भंवर मेघवंशी की यात्राएं: सच की तलाश और प्रकृति से साक्षात्कार

‘मैं कारसेवक था’ जैसी कृति से खासतौर पर चर्चित हुए पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी का नया यात्रा-वृत्तांत हैः यात्राएं! 

इसमें उनके चौदह यात्रा-वृत्त हैं। दो लंबे हैं और शेष अपेक्षाकृत संक्षिप्त। ‘य़ात्राएं’ (संभावना प्रकाशन, रेवतीकुंज, हापुड़-245101) उनका पहला यात्रा-वृत्तांत है, जो जनवरी, 2022 में प्रकाशित हुआ। इस किताब की जान उसके दो लंबे यात्रा-वृत्तांत ही हैं। एक भूटान पर केंद्रित है और दूसरा थाईलैंड पर। ये दोनों यात्रा-वृत्तांत बेहद रोचक, सूचनात्मक और ज्ञानवर्द्धक हैं।

‘भूटान यात्रा’ शीर्षक वृत्तांत में पड़ोसी मुल्क के दो प्रमुख शहरों-थिम्पू और पारो के अलावा अनेक ग्रामीण और सुदूर क्षेत्रों की यात्राएं हैं। भंवर मेघवंशी भूटान के अपने सफर में हर क्षण एक भारतीय की नजर से जगहों और चीजों को देखते हैं। वह हिमालयीय देश के खूबसूरत शहर- पारो और चारों तरफ फैली पारो घाटी को देखकर किसी भी अन्य सैलानी की तरह मुग्ध होते हैं। लेकिन हर समय एक भारतीय यात्री वाली उनकी नजर बनी रहती है। वहां की साफ-सुंदर-झकास नदियों को देखकर वे लिखते हैं: ‘नदी को लोग यहां मां नहीं मानते और ना ही उसकी आरती उतारते हैं लेकिन उसके रखरखाव और सफाई का पूरा ख्याल रखते हैं। नदियां भूटान के लोगों के लोगों के लिए जीवन की निरंतरता का प्रतीक हैं, जिन्हें अवरुद्ध करना अथवा गंदा करना यहां के लोगों को पाप करने जैसा लगता है।—— स्वच्छता यहां के लोगों का संस्कार है, संस्कृति है और सहज भाव है।’(पृष्ठ-35)

ऐसे दौर में जब हम भारत के लोग, खासकर सरकारें अपने वनों, नदियों, पहाड़ों और झील-झरनों को तहत-नहस किये जा रही हैं, पड़ोसी भूटान ने अपने वन-क्षेत्र को बरकरार रखने का संकल्प ले रखा है। भंवर बताते हैं: ‘वर्तमान में भूटान का 72.5 भाग वन-आच्छादित है, जिसे यथावत बनाये रखने के लिए रॉयल गवर्नमेंट ऑफ भूटान और भूटान का नागरिक समाज प्रतिबद्ध दिखाई पड़ता है। भूटान ने यह वैधानिक शपथ भी ली है कि भूटान के वन क्षेत्र को कभी भी 60 प्रतिशत से कम नहीं होने दिया जायेगा। अपने इस राष्ट्रीय संकल्प को उन्होंने अपने संविधान में भी लिखित रूप से अंकित कर दिया है ताकि भावी पीढ़ियां स्वार्थ अथवा लालच के वशीभूत होकर अपने मुल्क का स्वरूप कहीं बिगाड़ न लें।’(पृष्ठ-35-36)

