‘जवान’: मसाला फ़िल्म में हमारे समय का यथार्थ

‘जवान’ शाहरुख खान के नायकत्व वाली फ़िल्म है जो इसी सप्ताह प्रदर्शित हुई है। इस फ़िल्म की निर्माता है उनकी पत्नी गौरी खान। स्वयं शाहरुख की प्रोडक्शन कंपनी रेडचिलीज ने इसे बनाया है और इसका निर्देशन किया है, दक्षिण के प्रसिद्ध निर्देशक एटली ने। इसी साल प्रदर्शित होने वाली यह शाहरुख खान की दूसरी फ़िल्म है। पहली फ़िल्म ‘पठान’ ने एक हजार करोड़ से ज्यादा की कमाई की थी। इस फ़िल्म की शुरुआत भी काफी अच्छी रही है। पहले दिन इसने 74 करोड़ रुपये की कमाई की है जो स्वयं में रिकार्ड है। बॉक्स ऑफिस पर बड़े स्टारों वाली फ़िल्मों का कामयाब होना आश्चर्य की बात नहीं है और शाहरुख खान निश्चय ही अभी हिंदी फ़िल्मों के सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेता हैं। दर्शकों का एक बहुत बड़ा समूह उनकी फ़िल्मों का इंतजार करता है और शायद यही वजह है कि ‘जवान’ के रिलीज होने से पहले ही दर्शकों ने बहुत बड़ी संख्या में एडवांस बुकिंग कराके शुरू के दिनों में ही इसे देखना सुनिश्चित कर लिया है।

लेकिन क्या ‘पठान’ शाहरुख खान और दीपिका पाडुकोण के कारण ही लोकप्रिय हुई थी और क्या ठीक इसी वजह से ‘जवान’ भी लोकप्रिय होगी। अगर ऐसा होता तो इस बात को नहीं भूला जाना चाहिए कि शाहरुख खान की ‘पठान’ से पहले कई फ़िल्में फ्लॉप हुई थीं। हां, एक कारण ज़रूर था कि ‘पठान’ के रिलीज होने से कुछ अर्सा पहले ही उनके बेटे आर्यन खान को पुलिस ने ड्रग्स के अपराध में जेल भेज दिया था और बाद में मालूम पड़ा कि पूरा मामला फर्जी था और मकसद शाहरुख खान के परिवार को बदनाम करना था, इसलिए भी यह हर कोई जानता है कि दिल्ली की भाजपा सरकार उन मुस्लिम कलाकारों को परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ती, जिन्होंने कभी अतीत में सरकार की बहुत हल्की ही आलोचना क्यों न की हो। 

शाहरुख खान की तरह आमीर खान की कहानी भी कमोबेश ऐसी ही है। इसलिए बेटे के गिरफ्तार होने की घटना ने निश्चय ही शाहरुख खान के प्रति सहानुभूति की एक तगड़ी लहर चला दी थी और दर्शकों के एक बड़े समूह ने ‘पठान’ देखने को सांप्रदायिक राजनीति के विरुद्ध एक राजनीतिक कार्रवाई की तरह लिया। लेकिन दिलचस्प यह भी था कि ‘पठान’ जो ‘टाइगर ज़िंदा है’ जैसी एक आतंकवाद विरोधी और देशभक्तिपूर्ण फ़िल्म थी, इसके बावजूद कामयाब रही कि इस फ़िल्म की नायिका एक पाकिस्तान की जासूस होती है और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के जासूस मिलकर एक साथ काम करते हैं।

