‘पैसे से मेरी आज़ादी नहीं ख़रीदी जा सकती’

आंख खुलते ही व्हाट्सऐप सन्देश देखा कि कॉंग स्पेलिटी नहीं रहीं। रात ग्यारह बजे वह चल बसीं।

डॉमियासियाट् की महामाता (मैट्रिआर्क) कॉंग स्पेलिटी लिंगडोह-लांगरिन ने अपनी भूमि पर यूरेनियम के खनन की अनुमति देने से मना कर दिया था। अपनी ज़मीन की तीस साल की लीज़ के लिए 45 करोड़ रुपए की रकम के प्रस्ताव पर उन्होंने कहा था, ‘पैसे से मेरी आज़ादी नहीं ख़रीदी जा सकती।’

आज आपकी अनुपस्थिति के मायने खोजते हुए मैं वह कहानी कहना चाहता हूँ जिसे दुनिया को बताने की कोशिश मैंने कुछ समय पहले की थी।

मेरे पास एक कहानी है। बहुत सालों पहले मैं मेघालय के पश्चिमी खासी हिल्स के डॉमियासियाट् गाँव में था जो भारत के सबसे बड़े यूरेनियम भण्डार के ऊपर बसा हुआ है। उन दिनों शिलॉन्ग से फ्लांगडिलोयन जाने वाली एकमात्र बस से सुबह निकलकर और आठ घण्टों और लगभग पचास किलोमीटर की यात्रा के बाद शाम को वाहकाजी पहुँचकर वहाँ से एक घण्टे की दूरी पैदल तय कर आप कुलजमा सात घरों वाले गाँव पहुँचा करते थे। मैं कॉंग स्पेलिटी लिंगडोह-लांगरिन से मिलना चाहता था।

प्रति वर्ष डेढ़ करोड़ रुपये के हिसाब से तीस सालों  तक मिलने वाली पैंतालीस  करोड़  रुपये की पेशकश के बावजूद उन्होंने अपनी ज़मीन  यूरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (यूसीआईएल) को लीज़ पर देने से मना कर दिया था। एटॉमिक मिनरल्स डिवीज़न (एएमडी) के साथ अपने गाँव में यूरेनियम की खोज और खनन की जांच करने आए डखार (ग़ैर-खासी) लोगों को निकाल बाहर करने में वह अग्रसर थीं। जब हम डॉमियासियाट् पहुँचे, वह वहाँ मौजूद नहीं थीं। बाज़ार के लिए काली मिर्च और तेजपत्ता इकठ्ठा करने वह जंगल गई हुई थीं। गाँव में कोई भी यह बता पाने की स्थिति में नहीं था कि वह कब लौटेंगी।

हमारी क़िस्मत अच्छी थी कि वह अगले ही दिन लौट आईं। पश्चिमी खासी हिल्स में होने के कारण माउकिरवाट के एक दोस्त को साथ मैं यह सोचकर ले गया था कि खासी के मराम बोली के अपने ज्ञान से वह तर्जुमा कर पाएगा। मैंने कॉंग स्पेलिटी से उनकी ज़मीन के बारे में पूछा- कि उनके पास कितनी ज़मीन है यानि वही सब समाजशास्त्रीय डाक्यूमेंट्री किस्म की बकवास। मेरे मित्र का किया हुआ अनुवाद उनकी समझ में नहीं आया और हमें महसूस हुआ कि पश्चिमी हिस्से से होने के  बावजूद वह मराम से उतनी परिचित न थीं। इसलिए वह दुगुना तर्जुमा हो गया- पहले अंग्रेज़ी से मराम और फिर गाँव के मुखिया द्वारा उसका खासी के स्थानीय प्रकार में अनुवाद और फिर यही उलटी दिशा में।

उन्होंने बताया कि दो पहाड़ियों की मालकिन होने के बावजूद उनकी माली हालत बहुत अच्छी नहीं है। मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने अपनी ज़मीन यूसीआईएल को लीज़ पर क्यों नहीं दी तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि पेड़ों के एक झुरमुट की तरफ तपाक से बढ़ने लगीं। हम उनके पीछे गए। पेड़ों के उस झुरमुट के पीछे दरअसल एक छोटा सा झरना और तलैया थे। वह रुकीं और मेरी तरफ़ (जो जंगल के चितकबरे प्रकाश में नहाया था) मुड़कर आज़ादी के बारे में कुछ कहा, जैसे कि इस ज़मीन को बेचना उनके लिए अपनी आज़ादी को बेचने जैसा है और क्या पैसे से इस नदी, इस भूमि, इस झरने को खरीदा जा सकता है। ज़ाहिर सी बात है कि यह सब समझने में मुझे ज़रा वक़्त लगा मगर वहां एक तरह की ईडननुमा या स्वर्गनुमा शान्ति में खड़े-खड़े (विचारों की) स्पष्टता के अश्रुओं ने मुझे अवाक कर दिया।