भंवर बताते हैं कि भूटान में सबके लिए पढ़ाई और दवाई निःशुल्क है। किसी गंभीर बीमारी की स्थिति में सरकार अपने नागरिकों को विदेश भेजकर उनका इलाज भी कराती है। उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने वाले छात्रों के अध्ययन-खर्च को भी सरकार ही वहन करती है। हालांकि उनके विवरण से यह भी साफ होता है कि उच्च शिक्षा में अध्ययन के क्षेत्र या विषय के चयन में छात्रों को उतनी स्वतंत्रता नहीं है। ज्यादातर मामलों में शासन की तरफ से ही यह तय कर दिया जाता है कि विदेश में अध्ययन करने जा रहे युवा क्या पढ़ेंगे! फिर भी भूटान का शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर इतना महत्व देना आसपास के सभी दक्षिण-एशियाई मुल्कों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण है। आंकड़े भी बताते हैं कि भूटान स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने सकल घरेलू उत्पाद के 3.15 प्रतिशत से ज्यादा खर्च करता रहा है, जबकि भारत का वास्तविक खर्च 1.28 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रहा है। अब कोई कह सकता है कि भारत में इसलिए ऐसा संभव नहीं कि हमारी आबादी भूटान से बहुत ज्यादा है। लेकिन चीन के मुकाबले तो ज्यादा नहीं है न! चीन में भी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं नागरिकों के लिए निःशुल्क हैं। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक चीन जन स्वास्थ्य सेवाओं पर 6 प्रतिशत से ज्यादा खर्च करता रहा है। भूटान की स्थिति का बयां करते हुए भंवर फिर अपने भारत की तरफ नजर डालते हैं- ‘क्या जगतगुरु भारत अपने इस पड़ोसी से सीख सकता है? क्या वह सबके लिए पढाई और दवाई जैसी बुनियादी जरूरत निःशुल्क मुहैया करवा सकता है?’

भूटान में कुछ बुराइयां भी हैं। पर एक भी बड़ी बुराई नहीं है। भंवर का ध्यान उधर भी जाता है। वे लिखते हैं: ‘भूटान के बुद्धिस्ट समाज में जाति का अस्तित्व नहीं है। यहां पर बसा हुआ नेपाली और बंगाली हिन्दू समाज जरूर बड़े गर्व से अपनी जाति भी साथ-साथ बताता है और जाति के नियमों का पालन करता है।’ भूटान के समाज में स्त्रियों की महत्ता और आदर का विवरण देते हुए भंवर फिर सवाल करते हैं:‘भूटान के समाज में स्त्री हर जगह अग्रणी भूमिका में नजर आती है। नारी के सम्मान और सशक्तीकरण तथा उसे समान अवसर प्रदान करने के क्षेत्र में भी यह छोटा सा देश हमसे कई गुना बेहतर है। वाकई जगतगुरु भारत को अपने शिष्य भूटान से अभी बहुत कुछ सीखना है।’(पृष्ठ-42)

राजधानी थिम्पू की स्थिति, खासकर उसके ‘तेज विकास’ से भंवर कुछ चिंतित भी नजर आते हैं। वह कहते हैं –‘थिम्पू विकसित हो रहा है मगर उसकी कीमत भी चुका रहा है।’ थिम्पू और पारो के माध्यम से भूटान का वर्तमान दिखाते हुए वह इस हिमालयीय देश के इतिहास पर भी नजर डालते हैं। भूटान के 4000 साल के इतिहास की संक्षिप्त रूपरेखा पेश करते हुए वह बताते हैं कि आधुनिक भूटान के निर्माण का श्रेय देश के तीसरे राजा जिग्मे दोरजी वांग्चुक को जाता है। उन्हें वहां का राष्ट्रपिता माना जाता है। इन्हीं के कार्यकाल में सन् 1953 के दौरान देश की 130 सदस्यीय नेशनल असेंबली गठित हुई थी।

भंवर जी का भूटान-केंद्रित यात्रा-वृत्तांत सुंदर ढंग से लिखा गया है। वह बहुत सूचनात्मक और ज्ञानवर्द्धक है। लेकिन अचरज होता है कि उन्होंने भूटान की राजसत्ता के स्वरूप, समाज की स्थिति और डेमोक्रेसी के उनके प्रयोग पर कुछ खास नहीं लिखा।

