शरद जोशी होने का अर्थ

व्यंग्य की चर्चा करते ही दो नाम सबसे पहले जेहन में उभरते हैं एक हरिशंकर परसाई दूसरे शरद जोशी। आधुनिक व्यंग्य के विकास में इन दोनों का समानांतर महत्व है। एक आधुनिक व्यंग्य के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं तो दूसरे उसके पोषण और संवर्धन के लिए ख्यात हैं। दोनों ने ही व्यंग्य साहित्य को प्रतिष्ठित करने में अग्रणी भूमिका निभाई है।

अंग्रेजी साहित्य के सम्पर्क में आने से हिंदी साहित्य के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं। उसकी हर विधा का स्वरूप बदला। व्यंग्य में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। वह संस्कृत की व्यंजना से अंग्रेजी के सटायर शब्द के ज्यादा करीब आने लगा। व्यंग्य हास-परिहास से इतर एक सोद्देश्य गंभीर साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित होने लगा है।

यह अलग बात है कि शरद जोशी व्यंग्य को कोई स्वतंत्र विधा नहीं मानते है। उनके विचार से वह तो सहज प्रवृत्ति है, जो अभिव्यक्ति की विविध विधाओं में रूपायित होती रही है। व्यंग्य की शास्त्रीय मान्यता की भ्रांति से जुड़े विधा- पक्ष की चर्चा करते हुए शरद जोशी जी कहते हैं “आधुनिक व्यंग्य का सर्वाधिक विवादास्पद पहलू उसका साहित्यिक स्वरूप रहा है। साहित्य में व्यंग्य की व्यापकता और लोकप्रियता को देखते हुए कतिपय आलोचक उसे ‘विधा’ अथवा ‘शैली’ के चौखटे में बन्द करने का प्रयास करते हैं। अपने अलगपन के कारण यह विधा का आभास देता है। किसी भी विधा की अपनी सुनिश्चित और निर्धारित सीमाएँ होती हैं। किन्तु व्यंग्य को सुनिश्चित और निर्धारित सीमा में नहीं बांधा जा सकता।”

शरद जोशी ने अपनी चुटीली एवं हास्य, मनोविनोद से संपृक्तशैली में अपने सबसे ज्यादा रोचक व्यंग्य लिखे और यही उनके व्यंग्य सृजन की अपनी विशेषता रही है। 80 के एक कवि सम्मेलन का मंच संचालन सोम ठाकुर कर रहे थे उन्होंने शरद जोशी के लिए कहा था ” उन्हें गद्य को हास्य में प्रस्तुत करने में पारंगत हासिल है।” उसी मंच पर शरद जोशी ने सरकार पर कटाक्ष करते अपनी एक हास्य रचना का पाठ किया था, “अगर सरकार के पांव भारी हैं, तो उसे कौन हिला सकता है।”

इतना सुनते ही मंचस्थ कवि और उपस्थित श्रोता हँस-हँस कर लोटपोट हो गए थे। तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा माहौल गुंजायमान हो उठा था। उन्होंने अपने व्यंग्य में समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार,सरकार की ढुलमुल नीतियों एवं धार्मिक पाखण्डों, कुनबापरस्ती, स्वार्थपरता पर गहरा आघात किया है। वे अपने समकालीन उद्भट साहित्यकारों की आलोचना करने से भी नहीं चूकते थे। उनका कथ्य-सम्प्रेषण उन्हें अपने समकालीन व्यंग्यकारों से अलग चिन्हित कर विशिष्टता प्रदान करता है। व्यंग्य के क्षेत्र में उनकी नूतन प्रयोगधर्मिता उनकी कलात्मक बौध्दिकता को दर्शाती है। निश्चय ही व्यंग्य साहित्य में उनका स्थान अक्षुण्य रहेगा।

आज व्यंग्य की जरूरत इसलिए भी है कि चतुर्दिक विसंगतियों और विडंबनाओं ने समाज को जकड़ लिया है। व्यंग्य एक ऐसा हथियार है, जिससे इन विकृतियों पर प्रहार किया जा सकता है। व्यंग्य की उपादेयता पहले की अपेक्षा आज अधिक बढी है। यह साहित्यिक शक्ति के प्रर्दशन का एक मात्र धारदार जरिया है। जहां शब्द तीर की तरह चलते हैं और सीधे मार करते हैं।

