जयंतीः शहादत के बाद भी अंग्रेज सरकार थर्राती थी गेंदालाल से

देश की आजादी कई धाराओं, संगठन और व्यक्तियों की अथक कोशिशों और कुर्बानियों का नतीजा है। गुलाम भारत में महात्मा गांधी के अंहिसक आंदोलन के अलावा एक क्रांतिकारी धारा भी थी, जिससे जुड़े क्रांतिकारियों को लगता था कि अंग्रेज हुक्मरानों के आगे हाथ जोड़कर, गिड़गिड़ाने और सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों से देश को आजादी नहीं मिलने वाली, इसके लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना होगा और जरूरत के मुताबिक हर मुमकिन कुर्बानी भी देनी होगी। क्रांतिवीर गेंदालाल दीक्षित ऐसे ही एक जांबाज क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने साहसिक कारनामों से उस वक्त की अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था।

गेंदालाल दीक्षित, क्रांतिकारी दल ‘मातृवेदी’ के कमांडर-इन-चीफ थे और एक वक्त उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में काम कर रहे क्रांतिकारियों रासबिहारी बोस, विष्णु गणेश पिंगले, करतार सिंह सराभा, शचींद्रनाथ सान्याल, प्रताप सिंह बारहठ आदि के साथ मिलकर, ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ उत्तर भारत में सशस्त्र क्रांति की पूरी तैयारी कर ली थी, लेकिन अपने ही एक साथी की गद्दारी की वजह से उनकी सारी योजना पर पानी फिर गया और अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने के इल्जाम में फांसी पर चढ़ा दिए गए। सैकड़ों को काला पानी जैसे यातनागृहों में कठोर सजाएं हुईं। हजारों लोगों को अंग्रेज सरकार के दमन का सामना करना पड़ा। बावजूद इसके गेंदालाल दीक्षित ने हिम्मत नहीं हारी और अपने जीवन के अंतिम समय तक मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करते रहे।

ऐसे महान क्रांतिकारी, मां भारती के वीर सपूत गेंदालाल दीक्षित की बाकी जिंदगी कितनी तूफानी और रोमांचकारी थी?, अगर हम इसे अच्छी तरह से जानना-समझना चाहते हैं, तो ‘कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित’ एक जरूरी किताब है। चंबल फाउंडेशन से प्रकाशित लेखक, पत्रकार, सोशल एक्टिविस्ट शाह आलम की इस किताब में न सिर्फ आजादी के मतवाले गेंदालाल दीक्षित के जीवन की संक्षिप्त जानकारी मिलती है, बल्कि संयुक्त प्रांत के सबसे बड़े गुप्त क्रांतिकारी संगठन ‘मातृवेदी’ की कार्यप्रणाली का भी विस्तृत ब्यौरा मिलता है। संगठन ने किस तरह से इस क्षेत्र में आकार लिया और आहिस्ता-आहिस्ता यह दल उत्तर भारत का सबसे बड़ा गुप्त क्रांतिकारी दस्ता बन गया, किताब से इसकी पूरी जानकारी मिलती है। लेखक ने बाकायदा शोध कर, इस किताब को लिखा है।

30 नवंबर,1890 को चंबल घाटी के भदावर राज्य आगरा के अंतर्गत बटेश्वर के पास एक छोटे से गांव मई में जन्मे महान क्रांतिकारी पं. गेंदालाल दीक्षित ने साल 1916 में चंबल के बीहड़ में ‘मातृवेदी’ दल की स्थापना की थी। ‘मातृवेदी’ दल से पहले उन्होंने एक और संगठन ‘शिवाजी समिति’ का गठन किया था और इस संगठन का भी काम नौजवानों में देश प्रेम की भावना को जागृत करना और उन्हें क्रांति के लिए तैयार करना था। आगे चलकर ब्रह्मचारी लक्ष्मणानंद और बागी सरदार पंचम सिंह के साथ मिलकर, उन्होंने ‘मातृवेदी’ दल बनाया, जिसमें बाद में प्रसिद्ध क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, देवनारायण भारतीय, श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, शिवचरण लाल शर्मा भी शामिल हुए।

गेंदालाल दीक्षित का कल्पनाशील नेतृत्व और अद्भुत सांगठनिक क्षमता का ही परिणाम था कि एक समय ‘मातृवेदी’ दल में दो हजार पैदल सैनिक के अलावा पांच सौ घुड़सवार थे। दल के खजाने में आठ लाख रुपये थे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि ‘मातृवेदी’ दल की केंद्रीय समिति में चंबल के 30 बागी सरदारों को भी जगह मिली हुई थी। क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने इस संगठन की तारीफ करते हुए लिखा था, ‘‘संयुक्त प्रांत का संगठन भारत के सब प्रांतो से उत्तम, सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित था। क्रांति के लिए जितने अच्छे रूप में इस प्रांत ने तैयारी कर ली थी, उतनी किसी अन्य प्रांत ने नहीं की थी।’’

देश पर मर मिटने वाले इतने सारे क्रांतिकारियों के एक साथ आ जाने के बाद क्रांति क्यों असफल हुई?, लेखक ने किताब में इसका भी विस्तार से वर्णन किया है। सरल, सहज भाषा में लिखी गई यह छोटी सी किताब, उस भूले बिसरे क्रांतिकारी के विप्लवी जीवन और साहसिक कारनामों को सामने लाती है, जिसे महज तीस साल की छोटी उम्र मिली। 21 दिसंबर 1920 को गेंदालाल दीक्षित की शहादत हुई और आलम यह था कि उनकी शहादत के कई साल बाद तक अंग्रेज सरकार उनके कारनामों से खौफजदा रही। उसे यकीन ही नहीं था कि गेंदालाल दीक्षित अब इस दुनिया में नहीं हैं।

‘बीहड़ में साइकिल’, ‘आजादी की डगर पे पांव’ और ‘मातृवेदी’ के बाद ‘कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित’ लेखक शाह आलम की एक ऐसी किताब है, जिसमें उन्होंने देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले उस महान योद्धा के संघर्षमय जीवन की झलकियां पेश की हैं, जिसे हमारी सरकारों ने तो बिसरा ही दिया है, नई पीढ़ी भी नहीं जानती कि क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित का देश की आजादी में क्या योगदान है?

हमारी नई पीढ़ी देश की स्वतंत्रता के नायकों एवं उनके संघर्ष को जाने, उनके बलिदान से भली भांति वाकिफ हों, इसके लिए ‘कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित’ जैसी और भी किताबों की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। साल 2020 क्रांतिवीर गेंदालाल दीक्षित की शहादत का सौंवा साल है और इस शताब्दी वर्ष में उन्हें याद करना, देश की उस क्रांतिकारी परंपरा को याद करना है, जिसके नक्शेकदम पर चलकर चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह और उधम सिंह आदि जोशीले, जांबाज क्रांतिकारी देश की आजादी के लिए कुर्बान हुए।

किताब: ‘कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित’ (जीवनी)
लेखक: शाह आलम
पेज: 136
मूल्य: 185 (पेपरबैक संस्करण),
प्रकाशक: चंबल फाउंडेशन, पुलिस लाईन बघौरा, उरई, जालौन (उप्र)

(मध्य प्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

ज़ाहिद खान
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