वैचारिक अंधेरे में एक प्रकाशपुंज थे मैनेजर पांडेय

आचार्य मैनेजर पाण्डेय के दिवंगत होने की सूचना अभी-अभी साथी  आनंद तिवारी से मिली। मैंने फ़ोन पर दिल्ली से कन्फर्म किया। दुखद  सूचना सही थी। मैं उन्हें मुक़्क़मल तौर पर नहीं जानता। मैं उनका न तो शिष्य रहा और न ही दोस्त। फिर भी, पाण्डेय जी मेरे लिए खास हैं जिनका मैं सम्मान करता हूं। हिंदी और हिंदी साहित्य से कोई खास नाता भी नहीं रहा। परन्तु संयोगवश उनसे मिलने, सामीप्य प्राप्त करने, बात करने, सुनने और समझने का सुअवसर मिला। यह एक अवसर से कम नहीं था। एक बार पाण्डेय जी का व्याख्यान हिंदी विभाग (बीएचयू) में हुआ, जिसकी अध्यक्षता दीपक मालिक ने किया, जिसमें उन्हें सुनने का मौका मिला। अफगानिस्तान के युद्ध काल का समय रहा होगा। एक साहित्यकार द्वारा एशिया के भू राजनैतिक परिदृश्य और उसके वैश्विक आयाम पर दिया गया वक्तव्य काफ़ी प्रभावशाली रहा। यहां पाण्डेय जी के वैचारिक फलक को समझने का मौका मिला।

सिलसिला आगे बढ़ा, पाण्डेय जी को समझते हुए उनके सामने नतमस्तक होना स्वाभाविक था। यह वही दौर था जब पाण्डेय जी अपने सानिध्य से हमें विचारों की दुनिया में नए आयाम दिए। अपने मित्र स्वर्गीय सुभाष राय की प्रेरणा से कैंपस नॉवेल लिखने का दुसाहस किया। इसकी चर्चा पाण्डेय जी से किया। मुझे आज भी  पाण्डेय जी का वक्तव्य याद हैं, जब बोले,’ जरूर लिखो। और याद रखो हिंदी वालों के भाव पक्ष और कला पक्ष के बनाये जाल में मत फंसना। उपन्यास जीवन के बीच का ही आख्यान है। जो भोगा वो लिखा, यही होना चाहिए।’ और उनके इस मन्त्र ने रेत होती गंगा को अवतरित होने का मौका दिया। पाण्डेय जी यांत्रिक मार्क्सवादी या आलोचक से ज्यादा एक अच्छे इंसान के रूप में भी मुझे प्रभावित  किए। जब उनके बेटे आनंद की हत्या हुई तो सांत्वना देने उनके गांव लोहटी जाने का दुखद  मौका मिला। दुख की घड़ी में भी मैंने पाण्डेय जी को स्थितप्रज्ञ पाया। अपार दुख में भी अपने ऐतिहासिक दायित्व का भान उनमें दिखा। जीवन के सौंदर्य को समझने में पाण्डेय जी का विशाल व्यक्तित्व किसी को भी प्रभावित कर सकता है।

इसमें मार्क्सवाद से उपजे विचार और कर्म से गढ़े व्यक्तित्व का अद्भुत मिश्रण मिला। आजकल हिंदी के आलोचक बिना पढ़े पुस्तकों का लोकार्पण करते नजर आने लगे है। इसमें आलोचकों के सिरमौर भी मिल जाते जो बिना पढ़े अपनी आलोचना प्रस्तुत करने से नहीं हिचकते। परन्तु पाण्डेय जब किसी पुस्तक पर बोलते थे तो वह उनके अध्येता होने की मिसाल बनती थी । मुझे याद है आदरणीय वच्चन  सिंह के ऊपर व्याख्यान में, जो उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राधकृष्ण हाल में दिया था, आचार्य पाण्डेय जी ने अपने पाठक और  आलोचक के दायित्व का पूर्ण रूपेण निर्वहन किया था। पूरा हाल पाण्डेय जी के वक्तव्य से प्रभावित हुआ था- क्योंकि हिंदी के एक लेखक को समझने का मौका मिल रहा था। और यह पाण्डेय जी के आलोचक कर्म को देखने-सुनने का द्वार भी  खोल रहा  था। वहां शामिल साहित्य प्रेमियों नें कहा,’ बच्चन सिंह जी के बारे में तो यहां तक हम  लोगो नें कभी सोचा ही नहीं! आज उनके नहीं रहने पर यह कमी महसूस की जाएगी। पाण्डेय जी सचमुच आज के वैचारिक अँधेरे में एक प्रकाश पुंज थे।

आचार्य मैनेजर पाण्डेय नए लेखकों को खुले मन से प्रेरित भी करते थे। वह आज की जटिल सामाजिक चुनौतियों को लेखन का केंद्र बनाने हेतु उपन्यास के महत्व को बखूबी रेखांकित करते हुए नए  साहित्यिक संदर्भ को उद्घाटित भी करते थे। हाल के दिनों में मेरा उपन्यास चौराहे से आगे, जो नई किताब प्रकाशन से छपा, उसमें मैनेजर पाण्डेय जी का जो सहयोग मिला, वह मेरे जीवन की अमूल्य निधि है। पाण्डेय जी की अनगिनत स्मृतियाँ मेरे जीवन से जुड़ी हैं, जिसे मैं अपनी धरोहर मानते हुए सहेजूंगा।

बड़े ही दुखी मन से आचार्य मैनेजर पाण्डेय जी को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अपने अभिभावक, कॉमरेड और महान दार्शनिक की अमूल्य स्मृतियों को सलाम करते हैं।

अलविदा कॉमरेड

सादर नमन

(आनंद दीपायन बीएचयू में प्रोफेसर हैं।)

आनंद दीपायन
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आनंद दीपायन