राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं में मिलती है विश्व दर्शन की झलक

9 अप्रैल 1893 में उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर पर स्थित संगीत और साहित्य की संस्कार भूमि आजमगढ़ के पन्दहा गांव में पैदा हुए राहुल सांकृत्यायन बहुभाषाविद, बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न और विलक्षण साहित्यकार, इतिहासकार, प्रखर साम्यवादी चिंतक और विचारक थे।

घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत करने वाले राहुल सांकृत्यायन ने यात्रा वृतांत और यात्रा साहित्य को अत्यंत समृद्ध किया। ‘गंगा से बोल्गा’ और ‘मेरी जीवन यात्रा’ जैसी साहित्यिक रचनाओं ने उन्हें यात्रा साहित्य का पितामह बना दिया। हिन्दी के विशाल साहित्यिक संसार में यात्रा वृतांत और यात्रा साहित्य को राहुल सांकृत्यायन के विशेष अवदान के लिए स्मरण किया जाएगा।

पूर्वांचल के खेत खलिहानों की प्यास बुझाने वाली तमसा के तट पर पैदा हुए गंगा घाटी के इस महान साहित्यिक सपूत ने कश्मीर घाटी से लेकर तिब्बत, श्रीलंका, लगभग सम्पूर्ण मध्य एशिया, सोवियत संघ और काकेशस तक जिज्ञासु मन मस्तिष्क से भ्रमण किया। राहुल सांकृत्यायन की साहित्यिक साधना अटल, अविरल, अद्वितीय और रोमांचकारी थी।

उन्होंने पर्वतों, पहाडों, नदियों और हजारों मील दूर कंकरीले-पथरीले दुर्गम रास्तों पर चलकर विभिन्न भाषाओं और बोलियों की अनगिनत पाण्डुलिपियों और ग्रंथों को एकत्रित तथा संग्रहित किया तथा न केवल हिन्दी साहित्य बल्कि सम्पूर्ण विश्व साहित्य को अत्यंत उत्कृष्टता प्रदान किया।

घुमक्कड़ी स्वभाव के यथार्थवादी दृष्टि रखने वाले राहुल सांकृत्यायन ने विश्व भ्रमण के फलस्वरूप विश्व व्यापी मानवतावादी दर्शन और विश्व दर्शन को अपनी साहित्यिक सर्जनाओं में पिरोने का अतुलनीय प्रयास किया।

बचपन में ही माताजी के निधन के कारण राहुल सांकृत्यायन बाल विवाह जैसी उस समय प्रचलित कुप्रथा के शिकार हो गए। बचपन में ही विवाह की घटना ने उनको यायावरी अथवा सन्यासी चरित्र का बना दिया। विवाह के उपरांत महावीर स्वामी, महात्मा बुद्ध और अन्य ज्ञानपिपासु ऋषियों मुनियों सत्यसाधकों की तरह राहुल ने भी गृहत्याग दिया।

सन्यासी चरित्र वाले राहुल सांकृत्यायन शौकिया घुमक्कड़ी नहीं थे बल्कि उनके घुमक्कड़पन में सृजनशीलता, रचनाधर्मिता और सच्चे ज्ञान-विज्ञान का भूखा-प्यासा दृढ़ निश्चयी पथिक दिखाई देता है। कुप्रथाओं, कुरीतियों, अंधविश्वासों और विसंगतियों के प्रति विद्रोह करने का साहस रखने वाले राहुल सांकृत्यायन के अन्दर विविधताओं को आत्मसात तथा हृदयंगम करने का अद्भुत हुनर था।

विश्व भ्रमण के दौरान वह जहां भी गये वहां की भाषा, बोली को सीखा समझा और वहां की संस्कृति के साथ घुल-मिल गए। प्रकारांतर से राहुल सांकृत्यायन ने विविध लोक संस्कृतियों को अपनी जीवन शैली और चरित्र में धारण कर लिया। वह जहां भी गए वहां के समाज, साहित्य, संस्कृति तथा उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान का गहनता, गंभीरता और गूढ़ता से अध्ययन किया।

इसलिए उनकी लगभग समस्त साहित्यिक कृतियों में गहरी सूझ-बूझ, समझदारी और दृष्टिकोण में व्यापकता झलकती है। चिंतक, विचारक और इतिहासकार के साथ-साथ साहित्यकार भी अपने दौर की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से गहरे रूप से प्रभावित रहता है। राहुल सांकृत्यायन भी उस दौर की उपज थे जब ब्रिटिश सरकार अपने साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को साधने के लिए भारत की खेती-किसानी, मौलिक भारतीय अर्थतंत्र, सामाजिक बुनावट और सांस्कृतिक जन-जीवन को तहस-नहस कर रही थी।