भारत में सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की समर्थक पार्टियां जिनमें भारतीय जनता पार्टी सर्वोपरि है, पाकिस्तान के विरुद्ध लगातार जहर उगलने को ही देशभक्ति समझती हैं और ‘गदर’ जैसी फ़िल्में बॉक्स आफिस पर केवल इसी वजह से ब्लॉक बस्टर बनती हैं, वहां ‘पठान’ जैसी फ़िल्म का कामयाब होना जिसका नायक भी मुसलमान होता है, यह बताने के लिए पर्याप्त है कि भारत में सारी कोशिशों के बावजूद धर्मनिरपेक्षता और आपसी भाईचारे (जिसमें पड़ोसी देश भी शामिल है) की जड़ें काफी गहरी हैं। 

हाल ही में ‘दि कश्मीर फाइल्स’, ‘दि केरला स्टोरी’ और ‘गदर-2’ की कामयाबी ने एक बार फिर इस संदेह को हवा दी है कि हिंदी फ़िल्मों में मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिकता और पाकिस्तान विरोध एक कामयाब फार्मूला है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर भी निर्भर है कि क्या ‘जवान’ उतनी ही कामयाब होगी, जितनी ‘पठान’ हुई थी? ‘जवान’ का कामयाब होना ‘पठान’ से भी ज्यादा जरूरी इसलिए है कि मसाला फ़िल्म होने के बावजूद यह फ़िल्म हमारे समय की राजनीति से बहुत गहरे रूप में जुड़ी है और उन सब सवालों को उठाने का साहस दिखाती है जिन्हें हिंदुत्व परस्त सांप्रदायिक राजनीति ने पीछे धकेल दिया था।

निश्चय ही यह एक बंबइया फ़िल्म है, उसी तरह जिस तरह ‘पठान’ थी। लेकिन यह फ़िल्म पाकिस्तान, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद को मसाले की तरह इस्तेमाल करने से सचेत रूप से बचती है और उन सब सवालों को अग्रिम मोर्चे पर ले आती है जिनका संबंध भारत की उस गरीब, बदहाल और बेरोज़गार जनता से है जिन्हें मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान और हिंदुस्तान-पाकिस्तान की बाइनरी में फंसाकर उन सब सवालों को भूल जाने को उकसाती है जो उनके अस्तित्व के लिए जरूरी है। 

परंपरागत मेलोड्रामाई शैली में बनी इस फ़िल्म में बहुत कुछ ऐसा है जिसके आधार पर फ़िल्म को आसानी से खारिज किया जा सकता है। लेकिन इसी शैली में उन सब सवालों को गंभीरता के साथ पिरोया गया है जो आज की हमारी राजनीति के केंद्र में होने चाहिए। मसलन, फ़िल्म जो सवाल सबसे पहले उठाती है वह है किसानों की आत्महत्या का। एक किसान परिवार की कहानी बतायी जाती है जिसने बैंक से ट्रैक्टर खरीदने के लिए चालीस हजार का ऋण लिया था, लेकिन जो समय पर इसलिए नहीं चुका सका क्योंकि एक साल बाढ़ ने फसल खराब कर दी और दूसरे साल सूखे ने। बैंक इस किसान से कर्ज वसूल करने के लिए उसे धमकी देता है, गांव वालों के सामने अपमानित करता है, मार-पीट करता है और उसका ट्रैक्टर उठा कर ले जाता है।

नतीजतन किसान मजबूर होकर आत्महत्या कर लेता है। यह कोई फ़िल्मी कहानी नहीं है। यह भारत की हक़ीक़त है जहां हर साल कर्ज के बोझ तले सैकड़ों किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। किसानों की समस्या को ईमानदारी से पेश करने के बावजूद फ़िल्म इस मसले को यहीं खत्म नहीं करती। फ़िल्म बताती है कि एक ओर तो कुछ हजार का उधार भी किसानों का माफ नहीं किया जाता, दूसरी तरफ पूंजीपतियों का चालीस हजार करोड़ का ऋण बैंक माफ कर देती है। यह जो सत्ता का दोहरा चरित्र है, उसी चरित्र को फ़िल्म बहुत ही ताकतवर ढंग से सामने रखती है। हां, फ़िल्म इसका एक समाधान भी पेश करती है और निश्चय ही यह फ़िल्मी समाधान है। मेट्रो में यात्रियों का अपहरण करना जिनमें उस पूंजीपति की बेटी भी सफर कर रही है, उस पूंजीपति से जिसके चालीस हजार करोड़ बैंकों ने माफ कर दिया था उससे वह रकम वसूल करना और फिर इन रुपयों को उन सात लाख किसानों के खाते में पहुंचाना जिन पर बैंकों का उधार बकाया था।

