हेनरी डेविड थोरो जन्मदिन विशेष: सादगी हो, पर सियासत के नाम पर नहीं

सादगी दिवस की शुरुआत लेखक और दार्शनिक हेनरी डेविड थोरो के सम्मान में की गई थी। डेविड जीवन को सादगी से जीने के हिमायती थे। हेनरी का जन्म 12 जुलाई को हुआ था और उनका मानना था कि जीवन को केवल धन और अनावश्यक चीजों को हासिल करने के लिए ही खत्‍म न कर दिया जाए। उनका मानना था कि हमारा ध्यान प्रकृति, ज्ञान, आत्मनिर्भरता और अपना रास्ता खुद बनाने पर अधिक होना चाहिए और इसके लिए सरल और सादा जीवन जीना जरूरी है।

सादगी का नाम लेते ही सबसे पहले याद आते हैं गांधी बापू। गोल मेज कांफ्रेंस में ब्रिटिश सम्राट ने जब उनसे कहा कि उनके कपड़े कुछ कम नहीं क्या, तो गांधी जी ने तपाक से जवाब दिया: “सम्राट ने हम दोनों के हिस्से के कपड़े जो पहन लिए हैं!” बापू कहते थे कि जब किसी की सोचने, कहने और करने में फर्क नहीं होता तभी सुख मिलता है। सादगी जा वास्तविक अर्थ यही है। यह भी सच है कि सादगी सिर्फ कपड़ों से संबंधित नहीं होती। इसका संबंध होता है जीवन में क्षण-क्षण प्रवाहित होती सजग सरलता के साथ। सादगी सियासत के लिए नहीं ओढ़ी जाती। तब वह बहुत ही वाहियात और घटिया सामान बन जाती है, जिसे बेच कर सियासतदां कुछ ताकत खरीदना चाहते हैं। उसका अर्थ गले में मफलर बांध कर और हवाई चप्पलें पहन कर चलना नहीं होता। जैसा कि हम भारतीय राजनीति में देखते हैं।

बनावटी सादगी से बेहतर है कि आप खुलकर दिखावा करें, क्योंकि सादगी वहीं है जहां ढोंग नहीं। सादा जीवन बिताने वाला जो ओढ़ता बिछाता है वही बोलता, जीता है। और जब भी कोई फर्क होता है इनके बीच तो वह तुरंत सतर्क हो जाता है। गांधी जी की सादगी इतनी स्वाभाविक थी कि एक सजे धजे, जटिल गांधी की आप कल्पना ही नहीं कर सकते। गांधी जी सादगी का दूसरा नाम ही थे। पर उनके समूचे जीवन पर नज़र दौडाई जाए, उनके आतंरिक और वाह्य संघर्षों को समझा जाए तो साफ़ दिखता है कि सरल होना बहुत ही मुश्किल है। बहुत साहस चाहिए इस जटिल दुनिया में सादा जीवन जीने के लिए।

सादगी को लेकर एक अजीब बात यह है हमारे देश में। जो जननायक सादा जीवन बिताते हैं वे अपनी सादगी का ढोल बजाने लग जाते हैं। जबकि सादगी के प्रदर्शन में ही अहंकार है। उसमें ही जटिलता है। सादा होना तो स्वाभाविक होना है। पर तड़क-भड़क और शोशेबाजी वाले राजनीतिक जीवन में सादगी के साथ जीने वाले को लोग नायक मान बैठते हैं। सादगी छल भी लेती है, यदि वह सिर्फ बाहरी चीज़ों में है, मन और मस्तिष्क में नहीं है। सीधे सादे दिखने वाले नेता को लोग सच्चा समझ कर उसे वोट दे डालते हैं और सत्ता पाने के बाद उसका असली रूप सामने आता है। सादगी के सिक्के दिखाकर सत्ता खरीदने की सियासत में यहां कई नेता बड़े उस्ताद हैं।

आज सादगी दिवस पर याद करने की जरूरत है होसे मुहिका को। 2010 से 2015 तक उरुग्वे के राष्ट्रपति थे होसे मुहिका (Jose Mujica)। उनको करीब 11000 डॉलर की तनख्वाह मिलती है, जिसका 90 प्रतिशत वह गरीबों के लिए दान दे देते हैं। किसी शेख ने उनकी ‘मुफलिसी’ देखकर उनकी पुरानी कार के लिए दस लाख डॉलर देने की बात कही, पर मुहिका इसके लिए तैयार नहीं हुए। उनका कहना है कि यह कार उन्होंने अपने तीन टांगों वाले कुत्ते मेनुएला के लिए बचा कर रखी है। उनके घर के बाहर खड़े दो गार्ड्स की उपस्थिति ही आपको बताएगी कि वह एक ख़ास आदमी हैं। अपनी जमीन पर गुलदाउदी उगाते हैं; मेनुएला भी उनके साथ ही रहता है। उरुग्वे दक्षिण अमेरिका के दक्षिणपूर्वी क्षेत्र में बसा है। देश की आबादी करीब 33 लाख है।

‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को एक इंटरव्यू में मुहिका ने बताया था कि गरीब वह नहीं, जिसके पास कुछ नहीं, गरीब वह है, जिसे बहुत कुछ चाहिए। मुहिका जब राष्ट्रपति बने थे, तब अपने एक छोटे से पुराने स्कूटर पर बैठकर संसद तक गए थे। मुहिका आर्थिक सुधार पर ज़्यादा ध्यान देने के खिलाफ हैं, उनका मानना है कि यह हमारी सभ्यता की बड़ी समस्या है क्योंकि धरती के सीमित संसाधनों पर इसका गलत असर पड़ता है। मुहिका का मानना है कि भौतिक सुख की तरफ भागने से ज़्यादा ज़रूरी है कि इंसान एक दूसरे से प्रेम करें। संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने भाषण में भी मुहिका ने सादगी की वकालत की थी और भौतिकता के पीछे न भागने का सन्देश दिया था।

2013 में मशहूर सर्बियाई फिल्म निर्देशक आमिर कुस्तुरिका ने मुहिका पर एक फिल्म बनाई जिसमें मुहिका को ‘राजनीति का आखिरी नायक’ बताया गया है। अल जज़ीरा को मुहिका ने एक भेंटवार्ता में कहा, ‘राष्ट्रपति एक बड़े स्तर का अधिकारी भर होता है। वह कोई राजा या भगवान नहीं होता। न ही वह किसी कबीले का धर्म गुरु होता है, जो सब कुछ जानता है। वह एक सरकारी नौकर है। उसके लिए जीने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि वह उन लोगों की तरह रहे जिनका वह प्रतिनिधित्व करता है, जिनकी सेवा करने का वह दावा करता है।’

होसे मुहिका की सादगी में सियासत की बू नहीं आती, न ही यह कोई कृत्रिम रूप से संवर्धित सादगी दिखती है, किसी के वोट के लिए। बड़े ही स्वाभाविक ढंग से खिली हुई सादगी है उनकी। यदि वह चाहते तो फिर से राष्ट्रपति के पद के लिए खड़े हो सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्यूबा क्रांति से निकले मुहिका ने अपनी जिंदगी को संत की तरह जिया। उन्होंने राष्ट्रपति रहते हुए उन तमाम सुविधाओं को ठोकर मार दी, जो बतौर राष्ट्रपति उन्हें मिली थीं। वह अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति भवन की जगह अपनी पत्नी के साथ महज दो कमरे के मकान में रहे। तनख्वाह का 90 फीसदी गरीबों में बांट दिया करते थे इसलिए खर्चा चलाने के लिए पत्नी के साथ मिलकर फूलों की खेती करते हैं। ट्रैक्टर भी खुद ही चलाते। पांच साल के पूरे कार्यकाल के दौरान अपनी पुरानी खटारा वाक्सवैगन बीटल गाड़ी खुद ही ड्राइव कर दफ्तर जाते थे।

‘दुनिया के सबसे गरीब राष्ट्रपति’ के रूप में विख्यात मुहिका कहते हैं, ‘मुमकिन है मैं पागल और सनकी दिखता हूं लेकिन यह तो अपने-अपने ख्याल हैं।’ इस बारे में वह कहते हैं कि मेरे पास जो भी है, मैं उसमें जीवन गुजार सकता हूं। वह 2009 में उरुग्वे के राष्ट्रपति चुने गए। 1960 और 1970 में वह उरुग्वे में गुरिल्ला संघर्ष के सबसे बड़े नेता भी रहे। इस राष्ट्रपति की विदाई के वक्त पूरे उरुग्वे की जनता उदास थी। जब नए राष्ट्रपति तबारे वाजक्वेज ने पद की शपथ ली तो उस मौके पर मुहिका के विदाई के लिए ब्राजील की तत्कालीन राष्ट्रपति दिल्मा रोसेफ, क्यूबा के तत्कालीन राष्ट्रपति राउल कास्त्रो सहित कई नेता मौजूद रहे। होसे मुहिका ने फिर से इस पद का चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया।

(चैतन्य नागर लेखक एवं टिप्पणीकार हैं।)

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