संक्रमण के दौर से गुजर रहे भारतीय समाज, साहित्य और संस्कृति ने युवा होते राहुल को गहरे रूप से प्रभावित किया। बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब और दक्षिण भारत में समाज सुधारकों द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुप्रथाओं और अंधविश्वासों के विरुद्ध सतत संघर्ष चलाया जा रहा था। स्वाधीनता संग्राम की मुख्य तथा अग्रणी राजनीतिक जमात कांग्रेस अभी जवानी की दहलीज पर कदम रख रही थी।

इन समस्त संक्रमणकालीन चहलकदमियों, परिघटनाओं और परिस्थितियों ने राहुल सांकृत्यायन को गहरे रूप से प्रभावित किया। घुमक्कड़ी स्वभाव के राहुल सांकृत्यायन ने न केवल भौगोलिक भ्रमण किया बल्कि मन, मस्तिष्क और वैचारिक दृष्टि से भी वह यायावर रहे। वैचारिक यात्रा पथ पर उन्होनें वेदांती, आर्यसमाजी, किसान नेता, बौद्ध भिक्षु से लेकर प्रखर तथा प्रतिबद्ध साम्यवादी चिंतक और विचारक तक का लम्बा सफर तय किया।

एक बेहतर समाज तथा बेहतर सामाजिक परिवेश बनाने की तड़प रखने वाले राहुल सांकृत्यायन की यायावरी जीवन शैली ने उनके मूल नाम ‘केदारनाथ पाण्डेय’ को नेपथ्य में डाल दिया। श्रीलंका में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के कारण बौद्ध भिक्षुओं ने उनका नामकरण राहुल कर दिया। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति, कुशाग्रता, मेधाशक्ति और विलक्षण बौद्धिक प्रतिभा को ध्यान में रखकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित के नाम से सुशोभित किया।

सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक रूप से शोषित, वंचित, पददलित, पदक्रमित, तिरस्कृत बहिष्कृत तथा सतह के आदमी के पक्ष में राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं में सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्ति का उद्घोष स्पष्ट रूप से झलकता है। इसलिए राहुल सांकृत्यायन को आधुनिक भारत में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत के रूप जाना जाता हैं।

सहकार, समन्वय, साहचर्य, सहिष्णुता, सुहृदयता और समता पर आधारित समाज बनाने की तड़प उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इस दिशा में खून की प्यासी दुनिया को सत्य, अहिंसा और करूणा से अभिसिंचित करने वाले तथा भारत में प्रथम सामाजिक क्रांति के प्रणेता महात्मा बुद्ध के तार्किक, बौद्धिक और दार्शनिक विचारों पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर माना जाता है।

यह निर्विवाद तथ्य है कि साहित्य राजनीति और सामाजिक जीवन को दिशा दिखाने वाली एक मशाल की तरह होती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन की विविध साहित्यिक रचनाएं आज भी भारतीय जन जीवन में एक मशाल की तरह प्रखरता से प्रज्वलित हैं।

1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत तथा 1963 में पद्मभूषण से विभूषित राहुल सांकृत्यायन ने  साहित्य की लगभग समस्त विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। ‘सतमी के बच्चे’, ‘बोल्गा से गंगा’, ‘बहुरंगी मधुपुरी’, ‘कनैला की कथा’ (कहानियां) ‘बाईसवीं सदी’, ‘जीने के लिए’, ‘जय यौधेय’, ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’, ‘मधुर स्वप्न’, ‘संप्तसिंधु’, ‘विस्मृत यात्री’, ‘दिवोदास’ (उपन्यास), ‘महामनव बुद्ध’, ‘सरदार पृथ्वी सिंह’, ‘नए भारत के नये नेता’, ‘अतीत से वर्तमान’, ‘कार्ल मार्क्स’, ‘लेनिन’, ‘स्टालिन’ तथा ‘वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली’ (जीवनियां) जैसी अमर ओजस्वी रचनाएं आज भारतीय पाठकों के मन मस्तिष्क और हृदय को उद्वेलित करती और झकझोरती रहतीं हैं।

भारतीय मनीषा की श्रेष्ठ धरोहर, इतिहासकार, आधुनिक भारत के सामाजिक क्रांतिदूत, महान चिंतक विचारक और उत्कृष्ट साहित्यकार को उनके जन्मदिन पर हिन्दी साहित्य जगत की तरफ से शत-शत नमन।

(मनोज कुमार सिंह ‘कर्मश्री’ मासिक पत्रिका के उप-संपादक हैं।)

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