निश्चय ही यह हल व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है, लेकिन इस पूरे मामले को जिस ढंग से पेश किया है, उसका संदेश बहुत ही ताकतवर ढंग से दर्शकों तक पहुंचता है कि एक ओर किसानों के कुछ हजार या लाख रुपये भी बैंक (और सरकार) माफ करने के लिए तैयार नहीं है, लेकिन पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के हजारों करोड़ बट्टे खाते में डाल दिये जाते हैं। इसी का नतीजा है बैंकों के लाखों करोड़ रुपये पूंजीपति हजम करके बैठे हैं और उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होती। यह हमारे समय की एक ऐसी सच्चाई है जिसे दिखाना बहुत बड़े साहस का काम है। 

फ़िल्म दूसरी कहानी उठाती है, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बर्बादी की। फ़िल्म में एक सरकारी अस्पताल में भर्ती साठ बच्चों को ऑक्सीजन की जरूरत है लेकिन अस्पताल में न दवाइयां हैं और न ऑक्सीजन। जब अस्पताल के डीन को बताया जाता है कि बच्चों को बचाने के लिए तत्काल ऑक्सीजन की जरूरत है लेकिन वह नौकरशाही तंत्र का हवाला देकर ऑक्सीजन तत्काल उपलब्ध कराने में अपनी असमर्थता व्यक्त करता है। जब एक जूनियर डॉक्टर इसकी शिकायत स्वास्थ्य मंत्री से करने की बात करती है, तो उसे धमकी दी जाती है। ऑक्सीजन न मिलने के कारण साठ बच्चे बेमौत मारे जाते हैं और इसके लिए उसी डॉक्टर पर इल्जाम लगाकर जेल में डाल दिया जाता है जिसने यह सवाल उठाया था। यह भी कोई फ़िल्मी कहानी नहीं है।

गोरखपुर के डॉक्टर कफील खान को इसी अपराध के लिए जेल में डाल दिया गया था उसने अस्पताल में अव्यवस्था के बारे में आवाज उठायी थी और बच्चों को बचाने के लिए ऑक्सीजन का इंतजाम करने की कोशिश की थी। उस अस्पताल में भी साठ बच्चे ऑक्सीजन के अभाव में मारे गये थे। इस यथार्थ घटना के साथ एक और घटना को जोड़ा गया है। स्वास्थ्य मंत्री एक जनसभा में डींग हांकता हुआ कहता है कि हमारे सभी सरकारी अस्पतालों में हर तरह की सुविधा और बेहतरीन डॉक्टर हैं। वह नजदीक के एक अस्पताल का हवाला देते हुए कहता है कि अभी अगर कोई मुझे गोली मार दे तो मुझे कहीं और ले जाने की जरूरत नहीं है इस पड़ोस के सरकारी अस्पताल में ही मुझे बचा लिया जायेगा। पिछले दस सालों में हम लगातार देखते आ रहे हैं कि नरेंद्र मोदी समेत सभी मंत्री झूठे आंकड़े और झूठे दावे पेश कर जनता को गुमराह करते हैं।