शरद जोशी आम जनता के भीतर की व्यथा और कसमसाती पीड़ा को अच्छी तरह समझते थे। समाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, राजनीतिक, विसंगतियों और विकृतियों के खिलाफ सचेत प्रहरी बनकर उन सभी विद्रूपताओं एवं विसंगतियों पर जोरदार प्रहार करते हैं। शरद जोशी व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति को जरूरी मानते हैं, उनका मानना है कि इससे व्यंग्य सरल, सहज और पाठकों के लिए बोधगम्य बन जाता है। इससे पाठक जल्दी से विषयवस्तु के भीतर प्रवेश कर जाता है। उसकी चेतना रचना के रसास्वादन के साथ-साथ जागृत होने लगती है,व्यंग्य पाठक की बौध्दिकता को उत्तेजित करता है।

शरद जोशी के पूर्वज गुजराती मूल के ब्राह्मण थे। उनके पिता श्रीनिवास जोशी नौकरी के लिए उज्जैन आकर बस गए थे। उज्जैन के ही मुगरमुट्टे मोहल्ले में 21मई,1931 को शरद जोशी का जन्म हुआ था। पिता रोडवेज में डिपो मेनेजर के पद पर पदस्थ थे। पिता के स्थानान्तरणों की वजह से शरद जोशी का बचपन मऊ, उज्जैन, नीमच, देवास, गुना जैसे छोटे बड़े शहरों में बीता। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उज्जैन में, हाईस्कूल की शिक्षा नीमच और देवास में हुई। इंदौर के होल्कर महाविद्यालय में उन्होंने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। अतः उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा अपने ही लेखनीय पारिश्रमिक से पूरी की। माता शांता जोशी एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। आधुनिक विचारों के पोषक शरद जोशी एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे। पतले-दुबले सावले रंग के शरद जोशी का दार्शनिक दृष्टिकोण और उनकी बौद्धिक चेतना उन्हें एक विलक्षण व्यक्तित्व प्रदान करती है।

रूढ़िभंजक शरद ने इरफाना सिद्दीकी से प्रेम विवाह किया था। इरफाना सिद्दीकी एक पढ़ी-लिखी मुस्लिम लड़की थी। उस समय इरफाना रंगमंच और कथा साहित्य के क्षेत्र में उभरता हुआ नाम था। दोनों का अन्तरधार्मिक विवाह धर्मभीरु परिवार और समाज को मंजूर नहीं था। लेकिन दोनों ने इसका डटकर सामना किया। दोनों से वाणी, ऋचा, और नेहा तीन बच्चियां हुईं। शरद जोशी एक आदर्श पति और एक आदर्श पिता थे। उन्होंने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाई।

पत्नी इरफाना सिद्दीकी के शब्दों में- “कैसे बताऊँ कि वे कितने स्नेही एवं आदर्श जीवन साथी थे। मैं अपनी बेटियों को उनके पास छोड़कर कहीं भी बेफिक्री से रह सकती थी, वे बड़ी ख़ुशी से मुझसे भी ज्यादा अच्छी तरह से बच्चों की देखभाल कर लिया करते थे।”

शरद जोशी को किताबें पढ़ने और खरीदने का बड़ा शौक था। किताबें खरीदने के लिए जोशी जी अपने आय में से एक बड़ी राशि खर्च कर दिया करते थे। उन्होंने यशपाल, प्रेमचंद, टालस्टाय, बाल्जाक, चेखव, गोर्की, मोपासां, रवीन्द्र नाथ टैगोर, मंटो, कृश्न चन्दर, जैसे शीर्षस्थ साहित्यकारों को खूब पढ़ा। यही नहीं वे उनकी रचनाओं से बहुत प्रभावित भी हुए थे।

शरद जोशी सेल्फ मेड इंसान थे इसलिए उनमें तुनकमिजाजी एक स्वाभाविक प्रक्रिया की तरह रची- बसी थी। वे अपने तुनकमिजाजी स्वभाव के कारण अपने नजदीकियों को भी शत्रु बना बैठते थे। शरद जोशी एक समय हरिशंकर परसाई के बहुत करीबी मित्रों में से एक थे, लेकिन ‘साहित्य का महाबली’ शीर्षक व्यंग्य लिखकर उन्होंने परसाई से दुश्मनी ले ली। अशोक बाजपेयी भी कभी उनके घनिष्ठ थे बाद में शरद जोशी उन्हें भी अपना शत्रु बना बैठे। लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि वे खूसट और अव्यावहारिक किस्म के आदमी थे, सच तो यह है कि वे बड़े मृदुभाषी, निरभिमानी इंसान थे। यह भी सच है कि उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। वे बड़े निर्भीक, निडर व्यक्ति थे, तभी तो अपने विरोधियों पर तत्काल व्यंग्य या आलोचना करने से नहीं चूकते थे।