इस किताब का दूसरा महत्वपूर्ण वृत्तांत है-‘सुवर्णभूमि सियाम में सात दिन।’ थाईलैंड पर केंद्रित यह जीवंत वृत्तांत बहुत सूचनात्मक और ज्ञानात्मक है। भंवर जी ने इसके जरिये थाईलैंड को लेकर भारतीय समाज में व्याप्त अनेक भ्रांतियों का निवारण किया है। पटाया का बहुचर्चित ‘अलकाजार शो’ देखने के बाद वे लिखते हैः ‘—मुझे तो यह शो बहुत अच्छा लगा। इसे देखकर थाईलैंड को लेकर बनाई गई बदनाम छवि से इतर पहलू भी समझ आया कि लोग चाहें तो इसे सेक्सी डांस करार देकर थाईलैंड के बारे में अश्लील छवि निर्मित कर सकते हैं, और चाहें तो कला के इस अद्भुत शाहकार की तारीफ भी कर सकते हैं।’(पृष्ठ 69)

थाईलैंड का यात्रा वृत्तांत इस महत्वपूर्ण दक्षिण-पूर्व एशियाई देश के बारे में मध्यवर्गीय भारतीयों के बीच बनी कई भ्रांत छवियों को दूर करता है। पटाया में वेश्यावृत्ति के कथित अड्डों के बारे में वह बहुत सारी नयी जानकारी देते हैं। अपने देश में बहुत सारे लोग समझते हैं कि पटाया में वेश्यावृत्ति कानूनी तौर पर स्वीकृत वृत्ति है। पर भंवर बताते हैं कि पटाया या समूचे थाईलैंड में वेश्यावृत्ति कहीं भी कानूनी रूप से स्वीकृत वृत्ति नहीं है। यह भी सच नहीं कि पटाया में वेश्यावृत्ति के कथित अड्डे सदियों पुराने हैं! इस बारे में भंवर जी लिखते हैं- ‘सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि थाईलैंड में वेश्यावृत्ति अमेरिकी सैनिकों की देन है। दरअसल, थाईलैंड ने वियतनाम युद्ध के दौरान अपनी जमीन का उपयोग अमेरिका को सैन्य अड्डा बनाने के लिए दिया। पटाया उसी समय विकसित हुआ, युद्ध की विभीषिका–भुखमरी, रक्तपात और यौन शोषण जैसी चीजों को जन्म देती है, उसी का नतीजा है पटाया—बैंकाक का सेक्स बाजार!’(पृष्ठ-71)

किताब के कुछ अन्य वृत्तांत देश के विभिन्न स्थानों की यात्राओं पर आधारित हैं। कुशीनगर, फणीश्वर नाथ रेणु के गांव औराही-हिंगना, किशनगंज और अल्मोड़ा की सैर जैसे वृत्तांत हड़बड़ी में लिखे जान पड़ते हैं। ये बेहद संक्षिप्त और स्केची हैं–एक सैलानी की सामान्य डायरी जैसे। ‘अररिया में जाति चिंतन’ बैठकों और भेंट-मुलाकातों का आलेखात्मक-विवरण जैसा हो गया है। ग्रामीण अंचल में सघन-भ्रमण से इस सीमाचली जिले की पीड़ा ज्यादा शिद्दत और गहराई के साथ उभरती है। यह फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल’(1954) की जमीन है, जो पिछली शताब्दी के सन् साठ दशक की तरह आज भी दर्द और आंसुओं से भींगी हुई है। अररिया सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक रूप से बिहार ही नहीं, भारत के के सर्वाधिक पिछड़े और बेहाल जिलों में एक है। पिछले साल केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने इसे शैक्षिक रूप से देश के सर्वाधिक पिछड़े 374 जिलों में शुमार किया था। अशिक्षा, असमानता और पिछड़ेपन की जमीन पर जेनुइन और सशक्त राजनीतिक हस्तक्षेप के अभाव में कैसे यहां हिन्दुत्व-राजनीति ने अपना दबदबा बनाया, यह इलाके की सबसे बड़ी राजनीतिक-कहानी है। 

(वरिष्ठ लेखक और पत्रकार उर्मिलेश राज्यसभा टीवी के संस्थापक एग्जीक्यूटिव संपादक रह चुके हैं।)

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