अभी कुछ ही दिनों पहले स्वयं प्रधानमंत्री ने बिहार के दरभंगा में एम्स बनने का दावा किया था जबकि उस अस्पताल की इमारत की नींव भी नहीं डाली गयी है। फ़िल्म में मंत्री जी के दुर्भाग्य से उन्हें सभा में ही गोली लग जाती है। स्पष्ट ही उस सरकारी अस्पताल में इलाज संभव नहीं था और उन्हें किसी दूसरे निजी अस्पताल में ले जाने की जरूरत थी, लेकिन उससे पहले ही उनका अपहरण हो जाता है और उन्हें उसी सरकारी अस्पताल में ले जाया जाता है जहां सब तरह की सुविधा होने का दावा जनसभा में मंत्री जी कर रहे थे। अब अगर मंत्री जी को बचाना है तो उन्हें किसी अच्छे अस्पताल में ले जाया जाना जरूरी था।

तब सरकार के सामने अपहरणकर्ता जिनका नायक स्वयं शाहरुख खान होता है (फ़िल्म में उसका नाम आज़ाद होता है) यह शर्त रखता है कि वह सार्वजनिक रूप से अस्पताल में मरे साठ बच्चों की सच्चाई सामने रखें और देश के लगभग ढाई सौ सरकारी अस्पतालों में सब तरह की सुविधाएं और स्टाफ तत्काल उपलब्ध करायें। स्पष्ट ही यह समाधान भी फ़िल्मी है, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा का कारण स्वयं सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार है और इस बात को फ़िल्म में प्रभावशाली ढंग से उभारा गया है। 

हथियारों की खरीद में भ्रष्टाचार, प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की बात, ईवीएम की बात इन सबको फ़िल्म का हिस्सा बनाया गया है। लेकिन जिस बात के साथ फ़िल्म का अंत होता है, वह है आज़ाद द्वारा सीधे जनता को दिया गया संदेश। वह संदेश है : अपने वोट का सही इस्तेमाल करना और एक ऐसी सरकार चुनना जो जनता के हित में काम करे। उनकी समस्याओं का हल करे।आज़ाद सीधे लोगों को संबोधित करते हुए पूछता है कि आप लोग जब कोई चीज खरीदने जाते हैं तब हर तरह का सवाल पूछते हैं लेकिन वोट देने जाते वक्त कोई सवाल नहीं करते। वह लोगों से पूछता है कि आप पांच साल के लिए अपनी सरकार चुनते वक्त कोई सवाल क्यों नहीं करते। जो वोट लेने आये उनसे सवाल पूछो। वह यह भी कहता है कि वोट लेने आने वालों से पैसा, जात-पांत, धर्म, सांप्रदायिकता की बजाय उनसे पूछो कि तुम मेरे लिए पांच साल तक क्या करोगे।

तुम मेरे बच्चों की शिक्षा के लिए क्या करोगे, मेरी नौकरी के लिए क्या करोगे। अगर मैं बीमार पड़ गया तो पांच साल तक मेरे परिवार के लिए क्या करोगे। पांच साल तक तुम मेरे देश को आगे बढ़ाने के लिए क्या करोगे। अगर आप सवाल करोगे, देश के हालात सुधारने के लिए, किसानों के लिए बोलने के लिए किसी आज़ाद की जरूरत नहीं होगी। आपकी एक अंगुली ही काफी है। आप सबको आज़ादी मिलेगी, आपको, आपको, आप सबको। आज़ादी गरीबी से, आज़ादी अन्याय से। इस अंगुली पर विश्वास करो, इसे यूज करो’। इस तरह यह फ़िल्म सत्तासीनों से सवाल पूछने और सोच-समझकर वोट देने को एक मुहिम की तरह पेश करती है। गौरतलब यह भी है कि उसके इस वक्तव्य में आज़ादी के उसी तराने की प्रतिध्वनि सुनायी देती है जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों के आंदोलन के दौरान बार-बार गाया गया था। यह भी महज संयोग नहीं है कि नायक का नाम आज़ाद होता है।यह नाम बहुत कुछ कहता है। 

