जन्मदिन पर विशेष: “दुःख की बदली महादेवी का पाथेय”

छायावाद स्व के अस्तित्व को समझने के लिए अन्तर्मन के गहरे पानी पैठने का युग है। इस दौर के चारों स्तम्भों- प्रसाद, पन्त, निराला और महादेवी वर्मा ने स्व-अन्वेषण के निष्कर्षों की अभिव्यक्ति गद्य एवं पद्य दोनों रूपों में की है। इन चारों रचनाकारों के रचना-कर्म में सर्वाधिक विषय-वैविध्य जिसकी रचनाओं में मिलता है, वह महादेवी वर्मा हैं। आलोचक नामवर सिंह के अनुसार छायावाद संबंधी सभी आलोचनाओं का जवाब महादेवी वर्मा ने दिया है, अतः इनकी रचनाओं में विषय की व्यापकता अधिक दिखती है। इनकी काव्य रचनाएँ जहाँ विरह, वेदना और वियोग के रहस्यवादी आहों से पाठक का मन पीड़ा से परिपूर्ण कर देती हैं वहीं गद्य साहित्य वायवी रहस्य की जगह यथार्थ के खुरदुरे जमीन पर जीवन जीते मानव की सांसारिक पीड़ा और उससे जूझ का बखान करता है।

महादेवी वर्मा के अपने जीवन-संघर्षों के दौरान बहुतेरे लोगों से साबका पड़ा। तत्कालीन राजनीति के अनेक लोगों के बारे में वह साधिकार लिख सकती थीं, लेकिन अपने गद्य साहित्य में उन्होंने किसी महापुरुष या किसी दिव्य शक्ति समर्थ महिला का गुणगान करने के बजाय बिलकुल असमर्थ, अशिक्षित, अछूत और गरीबों के बारे में लिखकर वास्तविक जीवन का सौन्दर्य उद्घाटित किया। वास्तव में अपने आस-पास में बसे इन लघु मानवों के जीवन में उन्हें सहज स्वाभाविकता दिखी, जो अपने-अपने तरीके से  अपनी-अपनी लड़ाई लड़ रहे थे। यही जीवन-संघर्ष महादेवी के रचनाओं के सफ़र का पाथेय बना।

विशेषकर वे महिलाएं जो आजकल की प्रचलित शब्दावली में प्रोफेशनली कामकाजी नहीं हैं लेकिन उनके घरेलू और घर के बाहर के कार्य बोझ में पुरुषों से किसी भी स्तर पर कमी नहीं है, महादेवी की रचनाओं का मुख्य पात्र बनीं। उन महिलाओं की स्थिति चूल्हा-चौका से लेकर खेत-खलिहान तक संभालने के दोहरे कामकाज के बावजूद, पुरुष के सामने दूसरे दर्जे का जीव समझे जाने की पीड़ा ने उनकी रचनाओं में कहीं आक्रोश का, कहीं सहज विरोध का तो कहीं तीव्र व्यंग्य का रूप ग्रहण कर लिया है। जैसे एक महिला पात्र बिट्टो के बहाने बेमेल पुनर्विवाह पर व्यंग्य करती हुई वह कहती हैं कि “इस तरह 34 वर्ष की बिट्टो का 54 वर्ष के बाबा ने उद्धार का वीणा उठाया।” 

उनकी रचना “श्रृंखला की कड़ियां” में नारी समस्याओं का गहन विवेचन है | इसके अतिरिक्त “अतीत के चलचित्र” और “स्मृति की रेखाएं” में भी नारी विषयक रचनाएँ शामिल हैं। सबिया, बिट्टो, बिबिया, लक्षमा, रधिया, भक्तिन, मुन्नू की माई बूटा आदि ऐसी महिला पात्र हैं, जो महादेवी के आस-पास अपने जीवन-संघर्षों को अपने उसूलों पर अपनी शैली में जी रही हैं। महादेवी ने इन सबका विविध स्तरों पर सूक्ष्म एवं विवेचनात्मक अन्वेषण-अध्ययन करके बहुत ही भावपूर्ण तरीके से अपनी रचनाओं में उतारा है। इस तरह महादेवी जब अपने काव्य में “मैं नीर भरी दुःख की बदली” कहती हैं, तो केवल उनके स्वयं का ही नहीं बल्कि तत्कालीन समस्त नारियों का प्रतिनिधि स्वर उद्घोषित करती हैं।

महादेवी वर्मा के रचनाओं की स्त्रियाँ पुरुष-प्रधान समाज के परम्पराओं और बाहुबल से उत्पीड़ित तो होती हैं, लेकिन जब अपने स्वाभिमान की लड़ाई के मैदान में उतरती हैं तो इस व्यवस्था पर इतना जोरदार चोट करती हैं, जैसे किसी गुस्साए बिच्छू ने डंक मार दिया हो। सेवक धर्म में हनुमान की बराबरी करने वाली महादेवी की घरेलू सेविका भक्तिन के जेठ-जेठौत जब उससे उसके खेत-खलिहान हथियाने की कोशिश करते हैं, तो वह अपने पैरों से आँगन को कम्पायमान करते हुए कहती है कि “हम कुकुर-बिलारी न होयँ, हमारा मन पुसाई तौ हम दूसरे के जाब नाहिं त तुम्हारा पचै के छाती पर होरहा भूजब और राज करब, समुझै रहौ |”

