जन्मदिन पर विशेष: मंटो होने का दर्द और जोखिम

यह मुकाम बहुत कम कलमकारों को हासिल है कि उनके जिक्र के बगैर साहित्य के इतिहास के कुछ पन्ने कोरे-से रह जाएं। बेशक उर्दू के महान अफसानानिगार सआदत हसन मंटो को यह मुकाम बखूबी हासिल है। वह उपमहाद्वीप की तमाम भाषाओं में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले उर्दू लेखक हैं। शुरुआत से लेकर अब तक, 1947 के भयावह विभाजन के कई रेशे उनकी कलम से कहानियों, नाटकों और संस्मरणों के बतौर सामने आए; जो बेजोड़ हैं। त्रासदी को आधार बनाकर लिखी गई कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ शायद दुनिया भर में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली साहित्यिक रचनाओं में से एक है। इस एक कहानी ने भी मंटो को महानता की दहलीज पर ला खड़ा किया।

विभिन्न शोधकर्ताओं के मुताबिक इस कहानी का अनुवाद धरा की हर भाषा में हुआ है। यह कहानी और इसका एक-एक अल्फाज भारत-पाक विभाजन के खिलाफ बुलंद आवाज है। सआदत हसन मंटो को ‘मनोविज्ञानी-लेखक’ माना जाता है। वह चेखव, गोर्की, मोपासां, ओ. हेनरी की कतार के लेखक थे। फर्क महज इतना रहा कि उन लेखकों को बावक्त हालात की दुश्वारियां से निकलने का मौका मिलता रहा लेकिन मंटो ताउम्र घिरे रहे।

मंटो के समकालीन दिग्गज उर्दू साहित्यकार कृष्णचंदर ने मंटो की तुलना गोर्की से करते हुए लिखा था कि रूस के प्रगतिशील लोगों ने अपने महान लेखक के लिए अजायबघर बनाए, बुत स्थापित किए, उनके नाम पर नगर तक बसा दिए और हमने मंटो पर मुकदमे चलाए, उसे भूखा मारा, पागलखाने पहुंचाया, अस्पतालों में सड़ाया और आखिर में उसे यहां तक मजबूर कर दिया कि वह इंसान को नहीं, शराब की एक बोतल को अपना दोस्त समझने पर मजबूर हो गया। यकीनन कृष्णचंदर का यह कथन अपने आपमें मंटो होने की पीड़ा भी है।

सआदत हसन मंटो का जन्म 11 मई, 1912 को हिंदुस्तानी पंजाब के लुधियाना जिले की तहसील समराला में हुआ था। ज्यादातर वक्त अमृतसर में बीता। मुंबई और लाहौर में विचरते हुए उनकी कलम को मुतवातर धार मिलती रही। जगप्रसिद्ध यह नायाब अदीब पाकिस्तान के हिस्से चले गए लाहौर में 18 जनवरी 1955 को जिस्मानी अंत के हवाले हुआ। बेजोड़ कहानीकार होने के साथ-साथ वह पत्रकार, फिल्म और रेडियो पटकथा लेखक भी थे। जिंदगी रहते उनके बाइस कहानी संग्रह, पांच नाटक संग्रह है और दो रेखाचित्र संग्रह प्रकाशित हुए थे। उनके समकालीन इस रफ्तार में काफी पीछे थे। इसलिए भी मंटो अपने समकालीनों की आलोचना का शिकार होते रहे। कहिए कि ईर्ष्या का।

मंटो की कलम पर अश्लीलता के आरोप कई बार लगाए गए। इस वजह से उन्हें छह मुकदमों का सामना करना पड़ा। विभाजन से पहले और बाद में भी। लेकिन किसी भी अदालत में उन पर दायर मुकदमा साबित नहीं हो पाया और वह बाइज्जत बरी हुए। अक्सर वह अपनी पैरवी खुद करते थे। अदालती आदेशों ने उन्हें पागलखाने की कैद में भी पहुंचाया। लेकिन वहां भी उनकी लेखनी चली और जगजाहिर हुआ कि वह होशमंद हैं। ‘पागल’ तो व्यवस्था है; जो गोया हर किसी को पागल कर देने पर आमादा है।

सआदत हसन मंटो कहा करते थे कि जमाने के जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, अगर आप इससे वाकिफ नहीं तो मेरे अफसाने पढ़िए। अगर आप इन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते, इसका मतलब है कि जमाना ही ना-काबिले-बर्दाश्त है। दुनिया में जितनी लानतें हैं, भूख उनकी मां है। मजहब जब दिलों से निकलकर दिमाग पर चढ़ जाए तो जहर बन जाता है। मत कहिए कि हजारों हिंदू मारे गए या फिर हजारों मुसलमान मारे गए, सिर्फ यह कहिए कि हजारों इंसान मारे गए। मैं ऐसे समाज को हजार लानत भेजता हूं जहां उसूल हो कि मरने के बाद हर शख्स के किरदार को लॉन्ड्री में भेज दिया जाए जहां से वह धुल-धुल कर आए। तवायफ का मकान खुद एक जनाजा है, जो समाज अपने कंधों पर उठाए हुए है।