एक लोकतांत्रिक समाज-व्यवस्था में जनता के पास सबसे बड़ा अधिकार, वोट देना ही है। लेकिन यह वोट देने का अधिकार पांच साल में सिर्फ एक बार मिलता है। यह फ़िल्म कहती है कि जाति, धर्म और संप्रदाय के नाम पर वोट नहीं देना चाहिए और न ही पैसे के लालच में वोट देना चाहिए। स्पष्ट ही यह हमारे देश की ऐसी सच्चाई है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन इसका नतीजा यह है कि जिन बुनियादी समस्याओं का लोगों को सामना करना पड़ता है, वे लोगों की अपनी नज़रों से ओझल हो जाते हैं। इस फ़िल्म में जिन समस्याओं को उठाया गया है, उनसे मिलती-जुलती समस्याओं से जुड़े प्रसंग हम अपने निकटवर्ती इतिहास से ढूंढ सकते हैं।

खास बात यह है कि फ़िल्म सीधे तौर पर निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों की बात तो नहीं उठाती। लेकिन बिना कहे हुए जिस बात को फ़िल्म में समस्याओं के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है वह यह कि सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं की बर्बादी इसलिए की जा रही है, क्योंकि सरकारें जान बूझ कर ऐसे हालात पैदा कर रही हैं जिनसे सार्वजनिक क्षेत्र के स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और उद्योग या तो नष्ट हो रहे हैं या उन्हें बेचा या बंद किया जा रहा है। जबकि ये सरकारी संस्थान ही गरीब जनता की आखिरी उम्मीद हैं इसे कोविड के दौरान अनुभव किया जा चुका है। लेकिन सरकार में बैठे लोगों का हित इसी बात में है कि सार्वजनिक क्षेत्र को बर्बाद करें ताकि निजी क्षेत्र को उन्नति करने का अवसर मिले।स्पष्ट ही जब एक बार सार्वजनिक क्षेत्र बरबाद हो जायें तो लोगों के लिए निजी क्षेत्र में जाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचता।

महंगा इलाज, महंगी शिक्षा में ही उनकी उन्नति है लेकिन गरीब जनता के लिए कोई रास्ता नहीं बचता। इसलिए जो विकल्प फ़िल्म में सुझाया गया है, वह भले ही कितना ही अविश्वसनीय लगे लेकिन सच्चाई यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत करने और उसे आगे बढ़ाने में ही देश की उन्नति मुमकिन है। इसी तरह किसानों को कर्ज लेने की नौबत ही न आये और अगर फसलों की बर्बादी के कारण उनके लिए कर्ज चुकाना मुमकिन न हो तो उनका भी कर्ज माफ किया जाना चाहिए। प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों को बंद करना ही प्रदूषण का इलाज है। इसलिए जो समाधान बताये गये हैं, वे इतने दोषपूर्ण नहीं हैं जितने कि उनकी प्रस्तुति जो दरअसल फिल्मी शैली में प्रस्तुत की गयी हैं और इसी वजह से अविश्वसनीय लगते हैं। 

लोकप्रिय शैली में बनायी गयी फ़िल्म में यथार्थवादी ढंग से न तो समस्याएं रखी जा सकती हैं और न उनका समाधान। ऐसी फ़िल्मों में पेश किये गये संदेश को दर्शक कितनी गंभीरता से ले पाते हैं, यह कहना भी मुश्किल है क्योंकि इन सब बातों को अतिरंजनापूर्ण एक्शन, तेज दौड़ती, उछलती और टकराती गाड़ियां, हिंसा के भयावह दृश्य, कान के पर्दे फाड़ देने वाले शोर के बीच पेश करने से जनपक्षीय गंभीर समझ को भी पीछे धकेलती है। ज्यादातर दर्शक शायद उनकी तरफ ध्यान ही नहीं देते और अपने नायक की अतिमानवीय कारगुजारियों को देखकर ही इतना आनंदित महसूस करते हैं कि वे उस आनंद में डूबे हुए ही खुशी-खुशी थियेटर से बाहर निकल आते हैं। 