लेकिन तत्कालीन समाज में स्त्री के गर्दन पर लदे समाज एवं परम्पराओं के जुआठ के बोझ के आगे महादेवी की नायिकाएं भी ज्यादा समय तक लोहा नहीं ले पाती हैं। भक्तिन को अंततः जबर्दस्ती गले पड़े दामाद को स्वीकारना ही पड़ता है। इस तरह प्रायः नारी का समझौतावादी रूप भी महादेवी की रचनाओं में उभरकर आया है। जैसे- बदलू कुम्हार द्वारा अपनी पत्नी रधिया को बच्चा जनने की मशीन बना देने और उसके लिए उचित भोजन की व्यवस्था भी न करने पर रधिया का यह कहना कि उसे ऐसा खाना अच्छा नहीं लगता, उसे तो रुखा-सूखा ही ठीक जँचता है। 

महादेवी वर्मा और फ़्रांस की बहु प्रसिद्ध स्त्रीवादी विचारक एवं लेखिका सिमोन द बोउवार समकालीन विदुषियाँ थीं। सिमोन का यह कथन कि स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बना दी जाती है, महादेवी के रचनाओं में स्वाभाविक रूप चरितार्थ होते दिखता है। महादेवी ने अपने संस्मरण एवं रेखाचित्र रचनाओं में जहाँ महिलाओं की स्थिति का भावपूर्ण आख्यान प्रस्तुत किया है, वहीँ अपनी पत्रिका “चाँद” तथा अपने निबंधों में नारी के भूत, वर्तमान और भविष्य की दशा-दिशा को लेकर काफी विश्लेषणपूर्ण नज़रिए के साथ दिखती हैं। यह गौर करने वाली बात है कि उसी इलाहाबाद से जब “मनोरमा” जैसी कताई-बुनाई एवं विविध व्यंजन विधि विशेषांक वाली पत्रिका निकल रही थी तब वहीं से महादेवी की विचारोत्तेजक “चाँद” भी। क्योंकि महादेवी के विचार की स्त्रियाँ श्रमजीवी, शोषित, गरीब, अशिक्षित और प्रायः विधवा या परित्यक्ताएँ थीं, पिता या पति के घर की शोभा-मात्र बनकर रह जाने वाली औरतें नहीं।

अपने निबंध “घर और बाहर” में वह कहती हैं कि “संपन्न कुलों की स्त्रियों को न तो संतान की देख-रेख करनी होती है, न गृह की व्यवस्था। वह तो स्वयं को अलंकृत करके पति या पिता के घर का अलंकार मात्र बनकर जीना चाहती हैं।” वहीँ दूसरी तरफ वह उन स्त्रियों की ओर देखती हैं, जो अपने संघर्षों से पुरुष-सत्ता को चुनौती देते हुए उसे धता बताकर उसकी पहुँच से बाहर हो जाती हैं। तब पुरुष उस पर झुँझलाता है और प्रायः यह झुंझलाहट स्त्री पर मिथ्या अभियोग के रूप में परिवर्तित हो जाती है।

महादेवी ने महसूस किया कि इस तरह की पुरुषवादी स्थिति हिन्दू धर्म में काफी गहरी है, ऐसे में उन्होंने बौद्ध-भिक्षुणी बनने का निश्चय किया। लेकिन वहाँ भी स्त्री के प्रति भेद-भाव की लगभग वैसी ही स्थिति देखकर यह विचार त्याग दिया। फिर उन्होंने नारी मुक्ति के लिए दो मूलभूत कारणों की पहचान की – शिक्षा और स्वावलंबन। उन्होंने बताया कि गृहस्थी में स्त्री-पुरुष का जीवन समरसता से ही चल सकता है, समर के उद्घोष से नहीं।

अपने काव्य में दुःख और करुणा के आवरण में लिपटीं तथा गद्य में मुख्यतः स्त्रियों की दशा पर गंभीर चिंता व्यक्त करने वाली महीयसी महादेवी सामान्य जीवन में बड़ी विनोद-प्रिय स्वाभाव की थीं। उनके समकालीन तथा छायावाद के ही कवि सुमित्रा नंदन पंत ने उनके बारे में लिखा है कि “उनका-सा विनोदी एवं परिहास-प्रिय छायावादियों में कोई दूसरा न था।” इस तरह सभी भावों से परिपूर्ण स्वघोषित मूलतः “दुःख की बदली” महादेवी की यह सम-भाव परिपूर्णता ही उनके रचनात्मक जीवन का पाथेय है।

(लेखक अमित कुमार सिंह केंद्रीय विद्यालय, गोरखपुर में अध्यापक हैं।) 

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