वे भी अधूरे रह गए और मैं छोड़ दिया गया। ये नए खत इस किताब में शामिल नहीं हैं। अगर मुझे बाद में कुछ और लिखने का मौका मिला तब शायद वे भी छापे जावें।

मुझे मालूम नहीं कि लड़के और लड़कियां इन खतों को पसंद करेंगे या नहीं। पर मुझे आशा है कि जो इनको पढ़ेंगे वे इस हमारी दुनिया और उसके रहने वालों को एक बड़ा कुटुंब समझेंगे और जो भिन्न-भिन्न देशों के रहने वालों में वैमनस्य और दुश्मनी है, वह उनमें नहीं होगी।

इन पत्रों का हिंदी अनुवाद श्री प्रेमचंद जी ने किया है और मैं उनका बहुत मशकूर हूं।
आनंद भवन
, 6 जुलाई 1931″

किताब में इकतीस चिट्ठियां हैं और जिन्हें इस पुस्तक में तेरह चित्रों से सजाया गया है। कुल जमा 96 पृष्ठों की यह किताब इतनी जानदार और दिलचस्प है कि कोई भी एक बैठकी में पढ़ सकता है। पहली ही चिट्ठी का शीर्षक है- ‘संसार पुस्तक है’।

नेहरू को ही देखें-
“तुम इतिहास किताबों में ही पढ़ सकती हो, लेकिन पुराने ज़माने में तो आदमी पैदा ही नहीं हुआ था, किताबें कौन लिखता? तब हमें उस ज़माने की बातें कैसे मालूम हों? यह तो नहीं हो सकता कि हम बैठे-बैठे हर एक बात सोच निकालें। यह बड़े मजे की बात होती, क्योंकि हम जो चाहते सोच लेते, और सुंदर परियों की कहानियां गढ़ लेते, लेकिन जो कहानी किसी बात को देखे बिना ही गढ़ ली जाए वह कैसे ठीक हो सकती है? लेकिन ख़ुशी की बात है कि उस पुराने ज़माने की लिखी हुई किताबें न होने पर भी कुछ ऐसी चीजें हैं, जिन से हमें उतनी ही बातें मालूम होती हैं जितनी किसी किताब से होती। ये पहाड़, समंदर, सितारे, नदियां, जंगल, जानवरों की पुरानी हड्डियां और इसी तरह की और भी कितनी ही चीजें वे किताबें हैं जिन से हमें दुनिया का पुराना हाल मालूम हो सकता है, मगर हाल जानने का असली तरीका यह नहीं है कि हम केवल दूसरों की लिखी हुई किताबें पढ़ लें, बल्कि खुद संसार रूपी पुस्तक को पढ़ें। मुझे आशा है कि पत्थरों और पहाड़ों को पढ़ कर तुम थोड़े ही दिनों में उनका हाल जानना सीख जाओगी। सोचो, कितने मजे की बात है!” (पृष्ठ 9)

नेहरू आहिस्ता-आहिस्ता दुनिया की कहानी बतलाते हैं। शुरू का इतिहास कैसे लिखा गया, जमीन कैसे बनी, जीव कैसे पैदा हुए, एककोशीय अमीबा से लेकर कशेरुकी जीव-जंतुओं के विकास को वह क्रमिक रूप में बतलाते हैं। स्तनपायी कैसे बने और आखिर में आदमी कैसे नमूदार हुआ की कड़ी को बारीकी से समझाते हैं। आदमी के क्रमिक विकास, खेती-बारी की शुरुआत, जुबानों अथवा भाषाओं के बनने, लिपियों और लेखन के विकास से लेकर मजहबों और पुरोहितों के बनने की कहानी भी वह बतलाते हैं। राजा कब और कैसे बने से लेकर उनके और पुरोहितों के गठजोड़ की कहानी भी वह सरल भाषा में कह जाते हैं।

जैसे देखिए-
“राजा और उसके दरबारियों का बहुत दबाव था। शुरू में जब जातियां बनीं, तो जमीन किसी एक आदमी की नहीं होती थी, जाति भर की होती थी, लेकिन जब राजा और उसकी टोली के आदमियों की ताकत बढ़ी तो वे कहने लगे कि जमीन हमारी है। वे जमींदार हो गए और बेचारे किसान जो छाती फाड़ कर खेती-बारी करते थे, एक तरह से महज उनके नौकर हो गए। फल यह हुआ कि किसान खेती करके जो कुछ पैदा करते थे, वह बंट जाता था और बड़ा हिस्सा जमींदार के हाथ लगता था। बाज़ मंदिरों के कब्जे में जमीन थीं, इसलिए पुजारी भी जमींदार हो गए। मगर ये मंदिर और उनके पुजारी थे कौन? मैं एक खत में लिख चुका हूं कि शुरू में जंगली आदमियों को ईश्वर और मजहब का ख्याल इस वजह से पैदा हुआ कि दुनिया की बहुत सी बातें उनकी समझ में न आती थीं और जिस बात को वे समझ न सकते थे, उनसे डरते थे। उन्होंने हर एक चीज को देवता या देवी बना लिया, जैसे नदी, पहाड़, सूरज, पेड़, जानवर और बाज़ ऐसी चीजें जिन्हें वे देख तो न सकते थे पर कयास करते थे, जैसे भूत-प्रेत। वे इन देवताओं से डरते थे, इसलिए उन्हें हमेशा यह ख्याल होता था कि वे इन्हें सजा देना चाहते हैं। वे अपने देवताओं को भी अपनी ही तरह क्रोधी और निर्दयी समझते थे और उनका गुस्सा ठंडा करने या उन्हें खुश करने के लिए कुर्बानियां किया करते थे।” (पृष्ठ 83 )