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस फ़िल्म का राजनीतिक स्वर फ़िल्म के काफी बड़े दायरे में मौजूद है और शायद इस बात को पहचानने में भी दर्शक गलती नहीं करते कि इस फ़िल्म में बहुत कुछ ऐसा है जिसे नरेंद्र मोदी की सरकार का प्रतिपक्ष कहा जा सकता है। सबसे बड़ा प्रतिपक्ष तो यही है कि फ़िल्म उन सब सवालों को हाशिए पर भी जगह नहीं देती जो मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की सरकार के एजेंडे में सबसे ऊपर रहे हैं। यही नहीं फ़िल्म विकास के सवाल को भी अमूर्त ढंग से देखने की बजाय जनता के वास्तविक हितों के संदर्भ में देखने पर जोर देती है।

शाहरुख खान जिसने आज़ाद की भूमिका निभायी है, वह अपनी बात मनवाने के लिए छह युवा लड़कियों की टीम बनाता है और उनकी मदद से वह उन सवालों को रखता है जिनसे फ़िल्म की कहानी का ताना-बाना बुना गया है। उसमें स्वयं उसकी मां और पिता की भी कहानी है। पिता जो कभी भारतीय सेना का वीर जवान था लेकिन जिसे मारने की साजिश इसलिए की जाती है कि उसने हथियारों की सप्लाई करने वाले भ्रष्ट व्यापारी का पर्दाफाश किया था और जिस वीर सैनिक विक्रम राठौड़ (शाहरुख खान) की पत्नी को निरपराध होते हुए भी फांसी की सजा दे दी जाती है क्योंकि सारी व्यवस्था भ्रष्ट हो चुकी है। उस  डॉक्टर को भी सजा हो जाती है जिसने साठ बच्चों की हत्या करने वाले अपराधियों का भंडाफोड़ किया था। लड़कियों को एक सामूहिक ताकत के रूप में पेश करना भी फ़िल्म का एक सकारात्मक पक्ष है। ये ही लड़कियां जो अकेले-अकेले उत्पीड़ित होती हैं, मिलकर एक ताकत बन जाती हैं। 

शाहरुख खान के जीवन में ऐसे कई अवसर आये हैं जब उस पर दबाव पड़ा है कि वह चुप न रहे। एक-दो अवसर पर बोला भी और उसकी सजा भी मिली जब उसके बेटे आर्यन को ड्रग्स के झूठे अपराध में जेल भेज दिया गया था। यह फ़िल्म एक तरह से उसका वह विद्रोही बयान है जिसे कहने से वह अब तक बचता रहा है। और अगर कहा भी है तो संकेतों में। फ़िल्म का यह संवाद कि ‘बेटे पर हाथ डालने से पहले बाप से बात करो’ उस निजी संदर्भ से भी जुड़ता है जिसका संबंध आर्यन की गिरफ्तारी से है। 

लेकिन फ़िल्म का अंत इस रेबेलियन-सी दिखने वाली फ़िल्म को सत्ता के आगे घुटने टेकने वाली फ़िल्म में बदल देती है जब आज़ाद के पास संजय दत्त आता है और कहता है कि अब अगले मिशन के लिए तैयार हो जाओ। इस बात से ऐसा प्रतीत होता है जैसे अब तक फ़िल्म में जो कुछ भी देखा वह सत्ता द्वारा ही प्रायोजित था। या यह भी मुमकिन है कि यह मौजूदा राजनीति से बचने की एक रणनीति भर हो या फिर सेंसर की कैंची से बचने का एक फ़िल्मी जुगाड़ या इस फ़िल्म की अगली कड़ी बनने की संभावना का संकेत।

(जवरीमल्ल पारख रिटायर्ड प्रोफेसर और चर्चित फिल्म समीक्षक हैं।)

मोबाइल : 9810606751 

जवरीमल्ल पारख

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