शरद जोशी ने अपने कैरियर की शुरुआत 1955 में अकाशवाणी की छोटी सी नौकरी से की, जहां पर वे पाण्डुलिपि लेखन का कार्य किया करते थे। उसके बाद मध्यप्रदेश सूचना एवं प्रकाशन विभाग में जनसंपर्क अधिकारी रहे, अपने तुनकमिजाजी और महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व के कारण उन्होंने वहां की भी नौकरी छोड़ दी, उस समय तक उनकी पहचान एक प्रतिष्ठित व्यंग्यकार के रूप में हो चुकी थी। नौकरी से त्यागपत्र देकर उन्होंने स्वतंत्र लेखन को ही अपने आजीविका का साधन बनाया। व्यावसायिक लेखन के लिए उन्होंने जीतोड़ मेहनत की।

उन्होंने लेखन की शुरुआत कहानी से की थी उसके बाद सैकड़ों व्यंग्य लेख, व्यंग्य उपन्यास, व्यंग्य कॉलम, हास्य-व्यंग्यपूर्ण धारावाहिक एवं फिल्मों के लिए पटकथाएं और संवाद लिखे हैं। उन्होंने कुछ वर्षों तक पत्रकारिता भी की। रेडियो में वार्ता, प्रहसन और नाटक लिखते थे।

वे पूरे पच्चीस साल तक कवि सम्मेलनीय मंचों की शोभा बढ़ाते रहे। ज्ञात हो कि शरद जोशी कवि सम्मेलनों में कविता नहीं गद्य पाठ किया करते थे। उन्हें साहित्य में एक विशेष पहचान तब मिली जब धर्मवीर भारती ने उनकी एक व्यंग्य रचना “गागरिन का यात्रा -भत्ता” धर्मयुग में प्रकाशित किया।

फिल्म लेखन के क्षेत्र में शरद जोशी ने कई टीवी धारावाहिकों की पटकथाएं और संवाद लिखे, जो बहुत लोकप्रिय और चर्चित हुए। कुछ वर्ष पहले ‘सब’ चैनल पर उनकी कहानियों और व्यंग्य पर आधारित ‘लापतागंज’ ‘शरद जोशी की कहानियों का पता’ का प्रसारण किया जाता था, जिसे लोगों ने खूब पसंद किया।

हरिहर जोशी, केपी सक्सेना, नरेन्द्र कोहली और मुज्तबा हुसैन उनके अभिन्न मित्रों में से थे। शरद जोशी की संघर्षशीलता और साहसिकता उनकी लेखनी में परिलक्षित होती है। उनका आखिरी मुकाम मुंबई रहा। उन्हें हृदयरोग, और मधुमेह की बीमारी थी। 5 सितंबर, 1991 को मुम्बई में ही उन्होंने अपने जीवन की अन्तिम सांस ली।

(बसन्त राघव छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में रहते हैं।)

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  • शरद जोशी जी पर महत्वपूर्ण आलेख लिखने पर आपको हार्दिक बधाई।आधुनिक व्यंग्य के पर्याय जोशी जी को माना जा सकता है। उनकी व्यंग्य यात्रा को आपने बेहतरीन ढंग से प्रकाश में लाया है।

  • पुन: शुभकामनाएँ, आपके अगले लेख की प्रतिक्षा रहेगी।

    • बसंत भैया!
      आपका यह लेख बहुत ही अच्छा लगा। शरद जोशी के बारे में, उनके व्यक्तित्व -कृतित्व साहित्य में स्थान ,समाज में स्थान, साहित्यकारों के बीच उनका स्वभाव, उनका पारिवारिक जीवन, और साहित्य के क्षेत्र में उनकी इतनी विधाओं में लेख यह सब जानने का मौका मिला।
      आपको बहुत-बहुत धन्यवाद

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