व्यापक हिंदी साहित्य जगत ने मंटो को सदैव ‘अपना’ माना। वैसे आला अदब जुबान की सरहदों से परे होता है। उनका पहला कहानी संग्रह 1955 में ‘नव साहित्य प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ। नाम था, ‘तुरप-चाल’। रमाकांत इसके अनुवादक थे। इसमें उनकी 13 कहानियां शुमार थीं। उनकी प्रतिनिधि कहानी ‘ठंडा गोश्त’ के शीर्षक को अनुवादक ने ‘तुरप-चाल’ नाम दिया। 1956 में सरस्वती प्रेस, बनारस से सआदत हसन मंटो की किताब ‘राजो और मिस फरिया’ का हिंदी अनुवाद छपा। 96 पेज की इस किताब में मंटो की इकलौती उपन्यासिका (जिसे उपन्यास भी कहा जाता है) ‘बगैर उनवान’ छपी थी। इसी छोटी सी किताब में उनकी दो कहानियां ‘आत्महत्या’ और ‘पांच दिन’ भी थीं। इसमें मंटो का अपने ऊपर एक लेख और अबुल्लैस सिद्दीकी का मंटो पर आलेख है।

सुविख्यात हिंदी लेखक उपेंद्रनथ अश्क की बहुचर्चित कृति ‘मंटो मेरा दुश्मन’ 1956 में नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई। इसमें मंटो की छह कहानियां, अशोक जी का लंबा संस्मरण और कृष्णचंदर के मंटो पर दो रेखाचित्र शुमार हैं। एनडी सहगल एंड संस और हिंद पॉकेट बुक्स से साठ के दशक में आए उनके संग्रह काफी चर्चित रहे। बाद में राजकमल प्रकाशन से मंटो की रचनावली ‘मंटोनामा’ प्रकाशित हुई; जिसके कई संस्करण आ चुके हैं। इस बीच उनकी कई उर्दू किताबों के हिंदी अनुवाद आए और हाथों-हाथ लिए गए। विभिन्न हिंदी पत्रिकाओं ने उन्हें लगातार अहम जगह दी।

‘सारिका’ में कमलेश्वर तो ‘धर्मयुग’ में धर्मवीर भारती ने उन पर एहतराम से सामग्री प्रकाशित की। मार्च 1979 में ‘सारिका’ ने मंटो पर विशेषांक निकाला। इस विशेषांक ने ‘सारिका’ की बिक्री के तमाम रिकॉर्ड तोड़ दिए। इस अंक की फोटोस्टेट प्रतियां तक बिकीं। 2012 में इस महान कलम का शताब्दी वर्ष आया तो हिंदी की बेशुमार साहित्यिक पत्रिकाओं ने उन पर विशेषांक प्रकाशित किए। इनमें से आज कई पुस्तकाकार में उपलब्ध हैं।

हिंदी समाज में मंटो का अपना दायरा है। दूसरी भारतीय भाषाओं में भी। अंग्रेजी और फ्रेंच अनुवाद के जरिए वह दुनिया भर में जाने गए। भारत में उन पर एक फिल्म बनी और कई वृत्तचित्र। प्रख्यात बंगला उपन्यासकार रबिशंकर बल ने उन पर उपन्यास लिखा। इस उपन्यास के हिंदी अनुवाद का नाम ‘दोजखनामा’ है। इस उपन्यास में गालिब और मंटो संवाद करते मिलते हैं। कब्रों से उठकर।

पाकिस्तान के कमोबेश बंद समाज में भी सआदत हसन मंटो खासे मकबूल हैं। पाकिस्तान का रंगमंच काफी सशक्त है। किंचित विरोध के बावजूद उनके नाटकों का वहां बदस्तूर मंचन होता है। कहते हैं कि मंटो का लिखा एक-एक लफ्ज़ बेशकीमती है। इस महान कलम की एक बानगी उनकी लघुकथा ‘स्याह हाशिए’ के जरिए गौर फरमाइए: “आग लगी तो सारा मोहल्ला जल गया- सिर्फ एक दुकान बच गई, जिसकी पेशानी पर यह बोर्ड लगा हुआ था- यहां इमारत-साजी का सारा सामान मिलता है।”

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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