चंद महीनों बाद कुछ स्थानीय खासी प्रतिष्ठितों (राजनीतिज्ञ, ठेकेदार, युवा नेता समझ लें) के साथ यूसीआईएल द्वारा आयोजित की जा रही जादूगोड़ा, झारखंड के यूरेनियम खानों की परिचय यात्रा (एक्सपोज़र ट्रिप) में जुगाड़ बिठाकर शामिल होने का मौका मुझे मिला। इसका उद्देश्य था उन तथाकथित असत्य बातों का प्रतिकार करना जो खासी में रूपांतरित प्रसिद्ध दस्तावेज़ी फ़िल्म ” बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ा” दिखा-दिखाकर यूरेनियम आंदोलन कथित तौर पर फैल रहा था। यूसीआईएल के एक वरिष्ठ बंगाली अधिकारी को मैं अच्छा लगा। वही संस्कृति वगैरह को लेकर बातें करना।

मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी टैगोर पर इतनी बात नहीं की। तो एक दिन मैं उनसे पूछ बैठा यूरेनियम खनन के कारण होने वाले लोगों के विस्थापन के बारे में। उन्होंने हक्का-बक्का होकर मेरी तरफ़ देखा- कैसा विस्थापन, हम उनका पुनर्वास करेंगे – इतना आसान तो है। कितनों का पुनर्वास करना है, ज़्यादा से ज़्यादा हज़ार। हम इन्हें पैसा देंगे, इनके लिए घर भी बनाएँगे, कुछ लोगों को रोज़गार देंगे, ये ‘रिच’ (संपन्न) हो जाएंगे और वैसे भी ये कितने अनुत्पादक लोग हैं, उनके पास ज़मीन भले ही है लेकिन उन्हें उसकी कीमत पता नहीं, कड़ी मेहनत करते हैं मगर मेहनताना नहीं मिलता।

यह स्वामित्व के मुद्रीकरण से मिलने वाली आज़ादी बनाम ज़मीन से जुड़े रहने से मिलने वाली आज़ादी का मामला था।

देश के पूर्वोत्तर इलाके में बाहरी लोगों के प्रति भय (ज़ेनोफोबिआ) को लेकर होने वाली बहसों में सामंती भूमिहीनता और शोषण के इलाके से आने वाले हम जैसों को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं होता कि उन लोगों से कैसे पेश आया जाए जो ज़मीन को महज उत्पादन का कारक नहीं बल्कि एक कल्पना, रिहाइश के लिए एक ईडन (स्वर्ग) समझते हैं।

किसी मारवाड़ी, बंगाली या बिहारी की समझ और किसी मुंडा, खासी या नागा की समझ के बीच के द्वंद्व के पीछे है उनके इतिहास का अलग-अलग होना। ज़मीन के निजीकरण, उसे हड़पे जाने, श्रम के जिंस (कमोडिटी) में बदलते जाने और ऊंच-नीच (हायरार्की) के पवित्रीकरण के साथ रह आए लोगों के लिए कॉंग स्पेलिटी को समझ पाना मुश्किल है। जो लोग यह सोचते हैं कि एक बीघा ज़मीन आखिर हमें आज़ाद करती है और जो यह सोचते हैं कि चंद पहाड़ियों से आप अमीर नहीं हो जाते, यह उनके बीच की तफ़ावत है। यह उत्पादकता की दुनिया बनाम साझी जगहों के जिए जाने वाले सपने की बात है। 

यह घनी आबादी वाले समाजों के खिलाफ विरल जनसँख्या वाले समुदायों की बात है।

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आंख खुलते ही व्हाट्सऐप सन्देश देखा कि कॉंग स्पेलिटी नहीं रहीं। रात ग्यारह बजे वह चल बसीं।
डॉमियासियाट् की महामाता (मैट्रिआर्क) कॉंग स्पेलिटी लिंगडोह-लांगरिन ने अपनी भूमि पर यूरेनियम के खनन की अनुमति देने से मना कर दिया था। अपनी ज़मीन की तीस साल की लीज़ के लिए 45 करोड़ रुपए की रकम के प्रस्ताव पर उन्होंने कहा था, ‘पैसे से मेरी आज़ादी नहीं ख़रीदी जा सकती।’

(शिलांग से फिल्मकार, कवि और सोशल एक्टिविस्ट तरुण भारतीय के इस लेख का अनुवाद भारत भूषण तिवारी ने किया है और इसे समयांतर से साभार लिया गया है।)

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