आखिर के तीन अध्याय या शीर्षक हैं- आर्यों का हिंदुस्तान में आना, हिंदुस्तान के आर्य कैसे थे और रामायण और महाभारत। चूंकि ये पत्र 1928 में लिखे गए हैं, इसलिए उस वक़्त आर्य विषयक जो सामग्री और समझ थी, उसी का उन्होंने उपयोग किया है। आज उनमें से कुछ बातें बेमानी और फिजूल लग सकती हैं। जैसे उस समय तक इंडस सभ्यता यानि मोहनजोदड़ो-हड़प्पा के बारे में आधिकारिक रूप से बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता था। बावजूद इसके वह यह बतलाते हैं कि मिस्र की तरह भारत में भी द्रविड़ों की सभ्यता थी और समुद्री रस्ते से मिस्र, मेसोपोटैमिया आदि मुल्कों से उनका व्यापारिक रिश्ता था। नेहरू के ही शब्दों में-
“उस ज़माने में हिंदुस्तान में रहने वाले द्रविड़ कहलाते थे, यह वही लोग हैं जिनकी संतान आजकल दक्षिणी हिंदुस्तान में मद्रास के आसपास रहती है।”

रामायण का ब्योरा नेहरू यूं देते हैं-
“यह तो तुम जानती ही हो कि रामायण में राम और सीता की कथा और लंका के राजा रावण के साथ उसकी लड़ाई का हाल बयान किया गया है। पहले इस कथा को वाल्मीकि ने संस्कृत में लिखा था। बाद को वही कथा बहुत सी दूसरी भाषाओं में लिखी गई। इनमें तुलसीदास का हिंदी में लिखा हुआ रामचरितमानस सब से मशहूर है। रामायण पढ़ने से मालूम होता है कि दक्खिनी हिंदुस्तान में बंदरों ने रामचंद्र की मदद की थी और हनुमान उनका बहादुर सरदार था। मुमकिन है कि रामायण की कथा आर्यों और दक्खिन के आदमियों की लड़ाई की कथा हो, जिन के राजा का नाम रावण रहा हो। रामायण में बहुत-सी सुंदर कथाएं हैं, लेकिन मैं उनका जिक्र नहीं करूंगा, तुमको खुद उन कथाओं को पढ़ना चाहिए।” (पृष्ठ 95 )

नेहरू जब यह सब लिख रहे थे तब वह चालीस से कम उम्र के थे। उनकी बिटिया इंदु के बारे में बतलाया जा चुका है कि वह दस वर्ष की थीं। एक युवा पिता अपनी नहीं बिटिया को दुनिया के नक़्शे और उस के फलसफे समझा रहा है। नेहरू के पास दुनिया की एक समझ थी। अपने देश भारत, जिसे वह आदतन हिंदुस्तान कहा करते थे, से उन्हें बेइंतहा मुहब्बत थी, लेकिन वह जज्बाती नहीं, आधारभूत प्रेम था। उनके लिए देश का मतलब यहां के लोग थे, उनकी धड़कन थी। इतिहास को नेहरू ने बहुत गहरे उतर कर समझा था। अपने समकालीन हिंदुस्तानी नेताओं में इस मामले में वह बहुत आगे थे। हिंदुस्तान या कहीं के भी इतिहास को उन्होंने एक-दूसरे से अलग कर नहीं देखा-समझा। पूरी दुनिया उनके लिए एक परिवार था, उनके ही शब्दों में ‘एक बड़ा कुटुंब’। इसलिए वह अंध राष्ट्रवाद की सनक और कूपमंडूक होने से बचे रहे।

यह किताब नेहरू के किताबों की त्रयी- ग्लिम्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ ‘ऑटोबायोग्राफी’ और ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ से पृथक है। लेकिन इस से पता चलता है कि नेहरू की मौलिक विचारधारा क्या है। बच्चों के लिए तो यह जरुरी है ही, लेकिन वे वयोवृद्ध भी इसका लाभ उठा सकते हैं, जो दुनिया के बारे में बचकानी समझ रखते हैं। इसलिए अनेक स्तरों पर यह किताब आज भी प्रासंगिक है।

(मैंने इस महीने नेहरू विषयक तीन पोस्ट लिखने का वायदा किया था। यह तीसरी पोस्ट। आज इंदु का जन्मदिन भी है, जिसके लिए यह चिट्ठियां लिखी गई थीं।)

(लेखक और चिंतक प्रेम कुमार मणि की फेसबुक वाल से साभार।)

प्रेम कुमार मणि
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